Tuesday 27 February 2018

आवारगी

गाहे-ब-गाहे
अब भी
तिर जाता है
बंद दरवाजों का अक्स
कई रूपों में
कई आकारों में
कई रंगों में
कुछ धूसर से
कुछ स्याह से
सभी पहचानों से परे जा चुके हैं
लेकिन दरवाजे के भीतर रहती है
कुछ रहस्यों की वीरान सी दुनिया
जिनके भीतर कैद है
जंग खाए ताले से
कितनी ही आवाजें !
कितनी ही खामोशियाँ !
नहीं वे बाहर आती हैं
न ही मैं अंदर जा पाती हूँ
दरारों से अँधेरे की बू आती है नहीं आती
किसी भी बंद दरवाजे के भीतर से
रोशनी का एक भी कतरा
बंद दरवाजों के भीतर भी है
कोई एक ऐसी दुनिया
जिसके कोनों को थामकर
मिट जाना चाहती हैं ये
वहाँ भी छिड़ी एक जंग है
आवाजों और चुप्पियों के बीच
भा गई है उन्हें ये
बंद दरवाजे की वीरानी दुनिया !
ये दरवाजे इतिहास बन चुके हैं
इन दरवाजों के भीतर
कैद है इतिहास की आवारगी
जो अब तक दर्ज नहीं है
पन्नों में
किसी दस्तावेज की तरह

~भारती सिंह 

घुमक्कड़ी न भूलें

"दिन शहर में बदल गया / और शहर मस्तिष्क में।" जेसिका ग्रीनबौम कुछ इस तरह से अपनी एक वाक्य की कविता 'मैं तुम्हें न्यूयॉर्क शहर की सब खिड़कियों से अधिक प्रेम करती हूँ' शुरू करती हैं। अक्सर, जब हम किसी ऐसे भूदृश्य के विषय में सोचते हैं जहाँ कवि घूमते फिरते और अपना मन लगाते हों तो हमें शहर नहीं गाँव याद आते हैं। सर्जनात्मकता को उद्दीप्त करने के लिए देहाती शगल के तौर पर किए जाने वाले भ्रमण की संकल्पना बहुधा महान रोमांटिक कवियों के बहुप्रचलित ग्राम्य भ्रमण से आई है : जैसे विलियम वर्ड्सवर्थ का एक बादल की तरह अकेले भटकते फिरना और सैमुएल टेलर कोलरिज की लगातार एक सप्ताह तक कुंब्रियन माउनटेन में चलने वाली एकाकी यायावरी। लेकिन ग्रीनबौम की कविता न केवल स्वयं इसका हिस्सा बन जाती है बल्कि शहरी घुमक्कड़ी से समृद्ध कविता को परिभाषित करने में सहायक भी सिद्ध हुई है।

शहर की सड़कों पर बिना किसी मानचित्र या जीपीएस की सहायता के निरुद्देश्य भटकने की तुलना एक काव्य संकलन के पन्ने पलटने के अनुभव से की जा सकती है। वैसे ही जैसे आप किसी सड़क या पृष्ठ पर एक मोड़ लेते हैं, जैसे संरचनाओं और आकृतियों के प्रति आकृष्ट होते हैं, जैसे कुछ दुकानों या कविताओं को दूसरों के लिए नजरअंदाज करते हैं। माइकल द सेर्ता अपनी 1984 की पुस्तक 'द प्रैक्टिस ऑफ एवरी डे लाइफ' के एक खंड 'वाकिंग इन द सिटी' में कहते हैं, 'घूमने में भी एक प्रकार की आलंकारिक वाकपटुता है, मुहावरों और साहित्यिक अलंकारों को घुमा देने की कला किसी मार्ग की रचना करने के समान है'। फ्रैंक ओ हारा दिशाहीन घुमक्कड़ी के आनंददायक चित्रण के लिए सुविख्यात हैं भले ही वह साहित्यिक घुमक्कड़ी हो या पैरों पर चल कर की गई। उनकी 'मेडीटेशंस इन एन इमरजेंसी' इस बात का बहुत ठोस उत्तर प्रस्तुत करती है कि क्यों कुछ कवि गाँव देहात में घूमने के बजाय शहरी घुमक्कड़ी को तरजीह देते हैं और प्रकृति की बजाय संस्कृति के माध्यम से खोजबीन करना पसंद करते हैं। वे कहते हैं, "मैंने अपने आपको कभी देहाती जीवन की प्रशस्ति या किसी चरागाह में घटित अपने निर्दोष अतीत की पथभ्रष्ट करतूतों की स्मृतियों से अवरुद्ध नहीं किया। अपनी मनपसंद हरियाली का आनंद उठाने के लिए न्यूयार्क शहर को छोड़ कर जाने की आवश्यकता भी नहीं - क्योंकि मैं तो घास की उस तीखी धार की सुंदरता का आनंद भी तब तक नहीं उठा सकता जब तक कि मुझे पता न चल जाए कि उसके एन बगल में लोगों के गुजरने की एक पगडंडी, रिकॉर्ड स्टोर या ऐसा ही कोई और संकेत उपस्थित है जिससे लोगों में जीवन के प्रति रुचि और उत्साह का पता चलता है।"

जोर्ज ओपन जो ओ हारा के लगभग समकालीन लेकिन कुछ अधिक मुखर दार्शनिक थे, के पुलित्जर पुरुस्कार से सम्मानित संकलन की शीर्षक कविता 'ऑफ बीइंग ह्यूमन' के चालीस क्रमांकित खंड हैं, और प्रत्येक खंड शहर और और उसके वातावरण की ही व्याख्या करता है। इस कविता में वे यह निष्कर्ष निकालते है कि एक शहर मनुष्य के जीवन की सबसे अंतर्दृष्टिपूर्ण उपलब्धि हो सकता है। ओपन ने अपनी वह कविता 1960 के मध्य में पूरी की थी लेकिन उसका लहजा और सरोकार आज भी प्रासंगिक हैं, एक प्रकार से भविष्यबोधक। उन्होंने न केवल इस कविता को 20वीं शताब्दी की कालजयी रचना के रूप में प्रस्तुत किया बल्कि 21वीं सदी के लिए एक मार्गदर्शक की भूमिका भी निबाही। ओपन खंड 6 में लिखते हैं :

हमें दबाया गया है
एक दूसरे पर दबाया गया है
और जो कुछ भी होगा
हमें तुरंत बता दिया जाएगा

इसे 2016 के संदर्भ में देखें तो यह पद्यांश इस ग्रह के भीड़ भरे शहरों और इंटरनेट व सोशल मीडिया की अतिउपलब्धता के विषय में भी प्रासंगिक है। पहला खंड इस प्रकार शुरू होता है, "कई चीजें हैं / हम उनके मध्य रहते हैं / और उन्हें देखना / खुद को जानने जैसा है।" 1973 में पॉल ज्वाइग अपने 'पार्टीजन रिव्यु' में लिखते हैं "कविता अतिरिक्त उछालों और निपुण साहचर्य से आगे बढ़ती है" यह कविता की ऐसी व्याख्या है जो एक लक्ष्यरहित लेकिन तुष्टिदायक भ्रमण से गुण धर्म में समानता रखती है।

ओपन खंड 12 का आरंभ, दार्शनिक और गणितज्ञ अल्फ्रेड नॉर्थ वाइटहैड के चिंतन से विरोधाभास रखती हुई एक उक्ति से करते है, "इस तरह की व्याख्या में यह परिकल्पित है कि एक अनुभवजन्य विषय वास्तविक संसार के प्रति संवेदनशील प्रतिक्रिया देने का अवसर होता है", निश्चित रूप से इस तरह की संवेदनशील प्रतिक्रिया कई माध्यमों से प्राप्त की जा सकती है लेकिन कविता और घुमक्कड़ी उनमें से दो सबसे अधिक प्रभावशाली उपाय हैं।

यह आवश्यक नहीं कि इस तरह की अन्वेषणशील घुमक्कड़ी सदैव आनंद प्राप्ति के लिए ही की जाए। मिसाल के तौर पर ओ हारा, या ट्रांसेंडेंट या ओपन; जैसों की कविताएँ एक शहर और उसके बाशिंदों के जीवन का स्याह पक्ष भी प्रकाशित करती हैं। रॉबर्ट फ्रॉस्ट को देशीय कवि ही माना जाता रहा तथापि वे अपनी कविता 'रात्रि का परिचित' में वास्तविक व लाक्षणिक (आदर्श) दोनों रूपों में शहरी जीवन के अंधकारपूर्ण पक्ष को प्रस्तुत करते हैं।

मैं रात्रि से परिचित हूँ
बारिश में बाहर निकला - फिर बारिश में ही
शहर की सुदूरतम रोशनी से भी आगे निकल गया
फिर हेय दृष्टि से देखा शहर की म्लान गलियों को।

फ्रॉस्ट की 'टेरजा रीमा' उसके वक्ता की विषादयुक्त और अनिद्राजन्य सैर की लय को निरूपित करती है।

"मैं पहरेदार की गश्त के दौरान उसके पास से गुजरा
नजरें चुरा लीं
कि मैं बच रहा था सफाई देने से"

ऐसी पंक्तियाँ न केवल नगरीय जीवन में अपरिचित व्यक्तियों के संपर्क में उत्पन्न हुई अपरिहार्य तथा बहुधा असुखद परिस्थितियों का चित्रण करती हैं बल्कि शहर में घूमने वाले लोगों के बीच प्रचलित इस विरोधाभास को भी सिद्ध करती हैं कि : 'एक व्यक्ति शहर के सबसे घने जनसंख्या केंद्र में भी अपने आपको पूरी तरह एकाकी महसूस कर सकता है।' ऐन सेक्सटन अपनी '45 मर्सी स्ट्रीट' कविता में शहर में भ्रमण के उद्विग्न और व्याकुल पक्ष की पड़ताल करतीं हैं साथ ही वे भ्रमण के प्रवाह में बहने और स्वप्न देखने की अवस्था में समरूपता देखती हैं। वे कहती हैं -

'मेरे सपने में
मैं पूरी बीकन पहाड़ी पर ऊपर नीचे घूम रही हूँ
ढूँढ़ते हुए सदयता नामक मार्ग को
पर वह कहीं नहीं है
बैकबे में जाकर भी ढूँढ़ती हूँ
लेकिन वह वहाँ भी नहीं है
वहाँ भी नहीं है।'

शहरों में सड़कों पर बने हुए संकेत और चिह्न स्वभाव से ऐसे निर्देशात्मक होने चाहिए कि कोई वहाँ खो न पाए, लेकिन ऊपर दी गई कविता में कवियत्री "एक मार्ग के संकेत" को ढूँढ़ती रहती है। ऐसा वह अपने आतंरिक सुलझाव के लिए भी कर रही है जो बहुधा घूमने से ही प्राप्त होता है। लेकिन यहाँ वह फिर से खो जाती है गुमशुदगी का अहसास और बदलाव के अवशेष उसे चारों तरफ से घेर लेते हैं। सेक्सटन लिखती हैं,

"45 मर्सी स्ट्रीट,
तुम कहाँ चले गए
मेरी परदादी के साथ
उनके व्हेल की हड्डियों से बने कंचुक में
घुटने टेक कर"

इन कविताओं में वह व्यक्त करती हैं कि कैसे समय का प्रवाह शहरों और उनके बाशिंदों के साथ हमेशा रहमदिली से पेश नहीं आता है

शहर की सड़कों पर चहलकदमी पर आधारित कविताएँ न केवल अंदरूनी चिंताओं और शोक की अभिव्यक्ति करती हैं बल्कि बाह्य अन्याय और असमानता के दुख भी उजागर करती हैं। 'लंदन' में विलियम ब्लेक अपने पाठकों को क्षतिग्रस्त शहर के कुरूप और निष्ठुर दौरे पर ले जाते हैं।

मैं राजाज्ञा द्वारा नियंत्रित सड़कों पर भटकता हूँ
शासन द्वारा नियंत्रित टेम्स नदी के समीप
हर चेहरे पर कई निशान देखता हूँ मैं
दुख और दुर्बलता के निशान

वह घूमने वालों का ध्यान शहर के वंचितों की तरफ आकर्षित करते है। मजलूम चिमनी साफ करने वाला मजदूर, एक राष्ट्र के लालच पर जान दे देने को विवश सैनिक और आर्थिक कारणों से जबरन देह वृत्ति में धकेल दी गई युवती। यद्यपि 'लंदन' 1794 में प्रकाशित हुए थी तथापि उनके द्वारा की गई नगरीय अन्याय की विवेचना अब भी समीचीन और धारदार है।

निक्की योवन्नी 'वाकिंग डाउन पार्क' में इस प्रकार की समालोचना का अधिक सामायिक स्वरूप प्रस्तुत करती हैं। पहले ही छंद में वे शहरी घुमंतुओं से सीधे मुखातिब होती हैं।

एम्स्टर्डम या कोलंबस में
पार्क की ओर चलते हुए
तुम क्या कभी यह सोचने के लिए ठहरते हो
कि पहले यह मार्ग कैसा दिखता था
क्या तुम कभी ठहरे सोचने के लिए
कि स्टॉक एक्सचेंज की तरफ जाती
भूमिगत रेल पर सवार होने से पहले
तुम कहाँ चल रहे थे दरअसल।
(हम स्टॉक एक्सचेंज नहीं/
खुद विनियमित स्टॉक हैं)

एक तरफ न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज जहाँ विक्रेता और खरीदार दोनों व्यापार के लिए पंजीकृत कंपनी के स्टॉक (पूँजी) के हिस्सों का विनिमय करते हैं। दूसरी तरफ अमेरिकी दास प्रथा के अंतर्गत मनुष्यों के स्टॉक (पशुधन) की खरीद फरोख्त की जाती है। अपनी इन अंतिम पंक्तियों की दीर्घ निरंतरता से वे दोनों का आह्वान करती है।

कविता में 'क्या तुमने कभी' और 'कभी' की अनुप्रासीय आवृत्ति के बहाने वक्ता की आँखें बार बार शहर को निरखती हैं और तब अपना अंतिम प्रश्न पूछती हैं -

'कभी सोचते हो कैसा लगेगा
यदि हमारी जड़ी बूटियाँ और अरबी के पत्ते
बढ़ते समय
और तोते बोलते समय
यही कोलाहल करें कि काला ही सुंदर है, काला ही सुंदर है'

और "कभी सोचते हो कि क्या संभव है / हमारे लिए / खुश रह पाना।" योवन्नी इतिहास के अपमार्जन या विलोपन की कारगुजारी की पड़ताल करती हैं जो न केवल न्यूयॉर्क में बल्कि महानगरों में किया गया। और पाठकों को यह याद रखने के लिए आमंत्रित करती हैं कि आज शहरों में हमारे अफ्रीकी अमरीकी नागरिक जिस खेदजनक हालात का सामना कर रहे हैं दरअसल उसकी जड़ें अतीत की अलंघनीय अमानवीय और शोषक कुप्रथाओं में छिपी हैं।

उनके घुमक्कड़ व्यक्तित्व द्वारा किया गया बारीक अवलोकन उन्हें शहर के काल्पनिक पुनः समवाय की अनुमति देता है। हम यह कल्पना करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं कि कैसे यह शहर जहाँ हम रहते हैं किसी विचार या अवधारणा को प्रवर्तित करने में सफल या असफल होता है, कैसे कई अदृश्य ताकतें मिल कर उसे उसके वर्तमान स्वरूप में ढालती हैं और कैसे यह कोई अन्य आकार ग्रहण कर सकने के योग्य हो सकता है।

नगरीय भ्रमण और कविता के अंतर्निहित संबंधों को अनेकों कवियों ने पहचाना है लेकिन उसे व्यवस्थित तरीके से प्रस्तुत करने का काम पहली बार चार्ल्स बुडलेयर ने किया था। वे अपने गद्य और खासतौर पर 'पेरिस स्प्लीन' (मृत्योपरांत 1869 में प्रकाशित) नामक संग्रह में संकलित कविताओं में स्वीकार करते हैं कि शहरी घुमंतुओं और कलाकारों के भीतर बारीक अवलोकन और उत्सुकता की प्रवृत्ति एक नियामक संवेग के रूप में पाई जानी चाहिए। अपने 186३ के निबंध 'द पेंटर ऑफ मॉडर्न लाइफ', में बुडलेयर घुमक्कड़ी या शहर भर में किए जाने वाले उद्देश्यरहित भ्रमण के सिद्धांतों का उद्घाटन करते हैं। वे एक बराय नाम चित्रकार और दरअसल ठेठ घुमक्कड़ कोन्स्टैन्टिन गाइज के विषय में कहते हैं, "एम जी को समझने के लिए, जो पहली बात ध्यान रखनी चाहिए वह यह कि इस विलक्षण व्यक्तित्व का आरंभ जिज्ञासा नामक बिंदु से होता है।'

जिज्ञासु होने का अर्थ, कुछ सीखने या जानने के लिए उत्सुक होना हो सकता है। दूसरा अर्थ है विचित्र और असाधारण होना। बुडलेयर के साहित्यिक कृतित्व दोनों ही प्रकार की परिभाषाओं का उदाहरण देते हैं शब्द व्युत्पत्तिशास्त्र के अनुसार, जिज्ञासा (curiosity) शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन के curious से हुई है जिसके अर्थ हैं, 'सावधान, परिश्रमी, उत्सुकता से पड़ताल करना'; आदि, यह cura या 'परवाह' से संबंधित भी है। दूसरे शब्दों में, स्वयं से बाहर निकल कर शहर पर ध्यान केंद्रित करते समय अपने भीतर जो संवेग उत्पन्न होते हैं वे भी परवाह का ही एक रूप हैं।

पॉल वैलरी के अनुसार "कविता शब्दों के माध्यम से काव्यात्मक मनोदशा उत्पन्न करने का यंत्र है।" शहर में भ्रमण करने से वह मशीन तुरत फुरत चालू हो जाती है। सार रूप में, घूमना एक विशेष प्रकार की मनोदशा को उत्पन्न करना है; कविता करना - या एक कविता पढ़ना भी ऐसा ही है। अर्थात् आप अपने लिए उसकी पुनर्रचना कर रहे हैं जिसकी रचना कवि आपके लिए पहले ही कर चुका है।

शहर में भ्रमण और कविता का पाठ काल के प्रवाह को विचारपूर्वक और रुचिपूर्वक बाधित करने के तरीके हैं, और संभवतः अपने अनुभवों को तीव्रतर और एकाग्र करने के भी। दोनों ही दक्षता, अधिकतम लाभ प्राप्ति तथा उत्पादकता जैसे वैश्विक पूँजीवाद की गति से निर्धारित प्रचलित अनुमानों और कल्पनाओं को नजरंदाज और खंडित करने के अवसरों का निर्माण करते हैं। कविता अपने प्रारूपीय स्तर पर ही अपूर्ण है; यह निर्देशों की सारणी, ज्ञापन या मजमून नहीं है। टहलना कहीं पहुचने का त्वरित तरीका कभी नहीं हो सकता। लेकिन भ्रमण और कविता दोनों ही समय और स्थान के सघन और गहन अनुभवों को ग्रहण करने की क्षमता रखते हैं।

जेक्स रोबॉड अपनी कविता 'अमंग मेनी पोयम्स' में इस पूरी मीमांसा का सारतत्व खींच निकालते हैं। मैरी ऐन कॉज के द्वारा किए गए अनुवाद में लेखक याद करता है, "यह मेरे पैरों के द्वारा लिखी गई कविता है / मैं हमेशा अपनी कविताओं को / चलते समय मौन में और मस्तिष्क में रचता हूँ।" रोबॉड हमें नगरीय भ्रमण, लेखन, और पठन की अंतर्सम्बद्ध काल्पनिक शक्ति को समझने के लिए जागरूक बनाते हैं। यह सोचने के लिए प्रोत्साहित करते हैं कि भविष्य में किस तरह के नगरों का निर्माण हो और किस तरह की कविताओं को पढ़ा और लिखा जाए।

~अनुराधा सिंह

Monday 26 February 2018

पक्षी और दीमक

बाहर चिलचिलाती हुई दोपहर है लेकिन इस कमरे में ठंडा मद्धिम उजाला है। यह उजाला इस बंद खिड़की की दरारों से आता है। यह एक चौड़ी मुँडेरवाली बड़ी खिड़की है, जिसके बाहर की तरफ, दीवार से लग कर, काँटेदार बेंत की हरी-घनी झाड़ियाँ हैं। इनके ऊपर एक जंगली बेल चढ़ कर फैल गई है और उसने आसमानी रंग के गिलास जैसे अपने फूल प्रदर्शित कर रखे हैं। दूर से देखनेवालों को लगेगा कि वे उस बेल के फूल नहीं, वरन बेंत की झाड़ियों के अपने फूल हैं।

किंतु इससे भी आश्‍चर्यजनक बात यह है कि उस लता ने अपनी घुमावदार चाल से न केवल बेंत की डालों को, उनके काँटों से बचते हुए, जकड़ रखा है, वरन उसके कंटक-रोमोंवाले पत्‍तों के एक-एक हरे फीते को समेट कर, कस कर, उनकी एक रस्‍सी-सी बना डाली है; और उस पूरी झाड़ी पर अपने फूल बिखराते-छिटकाते हुए, उन सौंदर्य-प्रतीकों को सूरज और चाँद के सामने कर दिया है।

लेकिन, इस खिड़की को मुझे अकसर बंद रखना पड़ता है। छत्‍तीसगढ़ के इस इलाके में, मौसम-बेमौसम आँधीनुमा हवाएँ चलती हैं। उन्‍होंने मेरी खिड़की के बंद पल्‍लों को ढीला कर डाला है। खिड़की बंद रखने का एक कारण यह भी है कि बाहर दीवार से लग कर खड़ी हुई हरी-घनी झाड़ियों के भीतर जो छिपे हुए, गहरे, हरे-साँवले अंतराल हैं, उनमें पक्षी रहते हैं और अंडे देते हैं। वहाँ से कभी-कभी उनकी आवाजें, रात-बिरात, एकाएक सुनाई देती हैं। वे तीव्र भय की रोमांचक चीत्‍कारें हैं क्‍योंकि वहाँ अपने शिकार की खोज में एक भुजंग आता रहता है। वह, शायद उन तरफ की तमाम झाड़ियों के भीतर रेंगता फिरता है।

