Saturday 24 February 2018

तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता.

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता.

तिरे वा’दे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना,
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए’तिबार होता.

तिरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अहद बोदा,
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता.

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को,
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता.

ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह,
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता.

रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता,
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता.

ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है,
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता.

कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता.

हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया,
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता.

उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता,
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता.

ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता.

~मिर्ज़ा ग़