एक रात, इसी खिड़की में से एक भुजंग मेरे कमरे में भी आया। वह लगभग तीन-फीट लंबा अजगर था। खूब खा-पी कर के, सुस्‍त हो कर, वह खिड़की के पास, मेरी साइकिल पर लेटा हुआ था। उसका मुँह 'कैरियर' पर, जिस्‍म की लपेट में, छिपा हुआ था और पूँछ चमकदार 'हैंडिल' से लिपटी हुई थी। 'कैरियर' से ले कर 'हैंडिल' तक की सारी लंबाई को उसने अपने देह-वलयों से कस लिया था। उसकी वह काली-लंबी-चिकनी देह आतंक उत्‍पन्‍न करती थी।

हमने बड़ी मुश्किल से उसके मुँह को शिनाख्‍त किया। और फिर एकाएक 'फिनाइल' से उस पर हमला करके उसे बेहोश कर डाला। रोमांचपूर्ण थे हमारे वे व्‍याकुल आक्रमण! ग‍हरे भय की सनसनी में अपनी कायरता का बोध करते हुए, हम लोग, निर्दयतापूर्वक, उसकी छटपटाती दे‍ह को लाठियों से मारे जा रहे थे।

उसे मरा हुआ जान, हम उसका अग्नि-संस्‍कार करने गए। मिट्टी के तेल की पीली-गेरूई ऊँची लपक उठाते हुए, कंडों की आग में पड़ा हुआ वह ढीला नाग-शरीर, अपनी बची-खुची चेतना समेट कर, इतनी जोर-से ऊपर उछला कि घेरा डाल कर खड़े हुए हम लोग हैरत में आ कर, एक कदम पीछे हट गए। उसके बाद रात-भर, साँप की ही चर्चा होती रही।

इसी खिड़की से लगभग छह गज दूर, बेंत की झाड़ियों के उस पार, एक तालाब है... बड़ा भारी तालाब, आसमान का लंबा-चौड़ा आईना, जो थरथराते हुए मुस्‍कराता है। और उसकी थरथराहट पर किरनें नाचती रहती हैं।

मेरे कमरे में जो प्रकाश आता है, वह इन लहरों पर नाचती हुई किरनों का उछल कर आया हुआ प्रकाश है। खिड़की की लंबी दरारों में से गुजर कर वह प्रकाश, सामने की दीवार पर चौड़ी मुँडेर के नीचे सुंदर झलमलाती हुई आकृतियाँ बनाता है।

मेरी दृष्टि उस प्रकाश-कंप की ओर लगी हुई है। एक क्षण में उसकी अनगिनत लहरें नाचे जा रही हैं, नाचे जा रही हैं। कितना उद्दाम, कितना तीव्र वेग है उन झिलमिलाती लहरों में। मैं मुग्‍ध हूँ कि बाहर के लहराते तालाब ने किरनों की सहायता से अपने कंपों की प्रतिच्‍छवि मेरी दीवार पर आँक दी है।

काश, ऐसी भी कोई मशीन होती जो दूसरों के हृदयकंपनों को, उनकी मानसिक हलचलों को, मेरे मन के परदे पर चित्र रूप में उपस्थित कर सकती।

उदाहरणत:, मेरे सामने इसी पलंग पर, वह जो नारी-मूर्ति बैठी है, उसके व्‍यक्तित्‍व के रहस्‍य को मैं जानना चाहता हूँ, वैसे, उसके बारे में जितनी गहरी जानकारी मुझे है, शायद और किसी को नहीं।

इस धुँधले अँधेरे कमरे में वह मुझे सुंदर दिखाई दे रही है। दीवार पर गिरे हुए प्रत्‍यावर्तित प्रकाश का पुन: प्रत्‍यावर्तित प्रकाश, नीली चूडियोंवाले हाथों में थमे हुए उपन्‍यास के पन्‍नों पर, ध्‍यानमग्‍न कपोलों पर और आसमानी आँचल पर फैला हुआ है। यद्यपि इस समय हम दोनों अलग-अलग दुनिया में (वह उपन्‍यास के जगत में और मैं अपने खयालों के रास्‍तों पर) घूम रहे हैं, फिर भी इस अकेले धुँधुले कमरे में गहन साहचर्य के संबंध-सूत्र तड़प रहे हैं और महसूस किए जा रहे हैं।

बावजूद इसके, यह कहना ही होगा कि मुझे इसमें 'रोमांस' नहीं दीखता। मेरे सिर का दाहिना हिस्‍सा सफेद हो चुका है। अब तो मैं केवल आश्रय का अभिलाषी हूँ, ऊष्‍मापूर्ण आश्रय का...

फिर भी मुझे शंका है। यौवन के मोह-स्‍वप्‍न उद्दाम आत्‍मविश्‍वास अब मुझमें नहीं हो सकता। एक वयस्‍क पुरुष का अविवाहिता वयस्‍का स्‍त्री से प्रेम भी अजीब होता है। उसमें उद्बुद्ध इच्‍छा के आग्रह के सा्थ-साथ जो अनुभवपूर्ण ज्ञान का प्रकाश होता है, वह पल-पल पर शंका और संदेह को उत्‍पन्‍न करता है।

श्‍यामला के बारे में मुझे शंका रहती है। वह ठोस बातों की बारीकियों का बड़ा आदर करती है। वह व्‍यवहार की कसौटी पर मनुष्‍य को परखती है। वह मुझे अखरता है। उसमें मुझे एक ठंडा पथरीलापन मालूम होता है। गीले-सपनीले रंगों का श्‍यामला में सचमुच अभाव है।

ठंडा पथरीलापन उचित है, या अनुचित, यह‍ मैं नहीं जानता। किंतु जब औचित्‍य के सारे प्रमाण, उनका सारा वस्‍तु-सत्‍य पॉलिशदार टीन-सा चमचमा उठता है, तो मुझे लगता है - बुरे फँसे इन फालतू की अच्‍छाइयों में, दूसरी तरफ मुझे अपने भीतर ही कोई गहरी कमी महसूस होती है और खटकने लगती है।

ऐसी स्थिति में मैं 'हाँ' और 'ना' के बीच में रह कर, खामोश, 'जी हाँ' की सूरत पैदा कर देता हूँ। डरता सिर्फ इस बात से हूँ कि कहीं यह 'जी हाँ' 'जी हुजूर' न बन जाए। मैं अतिशय शांति-प्रिय व्‍यक्ति हूँ। अपनी शांति भंग न हो, इसका बहुत खयाल रखता हूँ। न झगड़ा करना चाहता हूँ, न मैं किसी झगड़े में फँसना चाहता...

उपन्‍यास फेंक कर श्‍यामला ने दोनों हाथ ऊँचे करके जरा-सी अँगड़ाई ली। मैं उसकी रूप-मुद्रा पर फिर से मुग्‍ध होना ही चाहता था कि उसने एक बेतुका प्रस्‍ताव सामने रख दिया। कहने लगी, 'चलो, बाहर घूमने चलें।'

मेरी आँखों के सामने बाहर की चिलचिलाती सफेदी और भयानक गरमी चमक उठी। खस के परदों के पीछे, छत के पंखों के नीचे, अलसाते लोग याद आए। भद्रता की कल्‍पना और सुविधा के भाव मुझे मना करने लगे। श्‍यामला के झक्‍कीपन का एक प्रमाण और मिला।

उसने मुझे एक क्षण आँखों से तौला और फैसले के ढंग से कहा, 'खैर, मैं तो जाती हूँ। देख कर चली जाऊँगी... बता दूँगी।'

लेकिन चंद मिनटों बाद, मैंने अपने को चुपचाप उसके पीछे चलते हुए पाया। तब दिल में एक अजीब झोल महसूस हो रहा था। दिमाग के भीतर सिकुड़न-सी पड़ गई थी। पतलून भी ढीला-ढाला लग रहा था, कमीज के 'कॉलर' भी उल्‍टे-सीधे रहें होंगे। बाल अन-सँवरे थे ही। पैरों को किसी-न-किसी तरह आगे ढकेले जा रहा था।

लेकिन यह सिर्फ दुपहर के गरम तीरों के कारण था, या श्‍यामला के कारण, यह कहना मुश्किल है।

उसने पीछे मुड़ कर मेरी तरफ देखा और दिलासा देती हुई आवाज में कहा, 'स्‍कूल का मैदान ज्‍यादा दूर नहीं है।'

वह मेरे आगे-आगे चल रही थी, लेकिन मेरा ध्‍यान उसके पैरों और तलुओं के पिछले हिस्‍से की तरफ ही था। उसकी टाँग, जो बिवाइयों-भरी और धूल-भरी थी, आगे बढ़ने में, उचकती हुई चप्‍पल पर चटचटाती थी। जाहिर था कि ये पैर धूल-भरी सड़कों पर घूमने के आदी हैं।

यह खयाल आते ही, उसी खयाल से लगे हुए न मालूम किन धागों से हो कर, मैं श्‍यामला से खुद को कुछ कम, कुछ हीन पाने लगा; और इसकी ग्‍लानि से उबरने के लिए, मैं उस चलती हुई आकृति के साथ, उसके बराबर हो लिया। वह कहने लगी, 'याद है शाम को बैठक है। अभी चल कर न देखते तो कब देखते। और सबके सामने साबित हो जाता कि तुम खुद कुछ करते नहीं। सिर्फ जबान की कैंची चलती है।'

अब श्‍यामला को कौन बताए कि न मैं इस भरी दोपहर में स्‍कूल का मैदान देखने जाता और न शाम को बैठक में ही। संभव था कि 'कोरम' पूरा न होने के कारण बैठक ही स्‍थगित हो जाती। लेकिन श्‍यामला को यह कौन बताए कि हमारे आलस्‍य में भी एक छिपी हुई, जानी-अनजानी योजना रहती है। वर्तमान सुचालन का दायित्‍व जिन पर है, वे खुद संचालन-मंडल की बैठक नहीं होने देना चाहते। अगर श्‍यामला से कहूँ तो पूछेगी, 'क्‍यों!'

फिर मैं जवाब दूँगा। मैं उसकी आँखों से गिरना नहीं चाहता, उसकी नजर में और-और चढ़ना चाहता हूँ। प्रेमी जो हूँ; अपने व्‍यक्तित्‍व का सुंदरतम चित्र उपस्थित करने की लालसा भी तो रहती है।

वैसे भी, धूप इतनी तेज थी कि बात करने या बात बढ़ाने की तबीयत नहीं हो रही थी।

मेरी आँखें सामने के पीपल के पेड़ की तरफ गईं, जिसकी एक डाल तालाब के ऊपर, बहुत ऊँचाई पर, दूर तक चली गई थी। उसके सिरे पर एक बड़ा-सा भूरा पक्षी बैठा हुआ था। उसे मैंने चील समझा। लगता था कि वह मछलियों के शिकार की ताक लगाए बैठा है।

लेकिन उसी शाखा की बिलकुल विरुद्ध दिशा में, जो दूसरी डालें ऊँची हो कर तिरछी और बाँकी-टेढ़ी हो गई हैं, उन पर झुंड के झुंड कौवे काँव-काँव कर रहे हैं, मानो वे चील की शिकायत कर रहे हों और उच‍क-उचक कर, फुदक-फुदक कर, मछली की ताक में बैठे उस पक्षी के विरुद्ध प्रचार किए जा रहे हों।

- कि इतने में मुझे उस मैदानी-आसमानी चमकीले खुले-खुलेपन में एकाएक, सामने दिखाई देता है - साँवले नाटे कद पर भगवे रंग की खद्दर का बंडीनुमा कुरता, लगभग चौरस मोटा चेह‍रा, जिसके दाहिने गाल पर एक बड़ा-सा मसा है, और उस मसे में बारीक बाल निकले हुए।

जी धँस जाता है उस सूरत को देख कर। वह मेरा नेता है, संस्‍था का सर्वेसर्वा है। उसकी खयाली तस्‍वीर देखते ही मुझे अचानक दूसरे नेताओं की और सचिवालय के उस अँधेरे गलियारे की याद आती है, जहाँ मैंने इस नाटे-मोटे भगवे खद्दर-कुरतेवाले को पहले-पहले देखा था।

उन अँधेरे गलियारों में से मैं कई-कई बार गुजरा हुँ और वहाँ किसी मोड़ पर किसी कोने में इकट्ठा हुए, ऐसी ही संस्‍थाओं के संचालकों के उतरे हुए चेहरों को देखा है। बावजूद श्रेष्‍ठ पोशाक और 'अपटूडेट' भेस के सँवलाया हुआ गर्व, बेबस गंभीरता, अधीर उदासी और थकान उनके व्‍यक्तित्‍व पर राख-सी मलती है। क्‍यों?

इसलिए कि माली साल की आखिरी तारीख को अब सिर्फ दो या तीन दिन बचे हैं। सरकारी 'ग्रांट' अभी मंजूर नहीं हो पा रही है, कागजात अभी वित्‍त-विभाग में ही अटके पड़े हैं। आफिसों के बाहर, गलियारे के दूर किसी कोने में, पेशाबघर के पास, या होटलों के कोनों में क्‍लर्कों की मुट्ठियाँ गरम की जा रहीं हैं, ताकि 'ग्रांट' मंजूर हो और जल्‍दी मिल जाए।

ऐसी ही किसी जगह पर मैंने इस भगवे-खद्दर कुरतेवाले को जोर-जोर से अंगरेजी बोलते हुए देखा था। और, तभी मैंने उसके तेज मिजाज और फितरती दिमाग का अंदाजा लगाया था।

इधर, भरी दोपहर में श्‍यामला का पार्श्‍व-संगीत चल ही रहा है, मैं उसका कोई मतलब नहीं निकाल पाता। लेकिन न मालूम कैसे, मेरा मन उसकी बातों से कुछ संकेत ग्रहण कर, अपने ही रास्‍ते पर चलता रहता है। इसी बीच उसके एक वाक्‍य से मैं चौंक पड़ा, 'इससे अच्‍छा है कि तुम इस्‍तीफा दे दो। अगर काम नहीं कर सकते तो गद्दी क्‍यों अड़ा रखी है।'

इसी बात को कई बार मैंने अपने से भी पूछा था। लेकिन आज उसके मुँह से ठीक उसी बात को सुन कर मुझे धक्‍का-सा लगा। और मेरा मन कहाँ का कहाँ चला गया।

एक दिन की बात! मेरा सजा हुआ कमरा! चाय की चुस्कियाँ! कहकहे! एक पीले रंग के तिकोने चेहरेवाला मसखरा, ऊलजलूल शख्‍स! बगैर यह सोचे कि जिसकी वह निंदा कर रहा है, वह मेरा कृपालु मित्र और सहायक है, वह शख्‍स बात बढ़ाता जा रहा है।

मैं स्‍तब्‍ध! किंतु, कान सुन रहे हैं। हारे हुए आदमी-जैसी मेरी सूरत, और मैं!

वह कहता जा रहा है, 'सूक्ष्‍मदर्शी यंत्र? सूक्ष्‍मदर्शी यंत्र कहाँ हैं?'

'हैं तो। ये हैं। देखिए।' क्‍लर्क कह‍ता है। रजिस्‍टर बताता है। सब कहते हैं-हैं, हैं। ये हैं। लेकिन, कहाँ हैं? यह तो सब लिखित रूप में हैं, वस्‍तु-रूप में कहाँ हैं।

वे ख‍रीदे ही नहीं गए! झूठी रसीद लिखने का कमीशन विक्रेता को, शेष रकम जेब में। सरकार से पूरी रकम वसूल!

किसी खास जाँच के एन मौके पर‍ किसी दूसरे श‍हर की...संस्‍था से उधार ले कर, सूक्ष्‍मदर्शी यंत्र हाजिर! सब चीजें मौजूद हैं। आइए, देख जाइए। जी हाँ, ये तो हैं सामने। लेकिन जांच खत्‍म होने पर सब गायब, सब अंतर्धान। कैसा जादू है। खर्चे का आँकडा खूब फुला कर रखिए। सरकार के पास कागजात भेज दीजिए। खास मौकों पर ऑफिसों के धुँधले गलियारों और होटलों के कोनों में मुट्ठियाँ गरम कीजिए। सरकारी 'ग्रांट' मंजूर! और उसका न जाने कितना हिस्‍सा, बड़े ही तरीके से, संचालकों की जेब में! जी!'

भरी दोपह‍र में मैं आगे बढ़ा जा रहा हूँ। कानों में ये आवाजों गूँजती जा रही हैं। मैं व्‍याकुल हो उठता हूँ। श्‍यामला का पार्श्‍व-संगीत चल रहा है। मुझे जबरदस्‍त प्‍यास लगती है! पानी, पानी!

-कि इतने में एकाकए विश्‍वविद्यालय के पुस्‍तकालय की ऊँचे रोमन स्तंभोंवाली इमारत सामने आ जाती है। तीसरा पहर! हलकी धूप! इमारत की पत्‍थर-सीढ़ियाँ, लंबी, मोतिया!

सीढ़ियों से लग कर, अभरक-मिली लाल मिट्टी के चमचमाते रास्‍ते पर सुंदर काली 'शेवरलेट'।

भगवे खद्दर-कुरते वाले की 'शेवरलेट', जिसके जरा पीछे मैं खड़ा हूँ, और देख रहा हूँ - यों ही, कार का नंबर - कि इतने में उसके चिकने काले हिस्‍से में, जो आईने-सा चमकदार है, सूरत दिखाई देती है।

भयानक है वह सूरत! सारे अनुपात बिगड़ गए हैं। नाक डेढ़ गज लंबी और कितनी मोटी हो गई है। चेहरा बेहद लंबा और सिकुड़ गया है। आँखें खड्डेदार। कान नदारद। भूत-जैसा अप्राकृतिक रूप। मैं अपने चेहरे की उस विद्रूपता को, मुग्‍धभाव से, कुतूहल से और आश्‍चर्य से देख रहा हूँ, एकटक।

कि इतने में मैं दो कदम एक ओर हट जाता हूँ; और पाता हूँ कि मोटर के उस काले चमकदार आईने में मेरे गाल, ठुड्डी, नाम, कान सब चौड़े हो गए हैं, एकदम चौड़े। लंबाई लगभग नदारद। मैं देखता ही रहता हूँ, देखता ही रहता हूँ कि इतने में दिल के किसी कोने में कई अँधियारी गटर एकदम फूट निकलती है। वह गटर है आत्‍मालोचन, दु:ख और ग्‍लानि की।

और, सहसा मुँह से हाय निकल पड़ती है। उस भगवे खद्दर-कुरते वाले से मेरा छुटकारा कब होगा, कब होगा।

और, तब लगता है कि इस सारे जाल में, बुराई की इस अनेक चक्रोंवाली दैत्‍याकार मशीन में, न जाने कब से मैं फँसा पड़ा हूँ। पैर भिंच गए हैं, पसलियाँ चूर हो गई हैं, चीख निकल नहीं पाती, आवाज हलक में फँस कर रह गई है।

कि इसी बीच अचानक एक नजारा दिखाई देता है। रोमन स्तंभोंवाली विश्‍वविद्यालय के पुस्‍तकालय की ऊँची, लंबी, मोतिया सीढ़ियों पर से उतर रही है एक आत्‍म-विश्‍वासपूर्ण गौरवमय नारीमूर्ति।

वह किरणीली मुस्‍कान मेरी ओर फेंकती-सी दिखाई देती है। मैं इस स्थिति में नहीं हूँ कि उसका स्‍वागत कर सकूँ। मैं बदहवास हो उठता हूँ।

वह धीमे-धीमे मेरे पास आती है। अभ्‍यर्थनापूर्ण मुस्‍काराहट के साथ कहती है, 'पढ़ी है आपने यह पुस्‍तक।'

काली जिल्‍द पर सुनहले रोमन अक्षरों में लिखा है, 'आई विल नाट रेस्‍ट।'

मैं साफ झूठ बोल जाता हूँ, 'हाँ पढ़ी है, बहुत पहले।'

लेकिन मुझे महसूस होता है कि मेरे चेहरे पर से तेलिया पसीना निकल रहा है। मैं बार-बार अपना मुँह पोंछता हूँ रूमाल से। बालों के नीचे ललाट-हाँ, ललाट, (यह शब्‍द मुझे अच्‍छा लगता है) को रगड़ कर साफ करता हूँ।

और, फिर दूर एक पेड़ के नीचे, इधर आते हुए, भगवे खद्दर-कुरतेवाले की आकृति को देख कर श्‍यामला से कहता हूँ, 'अच्‍छा, मै जरा उधर जा रहा हूँ। फिर भेंट होगी।' और सभ्‍यता के तकाजे से मैं उसके लिए नमस्‍कार के रूप में मुस्‍कराने की चेष्‍टा करता हूँ।

पेड़।

अजीब पेड़ है, (यहाँ रूका जा सकता है), बहुत पुराना पेड़ है, जिसकी जड़ें उखड़ कर बीच में से टूट गई हैं और साबित है, उनके आस-पास की मिट्टी खिसक गई है। इसलिए वे उभर कर ऐंठी हुई-सी लगती हैं। पेड़ क्‍या है, लगभग ठूँठ है। उसकी शाखाएँ काट डाली गई हैं।

लेकिन, कटी हुई बाँहोंवाले उस पेड़ में से नई डालें निकल कर हवा में खेल रही हैं! उन डालों में कोमल-कोमल हरी-हरी पत्तियाँ झालर-सी दिखाई देती हैं। पेड़ के मोटे तने में से जगह-जगह ताजा गोंद निकल रहा है। गोंद की साँवली कत्‍थई गठानें मजे में देखी जा सकती हैं।

अजीब पेड़ है, अजीब! (शायद, यह अच्‍छाई का पेड़ है) इसलिए कि एक दिन शाम की मोतिया-गुलाबी आभा में मैंने एक युवक‍-युवती को इस पेड़ के तले ऊँची उठी हुई, उभरी हुई, जड़ पर आराम से बैठे हुए पाया था। संभवत: वे अपने अत्यंत आत्‍मीय क्षणों में डूबे हुए थे।

मुझे देख कर युवक ने आदरपूर्वक नमस्‍कार किया। लड़की ने भी मुझे देखा और झेंप गई। हलके झटके से उसने अपना मुँह दूसरी ओर कर लिया। लेकिन उसकी झेंपती हुई ललाई मेरी नजरों से न बच सकी।

इस प्रेम-मुग्‍ध को देख कर मैं भी एक विचित्र आनंद में डूब गया। उन्‍‍हें निरापद करने के लिए जल्‍दी-जल्‍दी पैर बढाता हुआ मैं वहाँ से नौ-दो ग्‍यारह हो गया।

यह पिछली गर्मियों की मनोहर साँझ की बात है। लेकिन आज इस भरी दोपहरी में श्‍यामला के साथ पल-भर उस पेड़ के तले बैठने को मेरी भी तबीयत हुई। बहुत ही छोटी और भोली इच्‍छा है यह।

लेकिन मुझे लगा कि शायद श्‍यामला मेरे सुझाव को नहीं मानेगी। स्‍कूल-मैदान पहुँचने की उसे जल्‍दी जो है। कहने की मेरी हिम्‍मत ही नहीं हुई।

लेकिन दूसरे क्षण, आप-ही-आप, मेरे पैर उस ओर बढ़ने लगे। और ठीक उसी जगह मैं भी जा कर बैठ गया, जहाँ एक साल पहले वह युग्‍म बैठा था। देखता क्‍या हूँ कि श्‍यामला भी आ कर बैठ गई है।

तब वह कह रही थी, 'सचमुच बड़ी गरम दोपहर है।'

सामने मैदान-ही-मैदान हैं, भूरे मटमैले! उन पर सिरस और सीसम के छायादार विराम-चिह्र खड़े हैं। मैं लुब्‍ध और मुग्‍ध हो कर उनकी घनी-गहरी छायाएँ देखता रहता हूँ...

क्‍योंकि... क्‍योंकि मेरा यह पेड़, य‍ह अच्‍छाई का पेड़ छाया प्रदान नहीं कर सकता, आश्रय प्रदान नहीं कर सकता, (क्‍योंकि वह जगह-जगह काटा गया है) वह तो कटी शाखाओं की दूरियों और अंतरालों में से केवल तीव्र और कष्‍टप्रद प्रकाश को ही मार्ग दे सकता है।

लेकिन मैदानों के इस चिलचिलाते अपार विस्‍तार में एक पेड़ के नीचे, अकेलेपन में, श्‍यामला के साथ रहने की यह जो मेरी स्थिति है, उसका अचानक मुझे गहरा बोध हुआ। लगा कि श्‍यामला मेरी है, और वह भी इसी भाँति चिलमिलाते गरम तत्‍वों से बनी हुई नारी-मूर्ति है। गरम बफती हुई मिट्टी-सा चिलमिलाता हुआ उसमें अपनापन है।

तो क्‍या आज ही, अगली अनगिनत गरम दोपहरियों के पहले आज ही, अगले कदम उठाए जाने के पहले, इसी समय, हाँ, इसी समय, उसके सामने अपने दिन की गहरी छिपी हुई तहें और सतहें खोल कर रख दूँ... कि जिससे आगे चल कर उसे गलतफहमी में रखने, उसे धोखे में रखने का अपराधी न बनूँ।

कि इतने में मेरी आँखों के सामने, फिर उसी भगवे खद्दर-कुरतेवाले की तस्‍वीर चमक उठी। मैं व्‍याकुल हो गया और उससे छुटकारा चाहने लगा।

तो फिर आत्‍म-स्‍वीकार कैसे करूँ, कहाँ से शुरू करूँ!

लेकिन क्‍या वह मेरी बातें समझ सकेगी? किसी तनी हुई रस्‍सी पर वजन साधते हुए चलने का, 'हाँ', और 'ना' के बीच में रह कर जिंदगी की उलझनों में फँसने का तजुर्बा उसे कहाँ है!

हटाओ, कौन कहे।

लेकिन यह स्‍त्री शिक्षिता तो है! बहस भी तो करती है! बहस कर बातों का संबंध न उसके स्‍वार्थ से होता है, न मेरे। उस समय हम लड़ भी तो सकते हैं। और ऐसी लड़ाइयों में कोई स्‍वार्थ भी तो नहीं होता। सामने अपने दिल की सतहें खोल देने में न मुझे शर्म रही, न मेरे सामने उसे। लेकिन वैसा करने में तकलीफ तो होती ही है, अजीब और पेचीदा, घूमती-घुमाती तकलीफ!

और उस तकलीफ को टालने के लिए हम झूठ भी तो बोल देते हैं, सरासर झूठ, सफेद झूठ! लेकिन झूठ से सचाई और गहरी हो जाती है, अधिक महत्‍वपूर्ण और अधिक प्राणवान, मानो वह हमारे लिए और सारी मनुष्‍यता के लिए विशेष सार रखती हो। ऐसी सतह पर हम भावुक हो जाते हैं। और, यह सतह अपने सारे निजीपन में बिलकुल बेनिजी है। साथ ही, मीठी भी! हाँ, उस स्‍तर की अपनी विचित्र पीड़ाएँ हैं, भयानक संताप है, और इस अत्यंत आत्‍मीय किंतु निर्वैयक्तिक स्‍तर पर हम एक हो जाते हैं, और कभी-कभी ठीक उसी स्‍तर पर बुरी तरह लड़ भी पड़ते हैं।

श्‍यामला ने कहा, 'उस मैदान को समतल करने में कितना खर्च आएगा?'

'बारह हजार।'

'उनका अंदाज क्‍या है?'

'बीस हजार ।'

'तो बैठक में जा कर समझा दोगे और यह बता दोगे कि कुल मिला कर बारह हजार से ज्‍यादा नामुमकिन है?'

'हाँ, उतना मैं कर दूँगा।'

'उतना का क्‍या मतलब?'

अब मैं उसे 'उतना' का क्‍या मतलब बताऊँ! साफ है कि उस भगवे खद्दर- कुरतेवाले से मैं दुश्‍मनी मोल नहीं लेना चाहता। मैं उसके प्रति वफादार रहूँगा क्‍योंकि मैं उसका आदमी हूँ। भले ही वह बुरा हो, भ्रष्‍टाचारी हो, किंतु उसी के कारण ही मैं विश्‍वास-योग्‍य माना गया हूँ। इसीलिए, मैं कई महत्‍वपूर्ण कमेटियों का सदस्‍य हूँ।

मैने विरोध-भाव से श्‍यामला की तरफ देखा। वह मेरा रुख देख कर समझ गई। वह कुछ नहीं बोली। लेकिन मानो मैंने उसकी आवाज सुन ली हो।

श्‍यामला का चेहरा 'चार जनियों-जैसा' है। उस पर साँवली मोहक दीप्ति का आकर्षण है। किंतु उसकी आवाज... हाँ... आवाज... वह इतनी सुरीली और मीठी है कि उसे अनसुना करना निहायत मुश्किल है। उस स्‍वर को सुन कर दुनिया की अच्‍छी बातें ही याद आ स‍‍कती हैं।

पता नहीं किस तरह की परेशान पेचीदगी मेरे चेहरे पर झलक उठी कि जिसे देख कर उसने कहा, '‍कहो, क्‍या कहना चाहते हो।'

यह वाक्‍य मेरे लिए निर्णाय‍क बन गया। फिर भी अवरोध शेष था। अपने जीवन का सार-सत्‍य अपना गुप्‍त-धन है। उसके गुप्‍त संधर्ष हैं, उसका अपना एक गुप्‍त नाटक है। वह प्रकट करते नहीं बनता। फिर भी, शायद है कि उसे प्रकट कर देने ये उसका मूल्‍य बढ़ जाए, उसका कोई विशेष उपयोग हो सके।

एक था पक्षी। वह नीले आसमान में खूब ऊँचाई पर उड़ता जा रहा था। उसके साथ उसके पिता और मित्र भी थे।

(श्‍यामला मेरे चेहरे की तरफ आश्‍चर्य से देखते लगी)

सब बहुत ऊँचाई पर उड़नेवाले पक्षी थे। उनकी निगाहें भी बड़ी तेज थीं। उन्‍हें दूर दूर की भनक और दूर-दूर की महक भी मिल जाती।

एक दिन वह नौजवान पक्षी जमीन पर चलती हुई एक बैलगाड़ी को देख लेता है। उसमें बड़े-बड़े बोरे भरे हुए हैं। गाड़ीवाला चिल्‍ला-चिल्‍ला कर कहता है, 'दो दीमकें लो, एक पंख दो।'

उस नौजवान पक्षी को दीमकों का शौक था। वैसे तो ऊँचे उड़नेवाले पक्षियों को हवा में ही बहुत-से कीड़े तैरते हुए मिल जाते, जिन्‍हें खा कर वे अपनी भूख थोड़ी-बहुत शांत कर लेते।

लेकिन दीमकें सिर्फ जमीन पर मिलती थीं। कभी-कभी पेड़ों पर-जमीन से तने पर चढ़ कर, ऊँची डाल तक, वे अपना मटियाला लंबा घर बना लेतीं। लेकिन वैसे कुछ ही पेड़ होते, और वे सब एक जगह न मिलते।

नौजवान पक्षी को लगा - यह बहुत बड़ी सुविधा है कि एक आदमी दीमकों को बोरों में भर कर बेच रहा है।

वह अपनी ऊँचाइयाँ छोड़ कर मँडराता हुआ नीचे उतरता है और पेड़ की एक डाल पर बैठ जाता है।

दोनों का सौदा तय हो जाता है। अपनी चोंच से एक पर को खींच कर तोड़ने में उसे तकलीफ भी होती है; लेकिन उसे वह बरदाश्‍त कर लेता है। मुँह में बड़े स्‍वाद के साथ दो दीमकें दबा कर वह पक्षी फुर्र से उड़ जाता है।

(कहते-कहते मैं थक गया शायद साँस लेने के लिए। श्‍यामला ने पलकें झपकाईं और कहा, 'हूँ')

अब उस पक्षी को गाड़ीवाले से दीमकें खरीदने और एक पर देने में बड़ी आसानी मालूम हुई। वह रोज तीसरे पहर नीचे उतरता और गा‍ड़ीवाले को एक पंख दे कर दो दीमकें खरीद लेता।

कुछ दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। ए‍क दिन उसके पिता ने देख लिया। उसने समझाने को कोशिश की कि बेटे, दीमकें हमारा स्‍वाभाविक आहार नहीं हैं, और उसके लिए अपने पंख तो हरगिज नहीं दिए जा सकते।

लेकिन, उस नौजवान पक्षी ने बड़े ही गर्व से अपना मुँह दूसरी ओर कर लिया। उसे जमीन पर उतर कर दीमकें खाने की चट लग गई थी। अब उसे न तो दूसरे कीड़े अच्‍छे लगते, न फल, न अनाज के दाने। दीमकों का शौक अब उस पर हावी हो गया था।

(श्‍यामला अपनी फैली हुई आँखों से मुझे देख रही थी, उसकी ऊपर उठी हुई पलकें और भौंएँ बड़ी ही सुंदर दिखाई दे रही थीं।)

लेकिन ऐसा कितने दिनों तक चलता। उसके पंखों की संख्‍या लगातार घटती चली गई। अब वह, ऊँचाइयों पर, अपना संतुलन साध नहीं सकता था, न बहुत समय तक पंख उसे सहारा दे सकते थे। आकाश-यात्रा के दौरान उसे जल्‍दी-जल्‍दी पहाड़ी चट्टानों गुंबदों और बुर्जो पर हाँफते हुए बैठ जाना पड़ता। उसके परिवार वाले तथा मित्र ऊँचाइयों पर तैरते हुए आगे बढ़ जाते। वह बहुत पिछड़ जाता। फिर भी दीमक खाने का उसका शौक कम नहीं हुआ। दीमकों के लिए गा‍ड़ीवाले को वह अपने पंख तोड़-तोड़ कर देता रहा।

(श्‍यामला गंभीर हो कर सुन रही थी। अबकी बार उसने 'हूँ' भी नहीं कहा।)

फिर उसने सोचा कि आसमान में उड़ना ही फिजूल है। वह मूर्खों का काम है। उसकी हालत यह थी कि अब वह आसमान में उड़ ही नहीं सकता था, वह सिर्फ एक पेड़ से उड़ कर दूसरे पेड़ तक पहुँच पाता। धीरे-धीरे उसकी यह शक्ति भी कम होती गई। और एक समय वह आया जब वह बड़ी मुश्किल से, पेड़ की एक डाल से लगी हुई दूसरी डाल पर, चल कर, फुदक कर पहुँचता। लेकिन दीमक खाने का शौक नहीं छूटा।

बीच-बीच में गाड़ीवाला बुत्‍ता दे जाता। वह कहीं नजर में न आता। पक्षी उसके इंतजार में घुलता रहता।

लेकिन दीमकों का शौक जो उसे था। उसने सोचा, 'मैं खुद दीमकें ढूँढ़ँगा।' इसलिए वह पेड़ पर से उतर कर जमीन पर आ गया; और घास के एक लहराते गुच्‍छे में सिमट कर बैठ गया।

(श्‍यामला मेरी ओर देखे जा रही थी। उसने अपेक्षापूर्वक कहा 'हूँ।')

फिर एक दिन उस पक्षी के जी में न मालूम क्‍या आया। वह खूब मेहनत से जमीन में से दीमकें चुन-चुन कर, खाने के बजाय उन्‍हें इकट्टा करने लगा। अब उसके पास दीमकों के ढेर के ढेर हो गए।

फिर एक दिन एकाएक वह गाड़ीवाला दिखाई दिया। पक्षी को बड़ी खुशी हुई। उसने पुकार कर कहा, 'गाड़ीवाले, ओ गाड़ीवाले! मैं कब से तुम्‍हारा इंतजार कर रहा था।'

पहचानी आवाज सुन कर गाड़ीवाला रुक गया। तब पक्षी ने कहा, 'देखो, मैंने कितनी सारी दीमकें जमा कर ली है।'

गाड़ीवाले को पक्षी की बात समझ में नहीं आई। उसने सिर्फ इतना कहा, 'तो मैं क्‍या करूँ।'

'ये मेरी दीमकें ले लो, और मेरे पंख मुझे वापस कर दो।' पक्षी ने जवाब दिया।

गाड़ीवाला ठठा कर हँस पड़ा। उसने कहा, 'बेवकूफ, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूँ, पंख के बदले दीमक नहीं।'

गाड़ीवाले ने 'पंख' शब्‍द पर जोर दिया था।

(श्‍यामला ध्‍यान से सुन रही थी। उसने कहा, 'फिर')

गाड़ीवाला चला गया। पक्षी छटपटा कर रह गया। एक दिन एक काली बिल्‍ली आई और अपने मुँह में उसे दबा कर चली गई। तब उस पक्षी का खून टपक-टपक कर जमीन पर बूँदों की लकीर बना रहा था।

(श्‍यामला ध्‍यान से मुझे देखे जा रही थी; और उसकी एकटक निगाहों से बचने के लिए मेरी आँखें तालाब की सिहरती-काँपती, चिलकती-चमचमाती लहरों पर टिकी हुई थीं)

कहानी कह चुकने के बाद, मुझे एक जबरदस्‍त झट‍का लगा। एक भयानक प्रतिक्रिया - कोलतार-जैसी काली, गंधक-जैसी पीली-नारंगी!

'नहीं, मुझमें अभी बहुत कुछ शेष है, बहुत कुछ। मैं उस पक्षी-जैसा नहीं मरूँगा। मैं अभी भी उबर सकता हूँ। रोग अभी असाध्‍य नहीं हुआ है। ठाठ से रहने के चक्‍कर से बँधे हुए बुराई के चक्‍कर तोड़े जा सकते हैं। प्राण‍शक्ति शेष है, शेष ।'

तुरंत ही लगा कि श्‍यामला के सामने फिजूल अपना रहस्‍य खोल दिया, व्‍यर्थ ही आत्‍म-स्‍वीकार कर डाला। कोई भी व्‍यक्ति इतना परम प्रिय नहीं हो सकता कि भीतर का नंगा। बालदार, रीछ उसे बताया जाए। मैं असीम दु:ख के खारे मृत सागर में डूब गया।

श्‍यामला अपनी जगह से धीरे से उठी, साड़ी का पल्‍ला ठीक किया, उसकी सलवटें बरा‍बर जमाईं, बालों पर से हाथ फेरा। और फिर (अंगरेजी में) कहा, 'सुंदर कथा है, बहुत सुंदर!'

फिर वह क्षण-भर खोई-सी खड़ी रही, और फिर बोली, 'तुमने कहाँ पढ़ी?'

मैं अपने ही शून्‍य में खोया हुआ था। उसी शून्‍य के बीच में से मैंने कहा, 'पता नहीं... किसी ने सुनाई या मैंने कहीं पढ़ी।'

और वह श्‍यामला अचानक मेरे सामने आ गई, कुछ कहना चाहने लगी, मानो उस कहानी में उसकी किसी बात की ताईद होती हो।

उसके चेहरे पर धूप पड़ी हुई थी। मुखमंडल सुंदर और प्रदीप्‍त दिखाई दे रहा था।

कि इसी बीच हमारी आँखें सामने के रास्‍ते पर जम गईं।

घुटनों तक मैली धोती और काली, सफेद या लाल बंडी पहने कुछ देहाती भाई, समूह में चले आ रहे थे। एक के हाथ में एक बड़ा-सा डंडा था, जिसे वह अपने आगे, सामने किए हुए था। उस डंडे पर एक लंबा मरा हुआ साँप झूल रहा था। कला भुजंग, जिसके पेट की हलकी सफेदी भी झलक रही थी।

श्‍यामला ने देखते ही पूछा, 'कौन-सा साँप है यह?' वह ग्रामीण मुख छत्‍तीसगढ़ी लहजे में चिल्‍लाया, 'करेट है बाई, करेट ।'

श्‍यामला के मुँह से निकल पडा, 'ओफ्फो! करेट तो बड़ा जहरीला साँप होता है।'

फिर मेरी ओर देख कर कहा, 'नाग की तो दवा भी निकली है, करेट की तो कोई दवा नहीं है। अच्‍छा किया, मार डाला। जहाँ साँप देखो, मार डालो, फिर वह पनियल साँप ही क्‍यों न हो ।'

और फिर न जाने क्‍यों, मेरे मन में उसका यह वाक्‍य गूँज उठा, 'जहाँ साँप देखो, मार डालो।'

और ये शब्‍द मेरे मन में गूँजते ही चले गए।

कि इसी बीच... रजिस्‍टर में चढ़े हुए आँकड़ों की एक लंबी मीजान मेरे सामने झूल उठी और गलियारे के अँधेरे कोनों में गरम होनेवाली मुट्ठियों का चोर हाथ ।

श्‍यामला ने पलट कर कहा, 'तुम्‍हारे कमरे में भी तो साँप घुस आया था, कहाँ से आया था वह?'

फिर उसने खुद ही जबाब दे लिया, 'हाँ, वह पास की खिड़की में से आया होगा।'

खिड़की की बात सुनते ही मेरे सामने, बाहर की काँटेदार झाड़ियाँ, बेंत की झाड़ियाँ आ गईं, जिसे जंगली बेल ने लपेट रखा था । मेरे खुद के तीखे काँटों के बावजूद, क्‍या श्‍यामला मुझे इसी तरह लपेट सकेगी। बड़ा ही 'रोमांटिक' खयाल है, लेकिन कितना भयानक।

... क्‍योंकि श्‍यामला के साथ अगर मुझे जिंदगी बसर करनी है तो न मालूम कितने ही भगवे खद्दर कुरतेवालों से मुझे लड़ना पड़ेगा, जी कड़ा करके लड़ाइयाँ मोल लेनी पड़ेगी और अपनी आमदनी के जरिए खत्‍म कर देने होंगे। श्‍यामला का क्‍या है! वह तो एक गाँधीवादी कार्यकर्ता की लड़की है, आदिवासियों की उस कुल्‍हाड़ी-जैसी है जो जंगल में अपने बेईमान और बेवफा साथी का सिर धड़ से अलग कर देती है। बारीक बेईमानियों का सूफियाना अंदाज उसमें कहाँ!

किंतु फिर भी आदिवासियों जैसे उस अमिश्रित आदर्शवाद में मुझे आत्‍मा का गौरव दिखाई देता है, मनुष्‍य की महिमा दिखाई देती है, पैने तर्क की अपनी अंतिम प्रभावोत्‍पादक परिणति का उल्‍लास दिखाई देता है - और ये सब बाते मेरे हृदय का स्‍पर्श कर जाती हैं। तो, अब मैं इसके लिए क्‍या करूँ, क्‍या करूँ!

और अब मुझे सज्‍जायुक्‍त भद्रता के मनोहर वातावरण वाला अपना कमरा याद आता है... अपना अकेला धुँधला-धुँधला कमरा। उसके एकांत में प्रत्‍यावर्तित और पुन: प्रत्‍यावर्तित प्रकाश कोमल वातावरण में मूल-रश्मियाँ और उनके उद्गम स्‍त्रोतों पर सोचते रहना, खयालों की लहरों में बहते रहना कितना सरल, सुंदर और भद्रतापूर्ण है। उससे न कभी गरमी लगती है, न पसीना आता है, न कभी कपड़े मैले होते हैं। किंतु प्रकाश के उद्गम के सामने रहना, उसका सामना करना, उसकी चिलचिला‍ती दोपहर में रास्‍ता नापते रहना और धूल फाँकते रहना कितना त्रास-दायक है। पसीने से तरबतर कपड़े इस तरह चिपचिपाते हैं और इस कदर गंदे मालूम होते हैं कि लगता है... कि अगर कोई इस हालत में हमें देख ले तो वह बेशक हमें निचले दर्जे का आदमी समझेगा। सजे हुए टेबल पर रखे कीमत फाउंटेनपेन-जैसे नीरव-शब्‍दांकन-वादी हमारे व्‍यक्तित्‍व जो बहुत बड़े ही खुशनुमा मालूम होते हैं - किन्‍हीं महत्‍वपूर्ण परिवर्तनों के कारण - जब वे आँगन में और घर-बाहर चलती हुई झाड़ू जैसे काम करनेवाले दिखाई दें, तो इस हालत में यदि सड़क-छाप समझे जाएँ तो इसमें आश्‍चर्य की ही क्‍या बात है!

लेकिन मैं अब ऐसे कामों की शर्म नहीं करूँगा, क्‍योंकि जहाँ मेरा हृदय है, वहीं मेरा भाग्‍य है!

~गजानन माधव

अँधेरे में

एक रात को बारह बजे, ट्रेन से एक युवक उतरा। स्टेशन पर लोग एक कतार में खड़े थे और ज्‍यादा नहीं थे। इसलिए ट्रेन से नीचे आने में उसको ज्‍यादा कठिनाई नहीं हुई। स्‍टेशन पर बिजली की रोशनी थी; परंतु वह रात के अँधियारे को चीर न सकती थी, और इसलिए मानो रात अपने सघन रेशमी अँधियारे से तंबूनुमा घर हो गई थी, जिसमें बिजली के दीये जलते हों। उतरते ही युवक को प्‍लेटफॉर्म की परिचित गंध ने, जिसमें गरम धुआँ और ठंडी हवा के झोंके, गरम चाय की बास और पोर्टरों के काले लोहे में बंद मोटे काँचों से सुरक्षित पीली ज्‍वालाओं के कंदीले पर से आती हुई अजीब उग्र बास, इत्‍यादि सारी परिचित ध्‍वनियाँ और गंध थे, उसकी संज्ञा से भेंट की। युवक के हृदय में जैसे एक दरवाजा खुल गया था, एक ध्‍वनि के साथ और मानो वह ध्‍वनि कह रही थी - आ गया, अपना आ गया

युवक झटपट उतरा। उ‍सके पास कुछ भी सामान नहीं था, कोयले के कणों से भरे हुए लंबे बालों में हाथों से कंघी करता हुआ वह चला। पाँच साल पहले वह यहीं रहता था। इन पाँच सालों की अवधि में दुनिया में काफी परिवर्तन हो गया; परंतु उस स्‍टेशन पर परिवर्तन आना पसंद नहीं करता था। युवक ने अपने पूर्वप्रिय नगर की खुशी में एक कप चाय पीना स्‍वीकार किया। और वहीं स्‍टॉल पर खडा हो कर कपबशी की आवाज सुनता हुआ इधर-उधर देखने लगा। सब पुराना वातावरण था। परंतु इस नगर के मुहल्‍ले में बीस साल बिता चुकने वाला यह पच्‍चीस साल का युवक पुराना नहीं रह गया था। उसकी आत्‍मा एक नए महीन चश्‍मे से स्‍टेशन को देख रही थी।

टिकिट दे कर स्‍टेशन पर आगे बढ़ा तो देखता है कि ताँगे निर्जल अलसाए बादलों कि भाँति निष्‍प्रभ और स्‍फूर्तिहीन ऊँघते हुए चले जा रहे हैं। युवक ने इसी से पहचान लिया कि यह विशेषता इस नगर की अपनी चीज है।

दुकानें सब बंद हो चुकी थीं, जिनके पास नीचे सड़क पर आदमी सिलसिलेवार सो रहे थे। उनके साथी और उन्‍हीं के समान सभ्‍य पशुओं में से निर्वासित श्‍वान-जाति दुबकी इधर-उधर पड़ी हुई थी। युवक ने पैर बढ़ाने शुरू कर दिए। उखड़ी हुई डामर की काली सड़क पर बिजली की धुँधली रोशनी बिखर रही थी। एक ओर दुकानें, फिर सराय, फिर अफीम-गोदाम, फिर एक टुटपुँजिया म्‍यूनिसिपल पार्क, फिर एक छोटा चौराहा जहाँ डनलप टॉयर के विज्ञापनवाली दुकान और उसके सामने लाल पंप, फिर उसके बाद कॉलेज! और इस तरह इस छोटे शहर की बौनी इमारतें और नकली आधुनिकता इसी सड़क के किनारे-किनारे एक ओर चली गई थी। दूसरी ओर रेल का हिस्‍सा, जहाँ शंटिंग का सिलसिला इस समय कुछेक घंटों के लिए चुप था।

युव‍क को रात का यह वातावरण अत्यंत प्रिय मालूम हुआ। गरमी के दिन थे। फिर भी हवा बहुत ठंडी चल रही थी। सड़क के खुले हिस्‍से मे जहाँ रेल के तार जा रहे थे, नीम और पीपल के वृक्ष के पत्‍ते झिरमिर-झिरमिर कर सघन आम के बड़े-बड़े दरख्त दूर से ही दीख रहे थे। उसी मैदान पर, एक ओर, एक नवीन मुहल्‍ला, शहर के अमीरों, व्‍यापारियों, अफसरों का उपनिवेश सिकुड़ा हुआ था।

सब दूर शांति थी। रात का गाढ़ा मौन था। युवक के रोजमर्रा के कर्मप्रधान जीवन में रोज रात का एक सोने का समय था, और सुबह के साढ़े आठ के अनंतर जागने का समय था। वैदिक ॠषि-मनीषियों के उष:सूक्‍त से लगा कर तो अत्‍याधुनिक छायावादियों के 'बीती विभावरी जाग री, अंबर पनघट ऊषा नागरी' का दर्शन इस युवक ने इस गए पाँच सालों में बहुत कम किया है।

अपने उस कर्म-जटिल क्षेत्र को पीछे छोड़ कर जैसे मनुष्‍य अपनी अरुचिकर यादों से बचना चाहता हो - यह युवक इस रात में पा रहा था कि वातावरण में पठार-मैदान से उठ कर आने वाली हवा की उत्‍फुल्‍ल और मीठी ताजगी के साथ-ही-साथ मानो मनुष्‍यों की सोई हुई चुपचाप आत्‍माएँ अपनी गाढ़ नीरवता में अधिक मधुर हो कर वन की सुगंध और वृक्ष के मर्मर में मिल गई हैं।

रेल की पटरियों के पार - रेलवे यार्ड में ही वहाँ के मध्‍यमवर्गीय नौकरों के क्‍वार्टर्स बने हुए थे। बाहर ही, जो उसका आँगन कहा जा सकता है; दो खाटें समानांतर बिछी हुई थीं जिनके बीच में एक छोटा-सा टेबल रखा हुआ था। उस पर एक आधुनिक लैंप अपनी अध्‍ययन समर्पित रोशनी डाल रहा था। एक खाट पर एक पुरुष कोई पुस्‍तक पढ़ रहा था और दूसरी पर घोर निद्रा थी। लैंप की धुँधली रोशनी में घर के सामनेवाले बाजू पर एक काला-सा अधखुला दरवाजा ओर बाँस की चिमटियों से बनाए गए बंद बरामदे के लेटे-से चतुष्‍कोण साफ दीख रहे थे। उस घर की पंक्ति में ही कई क्‍वार्टर्स और दीख रहे थे, उसी तरह पंक्तिबद्ध खाटें बराबर यथास्‍थान लगी हुई चली गई थीं।

युवक के मन में एक प्‍यार उमड़ आया! ये घर उसे अत्यंत आत्‍मीय-जैसे लगे, मानो वे उसके अभिन्‍न अंग हों!

यही बात उसकी समझ में नहीं आई। इस अजीब आनंदमय भावना ने उसके मन के संतुलित तराजू को झटके देने शुरू कर दिए। वह भावनाओं से अब इतना अभ्‍यस्‍त नहीं रह गया था कि उनका आदर्शीकरण कर सके। रोज का कठिन, शुष्‍क, जीवन उसे एक विशेष तरह का आत्‍मविश्‍वास-सा देता था। परंतु... आज...

वह बैठने वाला जीव न था। रास्‍ते पर पैर चल रहे थे। मन कहीं घूम रहा था। दूसरे उसे अत्यंत आत्‍मीय एकांत, जहाँ उसकी सहज प्रवृत्तियों का खुला बालिश खिलवाड़ हो बहुत दिनों से नहीं मिला था!

उसने सोचना शुरू किया कि आखिर क्‍यों यह अजीब जल के निर्मलिन सहस्‍त्र स्रोतों-सी भावना उसके मन में आ गई!

उसको जहाँ जाना था, वहाँ का रास्‍ता उसे मिल नहीं सकता था। एक तो यह कि पाँच साल के बाद शहर की गलियों को वह भूल चुका था। दूसरे जिस स्‍थान पर उसे जाना था, वह किसी खास ढंग से उसे अरुचिकर मालूम हो रहा था! इसलिए लक्ष्‍यस्‍थान की बात ही उसके दिमाग से गायब हो गई थी।

पैर चल रहे थे या उसके पैर के नीचे से रास्‍ता खिसक रहा था, यह क‍हना संभव नहीं, परंतु यह जरूर है कि कुछ कुत्‍ते-चिर जाग्रत रक्षक की भाँति खड़े हुए - भूँक रहे थे।

उसके मन में किसी अजान स्‍त्रोत से एक घर का नक्‍शा आया। उसका भी बरामदा इसी तरह बाँस की चिमटियों से बना हुआ था। वहाँ भी वासंती रातों में नीम के झिरिर-मिरिर के नीचे खाटें पड़ी रहती थीं। युवक को एक धुँधली सूरत याद आती है, उसकी बहन की-और आते ही फौरन चली जाती है। बस चित्र इतना ही। यह मत समझिए कि उसके माता-पिता मर गए! उसके भाई हैं, माता-पिता हैं। वे सब वहीं रहते हैं जिस शहर में वह रहता है।

युव‍क हँस पड़ा। उसे समझ में आ गया कि क्‍यों उन क्‍वार्टरों को देख कर एक आत्‍मीयता उमड़ आई। मजदूर चालों में, जहाँ वह नित्‍य जाता है, या उसके अमीर दोस्‍तों के स्‍वच्‍छ सुंदर मकानों में, जहाँ से वह चंदा इ‍कट्ठा करता, चाय पीता, वाद-विवाद करता और मन-ही-मन अपने महत्‍व को अनुभव करता है - वहाँ से तो कोई आत्‍मीयता की फसफसाहट नहीं हुई। हमारा युवक अपने पर ही हँसने लगा। एक सूक्ष्‍म, मीठा और कटु हास्‍य।

दूर, एक दुकान पर साठ नंबर का खास बेलजियम का बिजली का लट्टू जल रहा था। सड़क पर ही कुरसियाँ पड़ी थीं, बीच मे टेबल था। एक आरामकुरसी पर लाल भैरोगढ़ी तहमत बाँधे हुए ताँगेवाले साहब बैठे हुए बिस्‍कुट खा रहे थे। दूसरी कुरसी पर एक निहायत गंदा, पीछे से फटी हुई चड्ढी पहने, उघाड़े बदन, लडका कभी बिस्‍कुटों के चूरे खाने की तरफ या भाप उठाते हुए टेबल पर रखे चाय के कप‍ की तरफ देखता हुआ बैठा था! दूसरी कुरसी पर दूसरे मुसलमान सज्‍जन रोटी और मांस की कोई पतली वस्‍तु खा रहे थे और बहुत प्रसन्‍न मालूम हो रहे थे। जो होटल का मालिक था वह एक पैर पर अधिक दबाव डाले - उसको खूँटा किए खड़ा था, सिगरेट पी रहा था और कुछ खास बुद्धिमानी की बातें करता था जिसको सुन कर रोटी और मांस की पतली वस्‍तु को दोनों हाथों का उपयोग कर खाने वाले मुसलमान सज्‍जन 'अल्‍लाहो अकबर' 'अल्‍ला रहम करे, इत्‍यादि भावनाप्‍लुत उद्गारों से उसका समर्थन करते जाते थे। सिगरेट का कश वह इतनी जोर से खींचता था कि उसका ज्‍वलंत भाग बिजली की भयानक रोशनी में भी चमक रहा था। उसका हाथ आराम से जंघा-क्षेत्र में भ्रमण कर रहा था।

दुकान के अंदर से पानी को झाड़ू से फेंकने की क्रिया में झाड़ू की कर्कश दाँत पीसती-सी आवाज और पानी के ढकेले जाने के बालिश ध्‍वनि आ रही थी, साथ ही उसके छोटे-छोटे कंकड़ों की भाँति लगातार बाहर उन्‍नत-वक्र रेखा-मार्ग से चले आ रहे थे। बिजली का लट्टू दरवाजे के ऊपर लगे हुए कवर के बहुत नीचे लटक रहा, था जिस पर लगातार गिरने वाले छींटे सूख कर धब्‍बे बन रहे थे।

इतने में पुलिस के एक गश्‍तवान सिपाही लाल पगड़ी पहने और खाकी पोशाक में आ कर बैठ गए! वे भी मुसलमान ही थे। उनकी दाढ़ी पर छह बाल थे, और ओठों पर तो थे ही नहीं। चालीस साल की उम्र हो चुकी थी पर बालों ने उन पर कृपा नहीं की थी। नाक उनकी बुद्धि से व्‍यापक थी, काले डोरे की गुंडी की भाँति चम‍क रही थी। आँख में एक चुपचाप दय‍नीयता झाँक उठती। वह कोई मुसीबतजदा प्राणी था - शायद उसे सूजाक था - या उसकी घरवाली दूसरे के साथ फरार हो गई थी! या वह किसी अभागी बदसूरत-वेश्‍या का शरीर-जात था। उसे न जाने कौन-सी पीड़ा थी जो चार आदमियों में प्रकट नहीं की जा स‍कती थी। वह पीड़ा-थीड़ा तो दूसरों के आनंद और निर्बाध हास्‍य को देख कर चुपचाप निबिड़ आँखों में चमक उठती थी! वह इस समय भी चमक रहीं थी, किसी ने उसकी तरफ ध्‍यान नहीं दिया। उसके सामने क्रमानुसार चाय आ गई और वह फुर-फुर करते हुए पीने लगा।

ताँगेवाले महाशय का ताँगा वहीं दुकान के सामने सड़क के दूसरे किनारे खड़ा था। घोड़ा अपने मालिक की भाँति बड़ा चढ़ैल और गुस्‍सैल था। एक ओर तो वह बिजली की रोशनी में चमकनेवाली हरी घास को बादशाह की भाँति खा रहा था, तो दूसरी ओर आध घंटे में एक बार अपनी टाँग ताँगे में मार देता था। उसके घास खाने की आवाज लगातार आ रही थी और उसका भव्‍य सफेद गंभीर चेहरा होटल को अपेक्षा की दृष्टि से देख रहा था।

ताँगेवाले महाशय ने चाय पीनी शुरू की। तगड़ा मुँह था। बेलौस सीधी नाक थी और उजला रंग था। ठाठदार मोतिया साफा अब भी बँधा हुआ था। बोलो-चाल निहायत शुस्‍ता और सलीके से भरी थी। चेहरा पर मार्दव था जो कि किसी अक्‍खड़ बहादुर सिपाही में ही स‍‍कता है। आज दिन में उन्‍होंने काफी कमाई की थी; इसीलिए रात में जगने का उत्‍साह बहुत अधिक मालूम हो रहा था।

दुकान के अंदर झाड़ू की कर्कश आवाज और पानी की खलखल ध्‍वनि बंद हो गई। छोटी-छोटी बूँदें टपकानेवाली मैली झाड़ू लिए एक पंद्रह साल का लड़का, एक घुटने पर से फटे पाजामे को कमर पर इकट्ठा किए खड़ा था कि मालिक का अब आगे क्‍या हुक्‍म होता है। परंतु बाहर मजलिस जमी थी। लाल साफेवाला सिपाही बड़ी रुचि के साथ उसे सुन रहा था। चाहता था कि वह भी कुछ कहे...।

इतने में इन लोगों को दूर से एक छाया आती हुई दिखाई दी। सब लोगों ने सोचा कि इस बात पर ध्‍यान देने की जरूरत नहीं! पर धीरे-धीरे आनेवाली उस छाया का सिर्फ पैंट ही दिखाई दिया और कुछ थकी-सी चाल! युवक चुपचाप उन्‍हीं की ओर आया और हलकी-सी आवाज में बोला 'चाय है?' उत्‍तर में 'हाँ' पा कर और बैठने के लिए एक अच्‍छी आरामदेह कुरसी पा कर वह खुश मालूम हुआ। लोगों ने जब देखा कि चेहरे से कोई खास आ‍कर्षक या आसाधारण आदमी मालूम नहीं होता, तब आश्‍वस्‍त हो, साँस ले कर बातें करने लगे!

लाल पगड़ीवाला दयनीय प्राणी कुछ बोलना चाहता था! इतने मे उसके दो साथी दूर से दिखाई दिए! उन्‍‍हें देख कर वह अत्यंत अनिच्‍छा से वहाँ से उठने लगा। उसने सोचा था कि शायद है कोई, बैठने को कहे। परंतु लोगों को मालूम भी नहीं हुआ कि कोई आया था और जा रहा है!

'माधव महारज के जमाने में ताँगेवालों को ये आफत नहीं थी मौलवी सॉब! मैंने बहुत जमाना देखा है! कई सुपरडंट आए, चले गए, कोतवाल आए, निकल गए। पर अब पुलिसवाला ताँगे में मुफ्त बैठेगा भी, और नंबर भी नोट करेगा...' ताँगेवाले ने कहा।

होटलवाला जो अब तक मौलवी साहब से कुछ खास बुद्धिमानी की बात कर रहा था, उसने अब जोर से बोलना शुरू किया! धोती की तहमत बाँधे, बहुत दुबला, नाटे कद का एक अधेड़ हँसमुख आदमी था। वह बहुत बातूनी, और बहुत खुशमिजाज आदमी और अश्‍लील बातों से घृणा करनेवाला, एक खास ढंग से संस्‍कारशील और मेहनती मालूम होता था। उसने कहा, 'मौलवी सॉब, दुनिया यों ही चलती रहेगी। मैंने कई कारोबार किए। देखा, सबमें मक्‍कारी है। और कारोबारी की निगाह में मक्‍कारी का नाम दुनियादारी है। पुलिसवाले भी मक्‍कार हैं - ताँगेवाले कम मक्‍कार नहीं हैं। वह जैनुल आबेदीन-मिर्जावाड़ी में रहने वाला... सुना है आपने किस्‍सा!'

मौलवी साहब ठहाका मार कर हँस पड़े। 'या अल्‍लाह' कहते हुए दाढ़ी पर दो बार हाथ फेरा और अपनी उकताहट को छिपाते हुए - मौलवी साहब को एक कप चाय और बिस्‍कुट मुफ्त या उधार लेना था - आँखों में मनोरंजन विस्‍मय - कुढ़ कर होटलवाले की बात सुनने लगे।

होटलवाले ने अपने जीवन का रहस्‍योद्घाटन करने से डर कर बात को बदलते हुए कहा, 'मैं आपको किस्‍सा सुनाता हूँ। दुनिया में बदमाशी है, बदतमीजी है। है, पर करना क्‍या? गालियों से तो काम नहीं चलता, क्‍यों रहीमबक्‍श (ताँगेवाले की ओर संकेत कर) ताँगेवाले बहुत गालियाँ देते हैं! दूसरे, सड़क पर से गुजरती हुई औरतों को देख - चाहे वे मारवाड़िनियाँ ही हों ढिल्‍लमढाल पेटवाली, बस इन्‍हें फौरन लैला याद आ जाती है! यह देख कर मेरी रूह काँपती है। मौलवी सॉब, मेरा दिल एक सच्‍चे सैयद का दिल है! एक दफा क्‍या हुआ कि हजरत अली अपने महल में बैठे हुए थे। और राज-काज देख रहे थे कि इतने में दरबान ने कहा कि कुछ मिस्‍त्री सौदागर आए हैं, आपसे मिलना चाहते हैं। अब उनमें का एक सौदागर आलिम था।'

मौलवी सिर्फ उसके चेहरे को देख रहे थे जिस पर अनेक भावनाएँ उमड़ रहीं थीं, जिससे उसका चिपका - काला चे‍हरा और भी विकृत मालूम होता था। दूसरे वह यह अनुभव कर रहे थे कि यह अपना ज्ञान बघार रहा है और ज्ञान का अधिकार तो उन्‍हें है। तीसरे, उन्‍होंने यह योग्‍य समय जान कर कहा, 'भाई, एक कप चाय और बुलवा दो।'

चाय का नाम सुन कर कुरसी पर बैठे हुए युवक ने कहा, 'एक कप यहाँ भी।'

पीछे से फटी चड्ढी पहने हुए गंदा लड़का ऊँघ रहा था! वह ऊँघता हुआ ही चाय लाने लगा। ताँगेवाला रहीमबख्‍श बातों को गौर से सुन रहा था। वह जानना चाहता था कि इस कहानी का ताँगेवालों से क्‍या संबंध है!

होटलवाले ने कहना शुरू किया, उनमें का एक सौदागर आलिम था। उसने हजरत अली का नाम सुन रखा था कि गरीबों के ये सबसे बड़े हिमायती हैं। शानो-शौकत बिलकुल पसंद नहीं करते। और अब देखता क्‍या है कि महल की दीवारें संगमरमर से बनी हुई हैं, जिसमें ख्‍वाब-कोहके हीरे दरवाजों के मेहराबों पर जड़े हुए हैं और चबूतरा काले चिकने संगमूसे का बना हुआ है। हरे-हरे बाग हैं और फव्‍वारे छूट रहे हैं। वह मन-ही-मन मुसकराया। गरमी पड़ रही थी, और रूमाल से बँधे हुए सिर से पसीना छूट रहा था।

हजरत अली के सामने जब माल की कीमत नक्‍की हो चुकी, तो सौदागर उनकी मेहरबान सूरत से खिंच कर बोला, 'बादशाह सलामत! सुना था कि हजरत अली गरीबों के गुलाम हैं। पर मैंने कुछ और ही देखा है। हो सकता है, गलत देखा हो।'

सौदागर अपना गट्ठा बाँधते-बाँधते कह रहे थे। हजरत अली की आँख से एक बिलजी-सी निकली। सौदागर ने देखा नहीं, उसकी पीठ उधर थी, वह अपने माल का गट्ठा बाँध रहा था!

हजरत अली ने कहा, 'ज्‍यादा बातें मैं आपसे नहीं कहना चाहता। आप मुझे इस वक्‍त महल में देखते हैं, पर हमेशा यहाँ नहीं रहता। बाजार में अनाज के बोरे उठाते हुए मुझे किसी ने नहीं देखा है।' हजरत अली की आँखें किसी खास बेचैनी से चमक रही थीं!

वे रेशम का लंबा शाही लबादा पहने हुए थे। उन्‍होंने उसके बंद खोले। सौदागर ने आश्‍चर्य से देखा कि हजरत अली मोटे बोरे के कपड़े अंदर से पहने हुए हैं।

सौदागर ने सिर नीचा कर लिया।

सैयद होटलवाले की आँखों में आँसू आ गए। मौलवी साहब ने सिर नीचा कर लिया, मानो उन्‍हें सौ जूते पड़ गए हों। चाय की गरमी सब खतम हो गई। ताँगेवाले को इसमें खास मजा नहीं आया। युवक अपनी कुरसी पर बैठा हुआ ध्‍यान से सुन रहा था।

होटलवाले ने कहा, 'असली मजहब इसे कहते हैं। मेरे पास मुस्लिम लीगी आते हैं! चंदा माँगते हैं। मुस्लिम कौम निहायत गरीब है! मुझसे पाकिस्‍तान नहीं माँगते। मुझसे पाकिस्‍तान की बातें भी नहीं करते। हिंदू-मुस्लिम इत्‍तेहाद पर मेरा विश्वास है। लेकिन मैं जरूर दे देता हूँ। 'कौमी-जंग' अखबार देखा है आपने? उसकी पॉलिसी मुझे पसंद है। लाल बावटे वालों का है। मैं उन्‍हें भी चंद देता हूँ। मेरा ममेरा भाई 'बिरला मिल' में है। खाता कमेटी का सेक्रेटरी है। वह मुझसे चंदा ले जाता है।'

युवक अब वहाँ बैठना नहीं चाहता था। फिर भी, सैयद साहब की बातों को पूरा सुन लेने की इच्‍छा थी। मालूम होता था, आज वे मजे में आ रहे हैं।

रात काफी आगे बढ़ चुकी थी। होटल के सामने म्‍युनिसिपल बगीचे के बड़े-बड़े दरख्‍त रात की गहराई में ऊँघ-से रहे थे, जिनके पीछे आधा चाँद, मुस्लिम नववधू के भाल पर लटकते हुए अलंकार के समान लग रहा था।

नवयुवक जब और चलने लगा तो मालूम हुआ कि उसके पीछे भी कोई चल रहा है। उन दोनों के पैरों की आवाज गूँज रही थी। परंतु चाँद की तरफ (जिसकी काली पृष्‍ठभूमि भी कुछ आरुण्‍य लिए थी, मानो किसी मुग्‍ध रुचिर चेहरे पर खिली हुई लाल मिठास हो), जो घने दरख्‍तों के पीछे से उठ रहा था, वह युवक मुँह उठाए देखता जा रहा था। विशाल, गहरा काला, शुक्रतारकालोकित आकाश और नीचे निस्‍तब्‍ध शांति जो दरख्‍तों की पत्तियों में भटकने वाले पवन की क्रीड़ा में गा उठती थी।

युवक ऐसी लंबी एकांत रात में अर्ध-अपरिचित नगर की राह में अनुभव कर रहा था कि मानो नग्‍न आसमान, मुक्‍त दिशा और (एकाकी स्‍वपथचारी सौंदर्य के उत्‍सा-सा, व्‍यक्तिनिरपेक्ष मस्‍त आत्‍मधारा के खुमार-सा) नित्‍य नवीन चाँद से लाखों शक्ति-धाराएँ फूट कर नवयुवक के हृदय में मिल रही हों। नग्‍न, ठंडे पाषाण-आसमान और चाँद की भाँति ही - उसी प्रकार, उसका हृदय नग्‍न और शुभ्र शीतल हो गया है। द्रव्‍य की गतिमयी धारा ही उसके हृदय में बह रही है। पाषाण जिस प्रकार प्रकृति का अविभाज्‍य अंग है, मनुष्‍य प्रकृति पर अधिकार करके भी अपने रूप से उसका अविभाज्‍य अंग है।

चाँद धीरे-धीरे आसमान में ऊपर सरक रहा था। वृक्षों का मर्मर रात के सुनसान अँधेरे में स्‍वप्‍न की भाँति चल रहा था, परस्‍पर-विरोधी विचित्रगति ताल के संयोग-सा।

जो छाया दो कदम पीछे चल रही थी, वह नवयुवक के साथ हो गई। नवयुवक ने देखा कि सफेद, नाजुक, लाठी के हिलते त्रिकोण पर चाँद की चाँदनी खेल रही है; लंबी और सुरेख नाक की नाजुक कगार पर चाँद का टुकड़ा चमक रहा है, जिससे मुँह का करीब-करीब आधा भाग छायाच्‍छन्‍न है। और दो गहरी छोटी आँखें चाँदनी और हर्ष से प्रतिबिंबित हैं। उस वृद्ध मौलबी के चेहरे को देख कर नवयुवक को डी.एच. लॉरेन्‍स का चित्र याद आ गया! उस अर्द्ध-वृद्ध ने आते ही अपनी ठेठ प्रकृति से उत्‍सुक हो कर पूछा, 'आप कहाँ रहते है?'

वृद्ध के चेहरे पर स्‍वाभाविक अच्‍छाई हँस रही थी। इस नए शहर के (यद्यपि नवयुवक पाँच साल पहले यहीं रहता था) अजनबीपन में उसे इस मौलवी का स्‍वाभाविक अच्‍छाई से हँसता चेहरा प्रिय मालूम हुआ। उसने कहा, 'मैं इस शहर से भलीभाँति वाकिक नहीं हूँ। सराय में उतरा हूँ। नींद आ रही थी, इसलिए बाहर निकल पड़ा हूँ।'

होटल में बैठा हुआ यह वृद्ध मौलवी सैयद से हार गया था, मानो उसकी विद्वत्‍ता भी हार गई थी। इस हार से मन में उत्‍पन्‍न हुए अभाव और आत्‍मलीन जलन को वह शांत करना चाहता था। 'सैयद सॉब बहुत अच्‍छे आदमी हैं, हम लोगों पर उनकी बड़ी मे‍हरबानी है।'

नयुवक ने बात काट कर पूछा, 'आप कहाँ काम करते हैं?'

'मैं मस्जिद मदरसे में पढ़ाता हूँ। जी हाँ, गुजर करने के लिए काफी हो जाता है।' उसकी आँखें सहसा म्‍लान हो गईं और वह चुप हो कर, गरदन झुका कर, नीचे देखने लगा। फिर कहा, 'जी हाँ, दस साल पहले शादी हो चुकी थी। मालूम नहीं था कि वह गहने समेट करके चंपत हो जाएगी। ...तब से इस मस्जिद में हूँ।'

युवक ने देखा कि बूढ़ा एक ऐसी बात कह गया है जो एक अपरिचित से कहना नहीं चाहिए। बूढ़े ने कुछ ज्‍यादा नहीं कहा। परंतु इतने नैकट्य की बात सुन कर युवक की सहानुभूति के द्वार खुल गए। उसने बूढ़े की सूरत से ही कई बातें जान लीं, वही दु:ख जो किसी-न-किसी रूप में प्रत्‍येक कुचले मध्‍यवर्गीय के जीवन में मुँह फाड़े खड़ा हुआ है।

'जी हाँ, मस्जिद में पाँच साल हो गए, पंधरा रुपया मिलते हैं, गुजर कर लेता हूँ। लेकिन अब मन नहीं लगता। दुनिया सूनी-सूनी-सी लगती है। इस लड़ाई ने एक बात और पैदा कर दी है - दिलचस्‍पी! रेडियो सुनने में कभी नागा नहीं करता। रोज कई अखबार टटोल लेता हूँ। जी हाँ, एक नई दिलचस्‍पी। किताब पढ़ने का मुझे शौक जरूर है। पर मैं तालीमयफ्ता हूँ नहीं। तो, गर्जे कि समझ में नहीं आती।'

बूढ़ा अपनी नर्म, रेशमी, सितार के हलके तारों की गूँज-सी आवाज में कहता जा रहा था। बातें मामूली तथ्‍यात्‍मक थीं, परंतु उनके आस-पास भावना का आलोकवलय था। उसकी जिंदगी में आहत भावनाओं की जो तर्कहीन शक्ति थी, वह उसकी बातों की साधारणता में अपूर्व वैयक्तिक रंग भर देती थी।

युवक को यह अच्‍छा लगा। प्रिय मालूम हुआ। एक क्षण में उसने अपनी सहानुभूति की जादुई आँख से जान लिया कि कोई असंगत (अजीब) मस्जिद होगी, जहाँ रोज चुपचाप लोग यंत्रचालित-सी कतार में प्रार्थना पढ़ते होंगे। और उसकी सूनी, खाली, दूसरी मंजिल पर यह असंतुष्‍ट और जीवनपूर्ण अर्द्ध-वृद्ध छोटे-छोटे मैले-कुचैले लड़के-लड़कियों को दुपहर में पढ़ाता होगा। अपने लड़कों की ऊधम से परेशान माँ-बाप उन्‍हें काम में जुटाए रखने के लिए मदरसे में भेज देते होंगे, और य‍ह अनमने भाव से पढ़ाता होगा और अपनी जिंदगी, दुनिया और दुपहर का सारा क्रुद्ध सूनापन इसके दिल में बेचैनी से तड़पता होगा...।

उसने मौलवी से पूछा, 'अपकी उम्र क्‍या होगी!'

युवक ने देखा कि मौलवी को यह सवाल अच्‍छा लगा। उसका चेहरा और भी कोमल होता-सा दिखाई दिया। उसने कहा, 'सिर्फ चालीस। यद्यपि मैं पचास साल के ऊपर मालूम होता हूँ। अजी, इन पाँच सालों ने मुझको खा डाला। फिर भी मैं कमजोर नहीं हूँ। काफी हट्टा-कट्टा हूँ।'

मौलवी यह सिद्ध करना चाहता था कि अभी वह युवक है। जीवन की स्‍वाभाविक, स्‍वातंत्र्यर्ण, उच्‍छृंखल आकांक्षा-शक्तियाँ उसके शरीर में तारल्‍य भर देती थीं। उसके चलने में, बातचीत में वह अंतिमता नहीं थी जो शैथिल्‍य और उदासी में पक्‍वता का आभास पैदा कर देती हैं। उसने चालीस ठीक कहा था और नवयुवक को भी उसकी बात पर अविश्‍वास करने की इच्‍छा न हुई।

'ओफ्फो, तो आप जवान हैं।' युवक ने थम कर आगे कहा, 'तो आपका दिमाग लड़ाई पर जरूर चलता होगा...'

'अरे, साहब! कुछ न पूछिए, सैयद साहब मुझसे परेशान हैं।'

'आप 'कौमी जंग' पढते हैं? आपके होटल में तो मैंने अभी ही देखा है।'

'कौमी-जंग तो हमारी मस्जिद में भी आता है! हमारे सबसे बड़े मौलवी परजामंडल के कार्यकर्ता हैं। जमीयत-उल-उलेमा हिंद के मुअज्जिज हैं। वहीं के उलेमा हैं। सब तरह के अखबार खरीदते हैं। यहाँ उन्‍होंने मुस्लिम-फारवर्ड ब्‍लॉक खोल रखा है।'

युवक को यहाँ की राजनीति में उलझने की कोई जरूरत नहीं थी। फिर भी, उससे अलग रहने की भी कोई इच्‍छा नहीं थी। इतने में एक गली आ गई जिसमें मुड़ने के लिए मौलवी तैयार दिखाई दिया। युवक ने सिर्फ इतना ही कहा, 'किताबों के लिए हम आपकी मदद करेंगे। अब तो मैं यहाँ हूँ कुछ दिनों के लिए। कहाँ मुलाकात होगी आपसे?'

'सैयद साहब की होटल में। जी हाँ, सुबह और शाम!'

मौलवी साहब के साथ युवक का कुछ समय अच्‍छा कटा। वह कृतज्ञ था। उसने धन्‍यवाद दिया नहीं। उसकी जिंदगी में न मालूम कितने ही ऐसे आदमी आए हैं जिन्‍होंने उस पर सहज विश्‍वास कर लिया, उसकी जिंदगी में एक निर्वैयक्तिक गीलापन प्रदान किया। जब कभी युवक उन पर सोचता है। उनके झरनों ने उनकी जिंदगी को एक नदी बना दिया। उनमें से सब एक सरीखे नहीं थे। और न उन सबको उसने अपना व्‍यक्तित्‍व दे दिया था। परंतु उनके व्‍यक्तित्व की काली छायाओं, कंटकों और जलते हुए फास्‍फोरिक द्रव्‍यों, उनके दोषों से उसने नाक-भौं नहीं सिकोड़ी थी। अगर वह स्‍वयं कभी आहत हो जाता, तो एक बार अपना धुआँ उगल चुकने के बाद उनके व्रणों को चूमने और उनका विष निकाल फेंकने के लिए तैयार होता। उनके व्‍यक्तित्‍व की बारीक से बारीक बातों को सहानुभूति के मायक्रोस्‍कोप (बृहद्दर्शक ताल) से बड़ा करके देखने में उसे वही आनंद मिलता था, जो कि एक डॉक्‍टर को। और उसका उद्देश्‍य भी एक डॉक्‍टर का ही था। उसमें का चिकित्‍सक एक ऐसा सीधा-सादा हकीम था, जो दुनिया की पेटेंट दवाइयों के चक्‍कर में न पड़ कर अपने मरीजों से रोज सुबह उठने, व्‍यायाम करने, दिमाग को ठंडा रखने और उसको दो पैसे की दो पुड़िया शहद के साथ चाट लेने की सलाह देता था। सहानुभूति की एक किरण, एक सहज स्‍वास्‍थ्‍यपूर्ण निर्विकार मुसकान का चिकित्‍सा-संबंधी महत्‍व सहानुभूति के लिए प्‍यासी, लँगड़ी दुनिया के लिए कितना हो स‍कता है - यह वह जानता था! इसलिए वह मतभेद और परस्‍पर पैदा होने वाली विशिष्‍ट विसंवादी कटुताओं को बचा कर निकल जाता था। वह उन्‍हें जानता था और उसकी उसे जरूरत नहीं थी! दुनिया की कोई ऐसी कलुषता नहीं थी जिस पर उलटी हो जाय - सिवा विस्‍तृत सामाजि‍क शोषणों और उनके उत्‍पन्‍न दंभों और आदर्शवाद के नाम पर किए गए अंध अत्‍याचारों, यांत्रिक नैतिकताओं और आध्‍यात्मिक अहंताओं की तानाशाहियों को छोड़ कर! दुनिया के मध्‍यवर्गीय जनों के अनेक विषों को चुपचाप वह पी गया था, और राह देख रहा था सिर्फ क्रांति-शक्ति की! परंतु इससे उसको एक नुकसान भी हुआ था! व्‍यक्ति उसके लिए महत्‍वपूर्ण नहीं था, व्‍यक्तित्‍व अधिक, चाहे वह व्‍यक्तित्‍व मामूली ही हो और वह भी तभी जब तक उसकी जिज्ञासा और उष्‍णता का तालाब सूख न जाए। उसकी उष्‍णता का दृष्टिकोण भी काफी अमूर्त था क्‍योंकि उसके व्‍यक्तित्‍व का उद्देश्‍य अमूर्त था। इसलिए अपने आप में व्‍यक्ति उससे यदा-कदा छूट जाता था, सिवा उनके जो उसकी धड़कनों और रक्‍त के साथ मिल गए हैं! हकिम मरीजों को फौरन भूल जाते हैं, और मजे के लिए और मर्ज के साथ-साथ वे याद आते है। परिणामत: उसकी सहज उष्‍णता पा कर व्‍यक्ति उसके साथ एक हो जाते, अपने को नग्‍न कर देते; और फिर उससे नाना प्रकार की अपेक्षाएँ करने लगते जो संभव होना असंभव था।

मौ‍लवी जब गली में मुड़ कर गया तो युवक की आँखें उस पर थीं। मौलवी का लंबा, दुबला और श्‍वेत वस्‍त्रवृत सारा शरीर उसे एक चलता-फिरता इतिहास मालूम हुआ। उसकी दाढ़ी का त्रिकोण, आँखों की चपल-चमक और भावना-शक्तियों से हिलते कपोलों का इतिहास जान लेने की इच्‍छा उसमें दुगुनी हो गई।

तब सड़क के आधे भाग पर चाँदनी बिछी थी और आधा भाग चंद्र के तिरछे होने के कारण छायाच्‍छन्‍न हो कर काला हो गया था। उसका कालापन चाँदनी से अधिक उठा हुआ मालूम हो रहा था।

युवक के सामने समस्‍याएँ दो थीं। एक आराम की, दूसरी आराम के स्‍थान की। और दो रास्‍ते थे। एक, कि रात-भर घूमा जाए - रात के समाप्‍त होने में सिर्फ साढ़े तीन घंटे थे और दूसरे, स्‍टेशन पर कहीं भी सो लिया जाए!

कुछ सोच-विचार कर उसने स्‍टेशन का रास्‍ता लिया।

उसके शरीर में तीन दिन के लगातार श्रम की थकान थी। और उसके पैर शरीर का बोझ ढोने से इनकार कर रहे थे। परंतु जिस प्रकार जिंदगी में अकेले आदमी को अपनी थकान के बावजूद भोजन खुद ही तैयार करना पड़ता है - तभी तो पेट भर सकता है - उसी प्रकार उसके पैर चुपचाप, अपने दु:ख की कथा अपने से ही कहते हुए अपने कार्य में संलग्‍न थे।

उसको एक बार मुड़ना पड़ा। वह एक कम चौड़ा रास्‍ता था जिसके दोनों ओर बड़ी-बड़ा अट्टालिकाएँ चुपचाप खडी थीं, जिसके पैरों-नीचे बिछा हुआ रास्‍ता दो पहाड़ियों में से गुजरे हुए रास्‍ते की भाँति गड्ढे में पड़ा हुआ मालूम होता था। बाईं ओर की अट्टालिकाओं के ऊपरी भाग पर चाँदनी बिछी हुई थी।

थकान से शून्‍य मन में नींद के झोंके आ रहे थे, परंतु एक डर था पुलिसवाले का जो अगर रास्‍ते में मिल जाए जो उसके संदेहों को शांत करना मुश्किल है! डर इसलिए भी अधिक है कि रास्‍ता अँधेरे से ढँका हुआ है, सिर्फ अट्टालिकाओं पर गिरी हुई चाँदनी के कुछ-कुछ प्रत्‍यावर्तित प्रकाश से रास्‍ते का आकार सूझ रहा है।

मन में शून्‍यता की एक और बाढ़। नींद का एक और झोंका। रास्‍ता दोनों ओर से बंद होने के कारण शीत से बचा हुआ है - उसमें अधिक गरमी है।

युवक कैसे तो भी चल रहा है! नींद के गरम लिहाफ में सोना चाहता है। नींद का एक और झोंका! मन में शून्‍यता की एक और बाढ़।

युवक के पैरों में कुछ तो भी नरम-नरम लगा - अजीब, सामान्‍यत: अप्राप्‍य, मनुष्‍य के उष्‍ण शरीर-सा कोमल! उसने दो-तीन कदम और आगे रखे। और उसका संदेह निश्‍चत में परिवर्तित हो गया। उसका शरीर काँप गया। उसकी बुद्धि, उसका विवेक काँप गया। वह यदि कदम नहीं रखता हैं तो एक ही शरीर पर - न जाने वह बच्‍चे का है या स्‍त्री का, बूढ़े का या जवान का - उसका सारा वजन एक ही पर जा गिरे। वह क्‍या करे? वह भागने लगा एक किनारे की ओर। परंतु कहाँ-वहाँ तक आदमी सोए हुए थे उसके शरीर की गरम कोमलता उसके पैरों से चिपक गई थी। वहीं एक पत्‍थर मिला; वह उस पर खड़ा हो गया, हाँफता हुआ। उसके पैर काँप रहे थे। वह आँखे फाड़-फाड़ कर देख रहा था। परंतु अँधेरे के उस समुद्र में उसे कुछ नहीं दीखा। यह उसके लिए और भी बुरा हुआ। उसका पाप यों ही अँधेरे में छिपा रह जाएगा! उसकी विवेक-भावना सिटपिटा कर रह गई; उसको ऐसा धक्‍का लगा कि वह सँभलने भी नहीं पाया। वह पुण्‍यात्‍मा विवेक शक्ति केवल काँप रही थी!

युवक के मन में एक प्रश्‍न, बिजली के नृत्‍य की भाँति मुड़ कर मटक-मटक कर, घूमने लगा - क्‍यों न‍हीं इतने सब भूखे भिखारी जग कर, जाग्रत हो कर, उसको डंडे मार कर चूर कर देते हैं - क्‍यों उसे अब तक जिंदा रहने दिया गया?

परंतु इसका जवाब क्‍या हो सकता है?

वह हारा-सा, सड़क के किनारे-किनारे चलने लगा! मानो उस गहरे अँधेरे में भी भूखी आत्‍माओं की हजार-हजार आँखें उसकी बुजदिली, पाप और कलंक को देख रहीं हों। स्‍टेशन की ओर जानेवाली सीधी सड़क मिलते ही युवक ने पटरी बदल ली।

लंबी सीधी सड़क पर चाँदनी आधी नहीं थी क्‍योंकि दोनों ओर अट्टालिकाएँ नहीं थीं; केवल किनारे पर कुछ-कुछ दूरियों से छोटे-छोटे पेड़ लगे हुए थे। मौन, शीतल चाँदनी सफेद कफन की भाँति रास्‍ते पर बिछती हुई दो क्षितिजों को छू रही थी। एक विस्‍तृत, शांत खुलापन युवक को ढँक रहा था और उसे सिर्फ अपनी आवाज सुनाई दे रही थी - पाप, हमारा पाप, हम ढीले-ढाले, सुस्‍त, मध्‍यवर्गीय आत्‍म-संतोषियों का घोर पाप। बंगाल की भूख हमारे चरित्र-विनाश का सबसे बड़ा सबूत। उसकी याद आते ही, जिसको भुलाने की तीव्र चेष्‍टा कर रहा था, उसका हृदय काँप जाता था, और विवेक-भावना हाँफने लगती थी।

उस लंबी सुदीर्घ श्‍वेत सड़क पर वह युवक एक छोटी-सी नगण्‍य छाया हो कर चला जा रहा था।

~गजानन माधव

घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे

घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे, 
हर तरफ़ तेज़ हवाएँ हैं बिखर जाओगे।

इतना आसाँ नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करना, 
घर की दहलीज़ पुकारेगी जिधर जाओगे।

शाम होते ही सिमट जाएँगे सारे रस्ते,
बहते दरिया-से जहाँ होंगे, ठहर जाओगे।

हर नए शहर में कुछ रातें कड़ी होती हैं,
छत से दीवारें जुदा होंगी तो डर जाओगे।

पहले हर चीज़ नज़र आएगी बे-मा'नी सी,
और फिर अपनी ही नज़रों से उतर जाओगे।

~निदा फ़ाज़ली

गिल्लू

सोनजुही में आज एक पीली कली लगी है। इसे देखकर अनायास ही उस छोटे जीव का स्मरण हो आया, जो इस लता की सघन हरीतिमा में छिपकर बैठता था और फिर मेरे निकट पहुँचते ही कंधे पर कूदकर मुझे चौंका देता था। तब मुझे कली की खोज रहती थी, पर आज उस लघुप्राण की खोज है।

परंतु वह तो अब तक इस सोनजुही की जड़ में मिट्टी होकर मिल गया होगा। कौन जाने स्वर्णिम कली के बहाने वही मुझे चौंकाने ऊपर आ गया हो!

अचानक एक दिन सवेरे कमरे से बरामदे में आकर मैंने देखा, दो कौवे एक गमले के चारों ओर चोंचों से छूआ-छुऔवल जैसा खेल खेल रहे हैं। यह काकभुशुंडि भी विचित्र पक्षी है - एक साथ समादरित, अनादरित, अति सम्मानित, अति अवमानित।

हमारे बेचारे पुरखे न गरूड़ के रूप में आ सकते हैं, न मयूर के, न हंस के। उन्हें पितरपक्ष में हमसे कुछ पाने के लिए काक बनकर ही अवतीर्ण होना पड़ता है। इतना ही नहीं हमारे दूरस्थ प्रियजनों को भी अपने आने का मधु संदेश इनके कर्कश स्वर में ही देना पड़ता है। दूसरी ओर हम कौवा और काँव-काँव करने को अवमानना के अर्थ में ही प्रयुक्त करते हैं।

मेरे काकपुराण के विवेचन में अचानक बाधा आ पड़ी, क्योंकि गमले और दीवार की संधि में छिपे एक छोटे-से जीव पर मेरी दृष्टि रफ़क गई। निकट जाकर देखा, गिलहरी का छोटा-सा बच्चा है जो संभवतः घोंसले से गिर पड़ा है और अब कौवे जिसमें सुलभ आहार खोज रहे हैं।

काकद्वय की चोंचों के दो घाव उस लघुप्राण के लिए बहुत थे, अतः वह निश्चेष्ट-सा गमले से चिपटा पड़ा था।

सबने कहा, कौवे की चोंच का घाव लगने के बाद यह बच नहीं सकता, अतः इसे ऐसे ही रहने दिया जावे।

परंतु मन नहीं माना -उसे हौले से उठाकर अपने कमरे में लाई, फिर रूई से रक्त पोंछकर घावों पर पेंसिलिन का मरहम लगाया।

रूई की पतली बत्ती दूध से भिगोकर जैसे-तैसे उसके नन्हे से मुँह में लगाई पर मुँह खुल न सका और दूध की बूँदें दोनों ओर ढुलक गईं।

कई घंटे के उपचार के उपरांत उसके मुँह में एक बूँद पानी टपकाया जा सका। तीसरे दिन वह इतना अच्छा और आश्वस्त हो गया कि मेरी उँगली अपने दो नन्हे पंजों से पकड़कर, नीले काँच के मोतियों जैसी आँखों से इधर-उधर देखने लगा।

तीन-चार मास में उसके स्निग्ध रोए, झब्बेदार पूँछ और चंचल चमकीली आँखें सबको विस्मित करने लगीं।

हमने उसकी जातिवाचक संज्ञा को व्यक्तिवाचक का रूप दे दिया और इस प्रकार हम उसे गिल्लू कहकर बुलाने लगे। मैंने फूल रखने की एक हलकी डलिया में रूई बिछाकर उसे तार से खिड़की पर लटका दिया।

वही दो वर्ष गिल्लू का घर रहा। वह स्वयं हिलाकर अपने घर में झूलता और अपनी काँच के मनकों -सी आँखों से कमरे के भीतर और खिड़की से बाहर न जाने क्या देखता-समझता रहता था। परंतु उसकी समझदारी और कार्यकलाप पर सबको आश्चर्य होता था।

जब मैं लिखने बैठती तब अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करने की उसे इतनी तीव्र इच्छा होती थी कि उसने एक अच्छा उपाय खोज निकाला।

वह मेरे पैर तक आकर सर्र से परदे पर चढ़ जाता और फिर उसी तेजी से उतरता। उसका यह दौड़ने का क्रम तब तक चलता जब तक मैं उसे पकड़ने के लिए न उठती।

कभी मैं गिल्लू को पकड़कर एक लंबे लिफ़ाफ़े में इस प्रकार रख देती कि उसके अगले दो पंजों और सिर के अतिरिक्त सारा लघुगात लिफ़ाफ़े के भीतर बंद रहता। इस अद्भुत स्थिति में कभी-कभी घंटों मेज़ पर दीवार के सहारे खड़ा रहकर वह अपनी चमकीली आँखों से मेरा कार्यकलाप देखा करता।

भूख लगने पर चिक-चिक करके मानो वह मुझे सूचना देता और काजू या बिस्कुट मिल जाने पर उसी स्थिति में लिफ़ाफ़े से बाहर वाले पंजों से पकड़कर उसे कुतरता रहता।

फिर गिल्लू के जीवन का प्रथम बसंत आया। नीम-चमेली की गंध मेरे कमरे में हौले-हौले आने लगी। बाहर की गिलहरियां खिड़की की जाली के पास आकर चिक-चिक करके न जाने क्या कहने लगीं?

गिल्लू को जाली के पास बैठकर अपनेपन से बाहर झाँकते देखकर मुझे लगा कि इसे मुक्त करना आवश्यक है।

मैंने कीलें निकालकर जाली का एक कोना खोल दिया और इस मार्ग से गिल्लू ने बाहर जाने पर सचमुच ही मुक्ति की साँस ली। इतने छोटे जीव को घर में पले कुत्ते, बिल्लियों से बचाना भी एक समस्या ही थी।

आवश्यक कागज़ -पत्रों के कारण मेरे बाहर जाने पर कमरा बंद ही रहता है। मेरे कालेज से लौटने पर जैसे ही कमरा खोला गया और मैंने भीतर पैर रखा, वैसे ही गिल्लू अपने जाली के द्वार से भीतर आकर मेरे पैर से सिर और सिर से पैर तक दौड़ लगाने लगा। तब से यह नित्य का क्रम हो गया।

मेरे कमरे से बाहर जाने पर गिल्लू भी खिड़की की खुली जाली की राह बाहर चला जाता और दिन भर गिलहरियों के झुंड का नेता बना हर डाल पर उछलता-कूदता रहता और ठीक चार बजे वह खिड़की से भीतर आकर अपने झूले में झूलने लगता।

मुझे चौंकाने की इच्छा उसमें न जाने कब और कैसे उत्पन्न हो गई थी। कभी फूलदान के फूलों में छिप जाता, कभी परदे की चुन्नट में और कभी सोनजुही की पत्तियों में।

मेरे पास बहुत से पशु-पक्षी हैं और उनका मुझसे लगाव भी कम नहीं है, परंतु उनमें से किसी को मेरे साथ मेरी थाली में खाने की हिम्मत हुई है, ऐसा मुझे स्मरण नहीं आता।

गिल्लू इनमें अपवाद था। मैं जैसे ही खाने के कमरे में पहुँचती, वह खिड़की से निकलकर आँगन की दीवार, बरामदा पार करके मेज़ पर पहुंच जाता और मेरी थाली में बैठ जाना चाहता। बड़ी कठिनाई से मैंने उसे थाली के पास बैठना सिखाया जहां बैठकर वह मेरी थाली में से एक-एक चावल उठाकर बड़ी सफ़ाई से खाता रहता। काजू उसका प्रिय खाद्य था और कई दिन काजू न मिलने पर वह अन्य खाने की चीजें या तो लेना बंद कर देता या झूले से नीचे फेंक देता था।

उसी बीच मुझे मोटर दुर्घटना में आहत होकर कुछ दिन अस्पताल में रहना पड़ा। उन दिनों जब मेरे कमरे का दरवाजा खोला जाता गिल्लू अपने झूले से उतरकर दौड़ता और फिर किसी दूसरे को देखकर उसी तेज़ी से अपने घोंसले में जा बैठता। सब उसे काजू दे आते, परंतु अस्पताल से लौटकर जब मैंने उसके झूले की सफ़ाई की तो उसमें काजू भरे मिले, जिनसे ज्ञात होता था कि वह उन दिनों अपना प्रिय खाद्य कितना कम खाता रहा।

मेरी अस्वस्थता में वह तकिए पर सिरहाने बैठकर अपने नन्हे-नन्हे पंजों से मेरे सिर और बालों को इतने हौले-हौले सहलाता रहता कि उसका हटना एक परिचारिका के हटने के समान लगता।

गरमियों में जब मैं दोपहर में काम करती रहती तो गिल्लू न बाहर जाता न अपने झूले में बैठता। उसने मेरे निकट रहने के साथ गरमी से बचने का एक सर्वथा नया उपाय खोज निकाला था। वह मेरे पास रखी सुराही पर लेट जाता और इस प्रकार समीप भी रहता और ठंडक में भी रहता।

गिलहरियों के जीवन की अवधि दो वर्ष से अधिक नहीं होती, अतः गिल्लू की जीवन यात्रा का अंत आ ही गया। दिन भर उसने न कुछ खाया न बाहर गया। रात में अंत की यातना में भी वह अपने झूले से उतरकर मेरे बिस्तर पर आया और ठंडे पंजों से मेरी वही उँगली पकड़कर हाथ से चिपक गया, जिसे उसने अपने बचपन की मरणासन्न स्थिति में पकड़ा था। पंजे इतने ठंडे हो रहे थे कि मैंने जागकर हीटर जलाया और उसे उष्णता देने का प्रयत्न किया। परंतु प्रभात की प्रथम किरण के स्पर्श के साथ ही वह किसी और जीवन में जागने के लिए सो गया।

उसका झूला उतारकर रख दिया गया है और खिड़की की जाली बंद कर दी गई है, परंतु गिलहरियों की नयी पीढ़ी जाली के उस पार चिक-चिक करती ही रहती है और सोनजुही पर बसंत आता ही रहता है।

सोनजुही की लता के नीचे गिल्लू को समाधि दी गई है - इसलिए भी कि उसे वह लता सबसे अधिक प्रिय थी - इसलिए भी कि उस लघुगात का, किसी वासंती दिन, जुही के पीताभ छोटे फूल में खिल जाने का विश्वास, मुझे संतोष देता है।

~महादेवी वर्मा

Saturday 24 February 2018

मैं बुलाता तो हूँ उस को मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल

मैं बुलाता तो हूँ उस को मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल,
उस पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने.

खेल समझा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए,
काश यूँ भी हो कि बिन मेरे सताए न बने.

ग़ैर फिरता है लिए यूँ तिरे ख़त को कि अगर,
कोई पूछे कि ये क्या है तो छुपाए न बने.

उस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या,
हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने.

कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है,
पर्दा छोड़ा है वो उस ने कि उठाए न बने.

मौत की राह न देखूँ कि बिन आए न रहे,
तुम को चाहूँ कि न आओ तो बुलाए न बने.

बोझ वो सर से गिरा है कि उठाए न उठे,
काम वो आन पड़ा है कि बनाए न बने.

इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने.

~मिर्ज़ा ग़ालिब

तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता.

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता.

तिरे वा’दे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना,
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए’तिबार होता.

तिरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अहद बोदा,
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता.

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को,
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता.

ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह,
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता.

रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता,
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता.

ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है,
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता.

कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता.

हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया,
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता.

उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता,
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता.

ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता.

~मिर्ज़ा ग़ालिब


Friday 23 February 2018

चप्पल

कहानी बहुत छोटी सी है।

मुझे ऑल इण्डिया मेडिकल इंस्टीटयूट की सातवीं मंज़िल पर जाना था। अाई. सी. यू. में। गाड़ी पार्क करके चला तो मन बहुत ही दार्शनिक हो उठा था। कितना दु:ख और कष्ट है इस दुनिया में...लगातार एक लड़ाई मृत्यु से चल रही है...अौर उसके दु:ख और कष्ट को सहते हुए लोग -- सब एक से हैं। दर्द और यातना तो दर्द और यातना ही है --चाहे वह किसी की हो। इसमें इंसान और इंसान के बीच भेद नहीं किया जा सकता। दुनिया में हर माँ के दूध का रंग एक है। ख़ून और आंसुओं का रंग भी एक है। दूध, खून और आँसुओं का रंग नहीं बदला जा सकता...शायद उसी तरह दु:ख़, कष्ट और यातना के रंगों का भी बँटवारा नहीं किया जा सकता। इस विराट मानवीय दर्शन से मुझे राहत मिली थी.... मेरे भीतर से सदियाँ बोलने लगी थीं। एक पुरानी सभ्यता का वारिस होने के नाते यह मानसिक सुविधा ज़रूर है कि तुम हर बात, घटना या दुर्घटना का कोई दार्शनिक उत्तर खोज सकते हो। समाधान चाहे न मिले, पर एक अमूर्त दार्शनिक उत्तर ज़रूर मिल जाता है।

और फिर पुरानी सभ्यताओं की यह खूबी भी है कि उनकी परम्परा से चली आती संतानों को एक आत्मा नाम की अमूर्त शक्ति भी मिल गई है -- और सदियों पुरानी सभ्यता मनुष्य के क्षुद्र विकारों का शमन करती रहती है...एक दार्शनिक दृष्टि से जीवन की क्षण-भंगुरता का एहसास कराते हुए सारी विषमताओं को समतल करती रहती है...

मुझे अपने उस मित्र की बातें याद आईं जिसने मुझे संध्या के संगीन ऑपरेशन की बात बताई थी ओर उसे देख आने की सलाह दी थी। उसी ने मुझे आई. सी. यू. में संध्या के केबिन का पता बताया था -- आठवें फ्लोर पर ऑपरेशन थियेटर्स हैं और सातवें पर संध्या का आई. सी. यू. । मेजर ऑपरेशन में संध्या की बड़ी आँत काटकर निकाल दी गई थी और अगले अड़तालीस घण्टे क्रिटिकल थे...

रास्ता इमरजेंसी वार्ड से जाता था। एक बेहद दर्द भरी चीख़ इमरजेंसी वार्ड से आ रही थी... वह दर्द-भरी चीख़ तो दर्द-भरी चीख़ ही थी-- कोई घायल मरीज असह्य तकलीफ़ से चीख़ रहा था। उस चीख़ से आत्मा दहल रही थी... दर्द की चीख़ और दर्द की चीख़ में क्या अन्तर था! दूध, ख़ून और आँसुओं के रंगों की तरह चीख़ की तकलीफ़ भी तो एक-सी थी। उसमें विषमता कहाँ थी?...

मेरा वह मित्र जिसने मुझे संध्या को देख आने की फ़र्ज अदायगी के लिए भेजा था, वह भी इलाहाबाद का ही था। वह भी उसी सदियों पुरानी सभ्यता का वारिस था। ठेठ इलाहाबादी मौज में वह भी दार्शनिक की तरह बोला था --अपना क्या है ? रिटायर होने के बाद गंगा किनारे एक झोपड़ी डाल लेंगे। आठ-दस ताड़ के पेड़ लगा लेंगे... मछली मारने की एक बंसी...दो चार मछलियाँ तो दोपहर तक हाथ आएँगी ही... रात भर जो ताड़ी टपकेगी उसे फ्रिज में रख लेंगे...

--फ्रिज में ?

-- और क्या... माडर्न साधू की तरह रहेंगे ! मछलियां तलेंगे, खाएँगे और ताड़ी पीएँगे...और क्या चाहिए... पेंशन मिलती रहेगी। और माया-मोह क्यों पालें? पालेंगे तो प्राण अटके रहेंगे... ताड़ी और मछली... बस, आत्मा ताड़ी पीकर, मछली खाके आराम से महाप्रस्थान करे... न कोई दु:ख, न कोई कष्ट... लेकिन तुम जाके संध्या को देख ज़रूर आना...वो क्रिटिकल है...

मेरा मित्र अपने भविष्य के बारे में कितना निश्चिन्त था, यह देखकर मुझे अच्छा लगा था।

यह बात सोच-सोचकर मुझे अभी तक अच्छा लग रहा था, सिवा उस चीख़ के जो इमरजेंसी वार्ड से अब तक आ रही थी...और मुझे सता रही थी...इसीलिए लिफ्ट के आने में जो देरी लग रही थी वह मुझे खल रही थी।

आखिर लिफ़्ट आयी! सेवन-सात -- मैंने कहा और संध्या के बारे में सोचने लगा। दो-तीन वार्ड बॉय तीसरी और चौथी मंज़िल पर उतर गए।

पाँचवीं मंज़िल पर लिफ़्ट रुकी तो कुछ लोग ऊपर जाने के लिए इन्तज़ार कर रहे थे। इन्हीं लोगों में था वह पाँच साल का बच्चा-- अस्पताल की धारीदार बहुत बड़ी-सी कमीज़ पहने हुए...शायद उसका बाप, वह ज़रूर ही उसका बाप होगा, उसे गोद में उठाए हुए था... उस बच्चे के पैरों में छोटी-छोटी नीली हवाई चप्पलें थी, जो गोद में होने के कारण उसके छोटे-छोटे पैरों में उलझी हुई थीं।

अपने पैरों से गिरती हुई चप्पलों को धीरे से उलझाते हुए बच्चा बोला-- बाबा! चप्पल...

उसके बाप ने चप्पलें उसके पैरों में ठीक कर दीं। वार्ड बॉय व्हील-चेयर बढ़ाते हुए बोला, "आ जा, इसमें बैठेगा!" बच्चा हल्के से हँसा। वार्ड बॉय ने उसे कुर्सी में बैठा दिया... उसे बैठने में कुछ तकलीफ़ हुई पर वह कुर्सी के हत्थे पर अपने नन्हें-नन्हें हाथ पटकता हुआ भी हँसता रहा। दर्द का एहसास तो उसे भी था पर दर्द के कारण का एहसास उसे बिल्कुल नहीं था। वह कुर्सी में ऐसे बैठा था जैसे सिंहासन पर बैठा हो... क़ुर्सी बड़ी थी और वह छोटा। वार्ड बॉय ने कुर्सी को पुश किया। वह लिफ्ट में आ गया। उसके साथ ही उसका बाप भी। उसका बाप उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरता रहा।

लिफ़्ट सात पर रूका, पर मैं नहीं निकला। दो-एक लोग निकल गए। लिफ्ट आठ पर रूकी। यहीं ऑपरेशन थियेटर थे। दरवाज़ा खुला तो एक नर्स जिसके हाथ में सब पर्चे थे, उसे देखते हुए बोली-- "आ गया तू!"

उस बच्चे ने धीरे से मुस्कराते हुए नर्स से जैसे कहा -- हाँ ! उसकी आँखें नर्स से शरमा रही थीं और उनमें बचपन की बड़ी मासूम दूधिया चमक थी। व्हील-वेयर एक झटके के साथ लिफ्ट से बाहर गई नर्स ने उसका कंधा हल्के से थपका...

'बाबा ! चप्पल !' वह तभी बोला-- 'मेरी चप्पल'...

उसकी एक चप्पल लिफ्ट के पास गिर गई थी उसके बाप ने वह चप्पल भी उसे पहना दी। उसने दोनों पैरों की उँगलियों को सिकोड़ा और अपनी चप्पलें पैरों में कस लीं।

लिफ्ट बंद हुआ और नीचे उतर गया।

वार्ड बॉय बच्चे की कुर्सी को पुश करता हुआ ऑपरेशन थियेटर वाले बरामदे में मुड़ गया। नर्स उसके साथ ही चली गई। उसका बाप धीरे-धीरे उन्हीं के पीछे चला गया।

तब मुझे याद आया कि मुझे तो सातवीं मंज़िल पर जाना था। संध्या वहीं थी। मैं सीढ़ियों से एक मंज़िल उतर आया। संध्या के डॉक्टर पति ने मुझे पहचाना और आगे बढ़कर मुझसे हाथ मिलाया। हाथ की पकड़ में मायूसी और लाचारी थी। क़ुछ पल खामोशी रही। फिर मैंने कहा, "मैं कल ही वापस आया तभी पता चला। यह एकाएक कैसे हो गया?"

"नहीं, एकाएक नहीं, ब्लीडिंग तो पहले भी हुई थी, पर तब कंट्रोल कर ली गई थी। पंद्रह दिनों बाद फिर होने लगी। एक्सेसिव ब्लीडिंग। ...चार घण्टे ऑपरेशन में लगे...एंड यू नो, वी डॉक्टर्स आर वर्स्ट पेशेंट्स ! वो संध्या के बारे में भी कह रहे थे। संध्या भी डॉक्टर थी।

"यस ! आप तो सब समझ रहे होंगे। संध्या को भी एक-एक बात का अंदाज़ हो रहा होगा !" मैंने कहा .

"लेकिन वो बहुत करेजसली बिहेव कर रही है !" संध्या के डॉक्टर पति ने कहा -- बोल तो सकती नहीं...पल्स भी गर्दन के पास मिली... अार्टीफ़िशियल रेस्पटेशन पर है...एक तरह से देखिए तो उसका सारा शरीर आराम कर रहा है और सब कुछ आर्टीफ़िशिल मदद से ही चल रहा है। संध्या के डाक्टर पति ज़्यादातर बातें मुझे मेंडिकल टर्म्स में ही बताते रहे और मैं उन्हें समझने की कोशिश करता रहा। बीच -बीच मैं इधर-उधर की बातें भी करता रहा।

"संध्या का भाई भी आज सुबह पहुँच गया...क़िसी तरह उसे जापान होते हुए टिकट मिल गया !" उन्होंने बताया।

"यह तो बहुत अच्छा हुआ।" मैंने कहा।

"आप देखना चाहेंगे?"

"हाँ, अगर पॉसिबिल हो तो ..."

"आइए, देख तो सकते हैं। भीतर जाने की इजाज़त नहीं है। वैसे तो सब डॉक्टर फ्रेंड्स ही हैं, पर ...।"

"नहीं-नहीं, वो ठीक भी है...।"

"वो बोल भी नहीं सकती... वैसे आज कांशस है... क़ुछ कहना होता है तो लिख के बता देती है।" उन्होंने कहा और एक केबिन के सामने पहुँचकर इशारा किया।

मैंने शीशे की दीवार से संध्या को देखा। वह पहचान में ही नहीं आई। दो डॉक्टर और नर्स उसे अटैण्ड भी कर रहे थे... अौर फिर इतनी नलियाँ और मशीनें थीं कि उनके बीच संध्या को पहचानना मुश्किल भी था।

संध्या होश में थी। डॉक्टर को देख रही थी। डॉक्टर उसका एक हाथ सहलाते हुए उसे कुछ बता रहा था। मैंने संध्या को इस हाल में देखा तो मन उदास हो गया। वह कितनी लाचार थी। बीमारी और समय के सामने आदमी लाचार ही होता है...क़ुछ कर नहीं पाता। मैंने मन ही मन संध्या के लिए प्रार्थना की, किससे की यह नहीं मालूम -- -ऐसी जगहों पर आकर भगवान पर ध्यान जाता भी है और किसी के शुभ के लिए उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेने में अपना कुछ नहीं जाता -- सिवा प्रार्थना के कुछ शब्दों के।

हम आई. सी. यू से हटकर फिर बरामदे में आ गए। वहाँ बैठने के लिए कोई जगह नहीं थी। बरामदे बैठने के लिए बनाए भी नहीं गए थे। संध्या या डॉक्टर की बहन नीचे चादर बिछाए बैठी थी ड़ॉक्टर के कुछ दोस्त एक झुण्ड में खड़े थे।

"अभी तो, बाद में, एक ऑपरेशन और होगा।" संध्या के डॉक्टर पति ने बताया -- "तब छोटी आँत को सिस्टम से जोड़ा जाएगा। ख़ैर, पहले वो स्टेबलाइज़ करे, फिर रिकवरी का सवाल है...इसमें ही क़रीब तीन महीने लग जाएँगे...उसके बाद मैं सोचता हूँ -- उसे अमेरिका ले जाऊँगा !"

"यह ठीक रहेगा !"

इसके बाद हम फिर इधर-उधर की बातें करते रहे। मैं संध्या की संगीन हालत से उनका ध्यान भी हटाना चाहता था। इसके सिवा मैं और कर भी क्या सकता था। और डॉक्टर के सामने यों खामोश खड़े रहना अच्छा भी नहीं लग रहा था।

मैं यह जताते हुए कि अस्पताल वालों से छुपाकर मैं सिगरेट पीना चाहता हूँ -- मैं खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया। बाहर लू चल रही थी। नीचे धरातल पर कुछ लोग आ-जा रहे थे। वे ऊपर से बहुत लाचार और बेचारे लग रहे थे। और मेरे मन से सबके शुभ के लिए सद्भावना की नदियाँ फूट रही थीं...एेसे में तुम सोचो -- लगता है मनुष्य ने मनुष्य के साथ तो सघन और उदात्त सम्बन्ध बना लिए हैं, पर ईश्वर के साथ वह ऐसा नहीं कर पाया है। मनुष्य अपने ईश्वर के दु:ख-सुख में शामिल नहीं हो सकता। ईश्वर से उसका सम्बन्ध सिर्फ दाता और पाता का है। वह देता है और मनुष्य पाता है। क़ितना इकतरफा रिश्ता है यह...अौर फिर अगर तुम यह भी मान लो कि ईश्वर ही मनुष्य को बनाता है तो ईश्वर की क्षमता पर विश्वास घटने लगता है -- सृष्टि के आदि से वह मनुष्य को बनाता आ रहा है परंतु असंख्य प्राणियों को बनाने के बावजूद वह आज तक एक सहज सम्पूर्ण और मुकम्मिल मनुष्य नहीं बना पाया। क़ुछ कमी कहीं तो ईश्वर की व्यवस्था में भी है.. हो सकता है उनका आदि -कलाकार कुम्भकार उन्हें मिट्टी सप्लाई करने में कुछ घपला कर रहा हो। ...इस रहस्य का पता कौन लगाएगा? रहस्य ही रहस्य को जन्म देता है। शायद इसीलिए मनुष्य ने ईश्वर को रहस्य ही रहने दिया...जो सत्ता या शक्ति विश्वास के निकष पर खरी न उतरे, उसे रहस्य बना देना ही बेहतर है...अौर किया भी क्या जा सकता है...।

लू के एक थपेड़े ने मेरा मुँह झुलसा दिया। ड़ॉक्टर अपने चिन्ताग्रस्त शुभचिन्तकों के झुण्ड में खड़े थे -- और सबके चेहरे कुछ ज़्यादा सतर्क थे।

ब्लडप्रेशर गिर रहा है...

आई.सी.यू. में डॉक्टरों और नर्सो की आमदरफ़्त से लग रहा था कि कोई कठिन परिस्थिति सामने है। क़ुछ देर बाद पता चला कि नीडिल कुछ ढीली हो गई थी...उसे ठीक कर दिया गया है और ब्लडप्रेशर ठीक से रिकॉर्ड हो रहा है...सबने राहत की साँस ली। मौत से लड़ना कोई मामूली काम नहीं है। ईश्वर ने तो मौत पैदा की ही है, पर मौत तो मनुष्य भी पैदा करता है। एक तरफ जीवन के लिए लड़ता है ओर दूसरी तरफ मौत भी बांटता है -- यह द्वंद्व ही तो जीवन है.. यह द्वंद्व और द्वैत ही जीवित रहने की शर्त है और अद्वैत या समानता तक पहुँचने का साधन और आदर्श भी। आध्यात्मिक अद्वैत जब भौतिकता की सतह पर आता है और मनुष्य के प्रश्न सुलझाता है तभी तो वह समवेत समानता का दर्शन कहलाता है...।

सिगरेट से मुँह कड़वा हो गया था। लू वैसे ही थपेड़े मार रही थी। सीमेंट के पलस्तर का दहकता-चिलचिलाता तालाब सामने फैला था -- कोई एक आदमी जलते नंगे पैरों से उसे पार कर रहा था।

मैंने पलटते हुए लिफ्ट की तरफ देखा। डॉक्टर मेरा आशय समझ गए थे, लेकिन तभी राजनीतिज्ञ-से उनके कोई दोस्त आ गए थे। शुरू की पूछताछ के बाद वे लगभग भाषण-सा देने लगे -- अब तो अग्नि मिसाइल के बाद भारत दुनिया का सबसे शक्तिशाली तीसरा देश हो गया है और आने वाले दस वर्षो में हमें अब कोई शक्ति महाशक्ति बनने से नहीं रोक सकती। इंग्लैंड और फ्राँस की पूरी जनसंख्या से ज़्यादा बड़ा है आज भारत का मध्यवर्ग... अपनी संपन्नता में...भारतीय मध्यवर्ग जैसी शक्ति और संपन्नता उन देशों के मध्यवर्ग के पास भी नहीं है...

तभी एक चिन्ताग्रस्त नर्स तेज़ी से गुजर गई और सन्नाटा छा गया। चिन्ता के भारी क्षण जब कुछ हल्के हुए तो मैंने फिर लिफ़्ट की तरफ देखा। डॉक्टर साहब समझ गए -- आपको ढाई -तीन घण्टे हो गए...क्या-क्या काम छोड़ के आए होंगे... अौर वे लिफ़्ट की ओर बढ़े। लिफ़्ट आया, पर वह ऊपर जा रहां था। डॉक्टर साहब को मेरी ख़ातिर रूकना न पड़े, इसलिए मैं लिफ़्ट में घुस गया।

लिफ़्ट आठ पर पहुँचा। वहाँ ज्यादा लोग नहीं थे। पर एक स्ट्रेचर था और दो-तीन लोग। स्ट्रेचर भीतर आया उसी के साथ लोग भी। स्ट्रेचर पर चादर में लिपटा बच्चा पड़ा हुआ था। वह बेहोश था। वह आपरेशन के बाद लौट रहा था। उसके गालों और गर्दन के रेशमी रोएँ पसीने से भीगे हुए थे। माथे पर बाल भी पसीने के कारण चिपके हुए थे।

उसका बाप एक हाथ में ग्लूकोज की बोतल पकड़े हुए था...ग्लूकोज की नली की सुई उसकी थकी और दूधभरी बाँह की धमनी में लगी हुई थी...उसका बाप लगातार उसे देख रहा था...वह शायद पसीने से माथे पर चिपके उसके बालों को हटाना चाहता था, इसलिए उसने दूसरा हाथ ऊपर किया, पर उस हाथ में बच्चे की चप्पलें उसकी उंगलियों में उलझी हुई थीं... वह छोटी-छोटी नीली हवाई चप्पलें....।

मैंने बच्चे को देखा। फ़िर उसके निरीह बाप को।

मेरे मुँह से अनायास निकल ही गया --"इसका..."

"इसकी टाँग काटी गई है -- वार्ड बॉय ने बाप की मुश्किल हल कर दी।

"ओह ! कुछ हो गया था? मैंने जैसे उसके बाप से ही पूछा। वह मुझे देखकर चुप रह गया... उसके ओठ कुछ बुदबुदाकर थम गए... लेकिन वह भी चुप नहीं रह सका। एक पल बाद ही बोला -- जांघ की हड्डी टूट गई थी...।"

"चोट लगी थी ?"

"नहीं, सड़क पार कर रहा था...एक गाड़ी ने मार दिया।" वह बोला और मेरी तरफ ऐसे देखा, जैसे टक्कर मारने वाली गाड़ी मेरी ही थी।

फिर वह वीतराग होकर अपने बेटे को देखने लगा।

पाँचवीं मंज़िल पर लिफ़्ट रूकी। बच्चों का वार्ड इसी मंजिल पर था। लिफ्ट में आने वाले कई लोग थे। वे सब स्ट्रैचर निकाले जाने के इन्तज़ार में बेसब्री से रूके हुए थे... वार्ड बॉय ने झटका देकर स्ट्रेचर निकाला तो बच्चा बोरे की तरह हिल उठा, अनायास ही मेरे मुंह से निकल गया -- "धीरे से ...।"

"ये तो बेहोश है इसे क्या पता?" स्ट्रेचर को बाहर पुश करते हुए वार्ड बॉय ने कहा।

उस बच्चे का बाप खुले दरवाज़े से टकराता हुआ बाहर निकला तो एक नर्स ने उसके हाथ की ग्लूकोज की बोतल पकड़ ली।

लिफ्ट के बाहर पहुँचते ही उसके बाप ने उसकी दोनों नीली हवाई चप्पलें वहीं कोने में फेंक दीं...फिर कुछ सोचकर कि शायद उसका बेटा होश में आते ही चप्पलें माँगेगा, उसने पहले एक चप्पल उठाई...फ़िर दूसरी भी उठा ली और स्ट्रेचर के पीछे-पीछे वार्ड की तरफ जाने लगा।

मुझे नहीं मालूम कि उसका बेटा जब होश में आएगा तो क्या माँगेगा, चप्पल माँगेगा या चप्पलों को देखकर अपना पैर माँगेगा ...।

बेसब्री से इन्तज़ार करते लोग लिफ़्ट में आ गए थे। लिफ़्टमैन ने बटन दबाया। दरवाज़ा बन्द हुआ। और वह लोहे का बन्द कमरा नीचे उतरने लगा।

~ कमलेश्वर

पागल

पुरुष : "तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुंदर हो जाती है।"

स्त्री : "जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों में पहुँच जाती हूँ!"

पुरुष : "इसे ध्यान नहीं ख्याली पुलाव कहूँगा मैं। आँखें बंद करते ही बेतुके सपने देखने लगती हो तुम।"

स्त्री : "नहीं! मेरा विश्वास करो, साधना से सब कुछ संभव है। मुझे देखो, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे सामने। और इसी समय अपनी साधना के बल पर मैं हरिद्वार के आश्रम में भी उपस्थित हूँ स्वामी जी के चरणों में।"

पुरुष : "उस बुड्ढे की तो..."

स्त्री : "तुम्हें ईर्ष्या हो रही है स्वामी जी से?"

पुरुष : "मुझे ईर्ष्या क्यों कर होने लगी?"

स्त्री : "क्योंकि तुम मर्द बड़े शक्की होते हो। याद रहे, शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।"

पुरुष : "ऐसा क्या कह दिया मैंने?"

स्त्री : "इतना कुछ तो कहते रहते हो हर समय। मैं अपना भला-बुरा नहीं समझती। मेरी साधना झूठी है। योग, ध्यान सब बेमतलब की बातें हैं। स्वामीजी लंपट हैं।"

पुरुष : "सच है इसलिए कहता हूँ। तुम यहाँ साधना के बल पर नहीं हो। तुम यहाँ हो, क्योंकि हम दोनों ने दूतावास जाकर वीसा लिया था। फिर मैंने यहाँ से तुम्हारे लिए टिकट खरीदकर भेजा था। और उसके बाद हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आया था। कल्पना और वास्तविकता में अंतर तो समझना पड़ेगा न!"

स्त्री : "हाँ, सारी समझ तो जैसे भगवान ने तुम्हें ही दे दी है। यह संसार एक सपना है। पता है?"

पुरुष : "सब पता है मुझे। पागल हो गई हो तुम।"

बालक: "यह आदमी कौन है?"

बालिका: "पता नहीं! रोज शाम को इस पार्क में सैर को आता है। हमेशा अपने आप से बातें करता रहता है। पागल है शायद।"

~अनुराग शर्मा 

प्रश्‍न

एक लड़का भाग रहा है। उसके तन पर केवल एक कुर्ता है और एक धोती मैली-सी! वह गली में भाग रहा है मानो हजारों आदमी उसके पीछे लगे हों भाले ले कर, लाठी ले कर, बरछियाँ ले कर। वह हाँफ रहा है, मानो लड़ते हुए हार रहा हो! वह घर भागना चाहता है, आश्रय के लिए नहीं, छिपने के नहीं; पर उत्‍तर के लिए, एक प्रश्‍न के उत्‍तर के लिए! एक सवाल के जवाब के लिए, एक संतोष के लिए!

गली से दौड़ते-दौड़ते उसका पेट दुखने लगता है, अँतड़ियाँ दुखने लगती हैं, चेहरा लाल-लाल हो जाता है। वह पीछे देखता है, उसका पीछा करनेवाला कोई भी तो नहीं है! गली सुनसान पड़ी है। हलवाई की दुकान पर लाल मक्खियाँ भिनभिना रही हैं, बीड़ी बनानेवाला चुपचाप बीड़ी बनाता चला जा रहा है। और ऐसी दुपहर में यहाँ अँधेरा है। पर ऐसा कौन था जो उसका पीछा कर रहा था? वह देखता है, हजारों प्रश्‍न लाल बर्रों से उसके हृदय के अंधकार मार्ग पर वेग के कारण सूँ-सूँ करते उसका बराबर पीछा कर रहे हैं। उसको पकड़ना चाहते हैं। मार डालना चाहते हैं।

वह दौड़ते-दौड़ते ठहर जाता है और धीरे-धीरे चलने लगता है, और मानो वे हजारों प्रश्‍न अपने करोड़ों ही डंकों को ले कर उसके आस-पास मँडराने लगते हैं। वे उसको व्‍याकुल कर देते हैं और वह नि:सहाय उनमें घिर जाता है, और निकल नहीं पाता।

परंतु फिर भी एक उद्धार का रास्‍ता है, एक स्‍थान है जहाँ वह निश्चित आश्रय पा सकता है। परंतु क्‍या वह मिल सकेगा?

उफ! कितनी घृणा! कितनी शर्म! इससे तो मर जाना ही अच्‍छा, जब कि आधारशिला डूब रही हो। मूल स्रोत ही सूख रहा हो। वह है, तो सब कुछ है, नहीं तो कुछ भी नहीं! कुछ भी नहीं!

'हाय, माँ', वह चिल्‍ला उठता है। परंतु वह अपनी माँ को नहीं पुकारता; वह विश्‍वात्‍मक मातृ शक्ति को पुकारता है कि वह आए और उसको बचाए। वह कर क्‍या सकता है; वह अपने आँचल से उसे न हटाए।

'हाय! परंतु क्‍या मेरा यह भी भाग्‍य है! तो फिर मुझे माता ही क्‍यों दी! वह मर...' और वह अपनी जबान काट लेता है, सोचता है शायद वह गलत हो, जो कुछ सुना है, जो कुछ सुनता आ रहा है वह भी गलत हो। सब गुछ गलत हो सकता है, जैसे सब कुछ सही हो सकता है! भाग्‍य की ही परीक्षा है तो फिर यही सही!

और उस लड़के को याद आ गया कि किस तरह स्‍कूल के लड़के उसे छेड़ते हैं, उसे तंग करते हैं, वह उनसे लड़ता है। मार खा लेता है। उसके मित्र भी उसे बेईमान समझने लगे हैं, क्‍योंकि वह तो ऐसी माता का सुपुत्र है। वे विषपूर्ण ताने कसते हैं। व्‍यंग्‍य भरी मुसकान मुसकराते हैं। क्‍या वे जो कुछ कहते हैं, सच है? क्‍या काका का और मेरी माँ का - छि: छि:, थू: थू:, छि: छि:, थू: थू:!

और वह तेरह बरस का लड़का रास्‍ते चलते-चलते घृणा और लज्‍जा की आग में जल जाता है। काका (जो उसके काका नहीं हैं) और माँ को उसने कई बार पास बैठे हुए देखा है। पर उसे शंका तब नहीं हुई। कैसे होती? पर आज वह उसको उसी तरह घृणा कर रहा है, जैसे जलते शरीर के मांस की दुर्गंध!

परंतु फिर भी उसे विश्‍वास-सा कुछ है। वह सोच रहा है, शायद ऐसा न हो।

और वह लड़का अति व्‍याकुल हो कर अपने पैर बढ़ा लेता है। अँधेरी गलियों में से होता हुआ अपने भाग्‍य की परीक्षा करने के लिए चल पड़ता है।

जब वह घर की देहरी पर थमा तो पाया माँ सो रही है।

एक बोरे पर सुशीला सोई हुई थी। सिर के पास ही लुढ़क कर गिर पड़ी थी, कोई पुस्‍तक! शांत, सुकोमल मुख निद्रा-मग्‍न था। आँखे मुँदी हुई थीं जिन पर कमल वार दिए जा सकते हैं। चेहरे पर कोमलतापूर्ण स्निग्‍ध माधुर्य के शांत-निर्मल सरोवर के अचंचल जलप्रसार-सा पड़ा हुआ झीना नीलम चाँदनी की प्रसन्‍नता के समान दिखलाई देता था। अस्‍तव्‍यस्‍तता के कारण गोरा पतला पेट खुला दिखलाई देता था और वह उसी तरह पवित्र सुंदर मालूम होता था, जैसे दो सघन श्‍यामल बादलों के बीच में प्रकाशमान चंद्र पैर उघाड़े फैले हुए थे मुक्‍त, जैसे जंगल में कभी-कभी बदली के लाल फूल वृक्ष की मर्यादा छोड़ कर टेढ़े-मेढ़े रास्‍ते से होते हुए हरी घास के ऊपर अपने को ऊँचा कर देते हैं, फैला देते हैं। ऐसी यह सुशीला, गरिमा और स्‍त्रीसुलभ कोमलता से पूर्ण सोई हुई थी। उसके भाल पर सौभाग्‍य-कुंकुम नहीं था। उसके स्‍थान पर गोदा हुआ छोटा नीला-सा दाग जरूर दिखलाई देता था, और वह अपने कमनीय तारुण्य में वैधव्‍य लिए हुए उसी तरह दिखलाई देती थी जैसे विस्‍तृत रेगिस्‍तान में फैली हुई, ठिठुरते हुए शीतकाल में पूर्णिमा की चाँदनी।

लड़के ने माँ को देखा कि यह वही पेट है, यह वही गोद है। उसके स्‍नेह-माधुर्य की उष्‍णता कितनी स्‍पृहणीय है!

और वह प्रश्‍न अधिक कटु हो कर, दाहक हो कर, दुर्दम हो कर उसे बाध्‍य करने लगा। वह अपनी प्रेममयी माता से घृणा करे या प्रेम करे! यह प्‍यारी-प्‍यारी गोद, यह गरम-गरम स्‍नेह-भरा पेट जिसमें वह नौ महीने रहा - क्‍या उससे घृणा करनी ही पड़ेगी? पर उफ! यदि उसको संतोष हो जाए कि माँ ऐसी नहीं है, कि वह पवित्र है, यदि वह स्‍वयं इतना कह दे कि कहनेवाले लोग गलत कहते हैं - हाँ वे गलत कहते हैं - तो उसे संतोष हो जाएगा! वह जी जाएगा! उसकी प्‍यारी-प्‍यारी माँ और वह!

एक-दो मिनट वह वैसा ही खड़ा रहा। और फिर वह उसके पास गया और उसके पेट पर सिर रख दिया। न जाने कहाँ से उसकी रुलाई आने लगी और वह रोने लग गया! लोगों के किए हुए अपमान, व्‍यंग्‍य का दु:ख बहने लगा। पर वह तब तक ही था जब तक माँ सो रही थी। वह चाहता था कि वह सोई ही रहे कि तब तक वह उस गोद को अपनी गोद समझ सके, जिस गोद में उसने आश्रय पाया है।

लड़के के गरम आँसुओं के स्‍पर्श से सुशीला जाग उठी। देखा तो नरेंद्र गोद में रो रहा है। उसे आश्‍चर्य हुआ, स्‍नेह भर आया। उसको पुचकारा और पूछा, 'क्‍यों? स्‍कूल से इतनी जल्‍दी कैसे आए, अभी तो ढाई भी नहीं बजा है।'

जैसे ही माँ जगी, नरेंद्र का रोना थम गया। न जाने कहाँ से उसके हृदय में कठोरता उठ आई जैसे पानी में से शिला ऊपर उठ आई हो और भयानक दाहक प्रश्‍नमयी ज्‍वाला उसके मन को जलाने लगी। सुशीला ने नरेंद्र के गालों पर हलकी थप्‍पड़ जमाते हुए कहा, 'बोलो न?'

और नरेंद्र गुम-सुम! उसके गाल न जाने किस शर्म से लाल हो रहे थे, आँखे जल रही थीं।

नरेंद्र माँ की गोद में ही पड़ा था पर उसका उसे अनुभव नहीं हो रहा था।

'माँ,' उसने कठोर, काँपते-सकुचाते हुए पूछा।

सुशीला शंकातुर हो उठी 'क्‍या?'

'सच कहोगी?' उसने दृढ़ स्‍वर में पूछा।

सुशीला ने अधिक उद्विग्‍न हो कर कहा, 'क्‍या है? बोल जल्‍दी।'

नरेंद्र ने धीरे-धीरे गोद में से अपना लाल मुँह निकाला और माँ की ओर देखा। उसका वही, कुछ उद्विग्‍न पर स्मितमय, सुकोमल चेहरा! मानो वह अमृत वर्षा कर रही हो। आशा का ज्‍वार उमड़ने लगा! तो वह मेरी ही माता रहेगी।

उसने फिर कहा, 'सच कहोगी, सचमुच!'

'हाँ रे!'

'माँ, तुम पवित्र हो? तुम पवित्र हो, न?'

सुशीला को कुछ समझ में नहीं आया, बोली, 'मानी?'

नरेंद्र ने विचित्र दृष्टि से देखा। और सुशीला का आकलनशील मुख स्‍तब्‍ध हो गया। निर्विकार हो गया। गट्ठर हो गया। उसकी जाँघ, जिस पर नरेंद्र पड़ा हुआ था, सुन्‍न पड़ गई। उसे मालूम ही नहीं हुआ कि कोई वजनदार वस्‍तु नरेंद्र नाम की उसकी गोद में पड़ी है।

उसने नरेंद्र को एक ओर खिसका दिया और चुपचाप आँखों में हिम्‍मत ले कर उठी, जैसे दीवार पर छाया उठती हुई दीखती है, जिसकी अपनी कोई गति नहीं है। उसके हृदय में एक तूफान, जीवन का एक आवेग उठ खड़ा हुआ। मानो वह वेगवान बवंडर जिसमें धूल, कचरा, कागज, पत्‍ते, कंकर-काँटे सब छूट पड़ते हैं। और वह उसी प्रवाह से शासित हो कर उठ खड़ी हुई और चली गई अंदर, घर के अंदर मानो खूब धूप में पानी के ऊपर से उठता हुआ वाष्‍प-पुंज लहरा कर आसमान में खो जाता है।

नरेंद्र की नैया मानो इस महासागर में डूब गई। उसके जहाज के टुकड़े-टुकड़े हो गए उसी के सामने। वह क्रंदनविह्वल हो कर रोना चाहने लगा खूब ऊँचे स्‍वर से कि आसमान भी फट जाए, धरती भी भग्‍न हो जाए! वह ऊँचे स्‍वर में पुकारने लगा, 'माँ' मानो कोई यात्री टूटे हुए जहाज के एक तख्‍ते से लग कर जो कि उसके हाथ से कभी भी छूट सकता है, घनघोर लहराते हुए समुद्र में अपनी रक्षा के लिए चिल्‍ला उठता है! मरणदेश से वह जीवन के लिए कातर-पुकार!

पर यह सत्‍यानाश उसके हृदय के अंदर ही हुआ और उसका नि:सहाय रोदन स्‍वर भी उसके हृदय में। बाहर से वह फटी हुई आँखों से संसार को देख रहा था। क्‍या यह उसके प्रश्‍न का जवाब था? व‍ह सिपिट गया, ठिठुर गया जैसे संसार में उसे स्‍थान नहीं है। और एक कोने में मुँह ढाँप कर वह सिसकने लगा।

सुशीला अंदर चली गई जहाँ सामान रखा जाता है। वहाँ बैठ गई एक डिब्‍बे पर। कमरे में सब दूर शांत अंधकार था।

अरे, यह लड़का क्‍या पूछ बैठा। कौन-से पुराने घाव की अधूरी चमड़ी उसने खींच ली? वह क्‍या जवाब दे जब कि वह स्‍वयं ही प्रश्‍न लाई है। यही तो है जिसका जवाब वह चाहती है दुनिया से; सबसे?

और सुशीला की आँखों के सामने एक पुरानी तसवीर खिंच आई। तब नरेंद्र का जन्‍म हुआ था एक गाँव में। एक अँधेरा कमरा जिसको सावधानी से बंद कर दिया गया था चारों ओर से ताकि हवा न आ सके। सुशीला खाट पर शिथिल पड़ी थी। तब वह सोलह बरस की थी और पास ही में शिशु नरेंद्र और 'वे' दरवाजे के सामने खड़े थे। हाँ, 'वे' जिनकी घुँघराली मूँछों में मुसकान समा नहीं रही थी। वे प्रसन्‍न थे। वे चालीस वर्ष पार कर रहे थे, तो क्‍या हुआ। वे बड़े प्रेम से सुशीला से बरतते थे। बहुत हृदय से उन्‍होंने सुशीला के स्‍त्रीत्‍व को सँभाला। उस पर अपना आरोप नहीं होने दिया।

एक समय की बात है कि वे बहुत खुश थे। न जाने क्‍यों? वे बिस्‍तर पर लेटे हुए थे। नरेंद्र पास ही खेल रहा था। सुशीला उनके पास बैठी हुई थी। तब एकाएक न जाने किस भावनावश दु:खी होते हुए कहा, 'सुशी, मैंने तुम्‍हें बहुत दु:ख दिया है।' और वे यथार्थ दु:ख से दु:खी मालूम दिए।

'क्‍यों, क्‍या?'

'मैं तुमको सुख नहीं दे सका?'

'ऐसा मत कहो।'

'नहीं सुशीले, मैं अपने को धोखा नहीं दे सकता। मैंने तुम्‍हारे प्रति बहुत बड़ा अपराध किया है।'

'हो क्‍या गया है तुम्‍हें आज - तुम ऐसा मत कहो, नहीं तो मैं रूठ जाऊँगी।' और सुशीला हँस पड़ी। लेकिन 'वे' नहीं हँसे।

वे कहते चले। मुझे तुमसे विवाह नहीं करना था, तुमको एक सलोना युवक चाहिए था, जिसके साथ तुम खेल सकतीं, कूद सकतीं। और वे सुशीला के पास सरक आए, उसकी मोह-भरी गोद में लुढ़क पड़े। अपना मुँह छिपा लिया उसमें। शायद, वे रो रहे थे, न जाने किस रुदन से, सुख के या दु:ख के। पर सुशीला का स्‍नेहमय हाथ उनकी पीठ पर फिर रहा था। इतने प्रौढ़, पर इतने बच्‍चे! इतने गंभीर पर इतने आकुल! और सुशीला के हृदय में वह क्षण एक मधुर सरोवर की भाँति सुखद लहरा रहा था।

आज अपवित्रा सुशीला की आँखों में य‍ह चित्र मेघों की भाँति घुमड़ कर हृदय में श्रावण-वर्षा कर रहा है। इतना विश्‍वस्‍त सुख उसे फिर कब मिला था? जीवन के कुछ क्षण ऐसे ही होते हैं, जो जन्‍म-भर याद रहते हैं। उनके अपने एक विशेष महत्‍वरूपी प्रकाश से वे नित्‍य चमकते रहते हैं।

और न मालूम किस घड़ी 'वे' बीमार पड़ गए। उनकी विशाल शक्तिहीन देह मरणासन्‍न हो गई। वह दृश्‍य सुशीला की आँखों में तैर आया। मरणशैया पर पड़े हुए पति, अँधेरे कमरे में उपचार करनेवाली केवल एक सुशीला और नरेंद्र! फिर वही दृश्‍य, पर कितना बदला हुआ! वही एकांत पर कितना अलग! और पति कह रहे हैं, 'मैंने तुम्‍हारे प्रति अपराध किया है, मैं चला; नरेंद्र को सँभालना।' और नरेंद्र को बुलाते हैं, सुशीला नरेंद्र को पकड़ कर उनके मुँह के सामने रख देती है। वे चूमने की कोशिश करते हैं और उनकी आँखों से आँसू झर पड़ते हैं और फिर वे सुशीला को कहते हैं, 'मैंने तुम्‍हारा अपराध किया है।' और सुशीला रोती हुई 'नहीं-नहीं' कहती है, समझाने की कोशिश करती है और वे कहते हैं, 'नरेंद्र को सँभालना।' इतने में मामा आ जाते हैं। सुशीला हट जाती है।

अंतिम क्षण! पति के अंतिम श्‍वास की घर्राहट! और सुशीला का हृदय भग्‍न, फिर ऊँचा रोदन स्‍वर! मानो अब वह आसमान को फाड़ देगा!

वे कितने अच्‍छे थे! कितने स्‍नेहमय! कितने गंभीर! कितने कोमल!

और अपवित्रा सुशीला फिर से दहाड़ मार कर रो पड़ती है। क्‍या उनको कभी यह मालूम था कि सुशीला को आगे कितना कष्‍ट सहना पड़ेगा।

यदि आज 'वे' होते, चाहे जैसे भी हो, तो क्‍या इतना दु:ख होता। कितनी सुरक्षित होती वह! मजाल होती किसी की कि कोई कुछ कह ले। उन्‍हीं तीस रूपयों में वह अपनी गरीबी का सुख भोगती।

परंतु विधि किसके इच्‍छानुसार चलता है? जब सुख बदा नहीं है, तो कहाँ से मिलेगा!

घर के ठीकरे, कुछ सोना-चाँदी की वस्‍तुएँ बेच-बाच कर... और उसके जीवन में - विधवा के जीवन में अचानक उसका आना - एक का आना!

और रोती हुई सुशीला के सामने एक दृश्‍य आता है! दुपहर! नरेंद्र सात वर्ष का है। वह एक का स्‍वेटर बुन रही है जिसके चार रुपए मिलेंगे। सारा ध्‍यान उसकी एक-एक सीवन में लग रहा है। बाहर दुपहर फैली हुई है, भयानक!

उस समय नरेंद्र आता है, कहता है 'काका' आए हैं। काका पड़ोस में रहते हैं। एक तरुण है, अर्धशिक्षित और वह खेलने चला जाता है।

वे आते हैं अत्‍यंत नम्र, शालीन! क्‍यों? कुछ मालूम नहीं है? शायद वे उसके स्‍वर्गीय पति के कोई लगते हैं!

पर जब वे चले जाते हैं तब उसका हृदय उनकी सहानुभूति से आर्द्र हो जाता है। उनकी मानवतामय उदारता उसके हृदय को छू जाती है। वह उनका आदर करने लगती है। वे उसके पूज्‍य हो उठते हैं।

उनकी स्‍त्री होती है। रूग्‍णा! ईमानदार! और एक बच्‍चा सुधीर।

अब सुशीला उनके यहाँ आने-जाने लगी है। पति को इतनी फुर्सत नहीं होती है कि वह हमेशा बैठा रहे, स्‍त्री के पास। सुशीला उनकी सेवा करती है। नरेंद्र सुधीर के साथ खेलता हैं

ऐसे भी दिन थे। बहुत अच्‍छे दिन थे। निकल गए। निकल जानेवाले थे! और वह समय आया जहाँ जीवन की सड़क बल खा कर घूम गई और वहाँ एक मील का पत्‍थर लग गया कि जीवन अब यहाँ तक आ गया है।

वह मील का पत्‍थर था काका की स्‍त्री का मरना! कई दिनों के बाद जब सुशीला नरेंद्र को ले कर उनके यहाँ गई तो सुधीर उनके पास खड़ा था।

वे रो पड़े। सुशीला चुपचाप बैठी रही। क्‍या कहती वह? वे और सुधीर, सुशीला और नरेंद्र! क्‍या ही अजब जोड़ा था!

सुशीला जब लौटी तो सोच रही थी कि मुझे उनके पड़ोस में ही जा कर रहना चाहिए, जिससे कि उन्‍हें दिलासा हो और उनकी जिंदगी आराम से कटने लगे।

वह कितनी सुखमय पवित्र भूमि थी जिस पर उन दोनों का स्‍नेह आ टिका था। वे दोनों आमने-सामने बैठ जाते - बीच में चाय का ट्रे और दोनों बच्‍चे!

वे कब एक-दूसरे की बाँहों में आ गए, इसका उनको स्‍वयं पता नहीं चला! भले ही वे अलग-अलग रहते हों, पर वे एक-दूसरे के सुख-दु:ख में कितने अधिक साथी थे।

और अपवित्रा सुशीला सोच रही है अपने अँधेरे कमरे में कि उन्‍होंने मेरे जीवन की दोपहर में अपनी सहानुभूति का गीलापन दिया। फिर प्रेम दिया। मैं भीग उठी, उनसे प्रेम किया और न जाने कब तन भी सौंप दिया! उन दोनों का घर एक हो गया।

और एक रात!

दोनों बच्‍चे सो रहे थे। वह उनके लिए जाग रही थी। उसकी आँखे नहीं लगती थीं। वे आ गए अपने सारे तारुण्य में मस्‍त।

और जब वह उनके विह्वल आलिंगन में बिंध गई तो अचानक सुशीला को अपने पतिदेव का खयाल आया। उनका स्‍नेहाकुल मुख कह रहा था, 'तुमको सलोना युवक चाहिए था!'

उस वक्‍त सुशीला ने कहा था, 'नहीं' 'नहीं'।

पर आज वह कह रही थी, 'हाँ' 'हाँ'। और वह अधिक गाढ़ हो कर उन पर छा गई। पति का खयाल उसे फिर भी था।

आज अपवित्रा सुशीला आँखों में आँसू ले कर और हृदय में ज्‍वार ले कर सोच रही है कि उसे अपने जीवन में कहीं भी तो विसं‍गति मालूम नहीं हो रही है। फिर उसके पति को भी विसंगति कैसे मालूम होती। एक सिरा 'पति' है, दूसरा सिरा 'काका'! पर इन दोनों सिरों में खोजते हुए भी विरोध नहीं मिल रहा है। वह उस सिरे से इस सिरे तक दौड़ती है - इस सिरे से उस सिरे तक। पर सब दूर एक स्‍वाभाविक चिकनाहट! फिर वह किस तरह अपवित्र हुई। यह भी कोई समझाए। उसकी शुद्ध सरल आत्‍मा में कैसे अपवित्रता आ लगी?

यह सुशीला का प्रश्‍न है? कोई उत्‍तर दे सकता है? कमरे में वैसे ही अँधेरा है। बाहर नरेंद्र बैठा होता। दुपहर ढल रही है।

सुशीला अंदर उद्विग्‍न है। सोच रही है कि मान लो किसी स्‍त्री का पति इतना उदार न होता, जैसे मेरे थे तो भी क्‍या 'काका' सरीखे पुरुष के साथ वह अपवित्र हो जाती! क्‍या वह सब हृदय का धागा, जिसमें भाग्‍य के रंग बुने हुए हैं, अपवित्र हो गया? तो फिर पवित्र कौन है?

और सुशीला की आँखों के सामने एक चित्र आया! स्‍वर्ग में ईश्‍वर अपने सिंहासन पर बैठा है! न्‍याय हो रहा है! सब लोग चुपचाप खड़े हैं! सुशीला आती है। उसके हाथ-पैर जकड़ दिए गए हैं, उसी के समान दूसरी हजारों स्त्रियाँ आती हैं! ईश्‍वर पूछता है, 'ये कौन हैं?'

हवलदार कहता है, 'अपवित्रा स्त्रियाँ।'

सुशीला पूछ बैठती है, 'तो फिर पवित्र कौन हैं?' ईश्‍वर के एक ओर पवित्र लोग श्‍वेत-वस्‍त्र परिधान किए हुए कुरसियों की कतार पर बैठे हैं।

क्रोधपूर्वक ईश्‍वर उनसे पूछता है, 'क्‍या तुम सचमुच पवित्र हो?' सभी लोग ईश्‍वराज्ञानुसार अपने अंदर देखने लगते हैं; पर वे पवित्र कहाँ थे!

सुशीला चिल्‍ला उठती है उन्‍मादपूर्वक, उनको कुरसियों पर से हटाया जाए।

चित्र चला जाता है। सुशीला को नरेंद्र का खयाल आता है। वह बाहर बैठा होगा! उसको लड़के छेड़ते होंगे। बात तो कब की फैल गई है। उफ, उसका भविष्‍य! नहीं मुझे उसी के भविष्‍य की चिंता है!

और सुशीला के हृदय में कटुता, चिंता, विषाद भर आता है।

हम दोनों साथ-साथ, पास-पास बैठते हैं, पर अब तक तो उसने कभी भी ऐसा नहीं किया। उसने तो उसे स्‍वाभाविक मान लिया। उसकी सारी सहज पवित्रता की सरलता को उसने स्‍वीकार कर लिया।

फिर यह कैसा प्रश्‍न? कैसी महती विडंबना है! और मेरे प्रश्‍न का उत्‍तर कौन दे सकता है। है हिम्‍मत किसी में...?

इतने में नरेंद्र के साथ बहुत कुछ हो गया। काका चले आए। वे पढ़ते हुए बैठे रहे। नरेंद्र घृणा से जल रहा था। वे कुछ पूछते तो उन्‍हें वह काट खाता। यही तो है वह पुरुष जिसने उससे, उसकी माता को छीन लिया।

भाग्‍य था कि काका वहाँ से चले गए। नरेंद्र सोच रहा था कि वह उन्‍हें मार डालेगा। पर वह चले गए तो आत्‍महत्‍या करने की सोचने लगा। वह फौरन जा कर अपनी जान दे देगा। उफ, तीन घंटे कितने घोर हैं।

माँ न जाने किस दु:ख से शिथिल-सी चली आई। उसका चेहरा तप्‍त था, हृदय जल रहा था। पर उसमें आँसुओं की बाढ़ आ रही थी।

नरेंद्र मुँह ढाँपे बैठा हुआ था।

सुशीला उसके पास चली गई। एकदम उसको अपनी गोद में ले लिया। उसकी आँखों से जल-धारा बरसने लगी और वह जोर-जोर से चुंबन लेने लगी। नरेंद्र ने देखा जैसे उसकी माँ उसे फिर मिल गई हो; पर वह खोई ही कहाँ थी? फिर भी वह कुंठित था, अकड़ा ही रहा।

सुशीला अतिलीन हो बोली, 'तुम मुझे क्‍या समझते हो नरेंद्र?'

नरेंद्र सोचता रहा। उसकी जबान पर आ गया, पवित्र; पर कहा नहीं; उसकी गोद में चिपक गया और उसके आँसू सहस्‍त्र धारा में प्रवाहित होने लगे। युग-युग का दु:ख बहने लगा। तब वे सच्‍चे माँ-बेटे थे।

सुशीला ने डरते-डरते पूछा, 'तुम उनको, 'काका' को गैर समझते हो? साफ कहो!'

नरेंद्र ने सोचा; कहा, 'नहीं।'

सुशीला ने पूछा, 'नहीं न!' और उसका मुँह नरेंद्र के मन में समाया हुआ था।

सुशीला ने रोते हुए कहा, 'तुम कभी उनको तकलीफ मत देना... अँ।'

नरेंद्र ने कहा, 'नहीं, माँ।'

सुशीला स्थिर हो गई। जाने किस हवा से मेघ आकाश से भाग गए।

वह तीव्र हो बोली, 'तो मैं अपवित्र कैसे हुई!' नरेंद्र के सामने वे सब लड़के, दूसरे लोग आने लगे, जो उसे इस तरह छेड़ते हैं। उसने त्रस्‍त हो कर कहा, 'लोग कहते हैं।'

सुशीला और भी तीव्र हो गई। बोली, 'तो तुम उनसे जा कर क्‍यों नहीं कहते, बुलंद आवाज में कि मेरी माँ ऐसी नहीं है।'

नरेंद्र ने कहा, 'वे मुझे छेड़ते हैं, मुझे तंग करते हैं, मैं स्‍कूल नहीं जाऊँगा।'

'तुम बुजदिल हो।'

और यह शब्‍द नरेंद्र के हृदय में तीक्ष्‍ण पत्‍थर के समान जा लगा। वह बच्‍चा तो था लेकिन तिलमिला उठा। उसे भूला नहीं। अमूल्‍य निधि की भाँति उस घाव के सत्‍य को उसने छिपा रखा।

और मैं एक दिन पाता हूँ कि नरेंद्र कुमार एक कलाकार हो गया है। मैं एक गाँव में मास्‍टरी करता हूँ पंद्रह रुपए की, सुशीला मर गई है। पर मैं यहीं दुनिया के आसमान में एक कृपाण की भाँति तेजस्‍वी उल्‍का का प्रकाश छाया हुआ देख रहा हूँ, जिसकी पूजा सब लोग कर रहे हैं। मुझे बाद में मालूम हुआ कि यह नरेंद्र कुमार का प्रकाश है। सुशीला की जन्‍मभूमि, हमारा गाँव, धन्‍य है!

~गजानन माधव

पागल

पुरुष : "तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुंदर हो जाती है।" स्त्री : "जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों ...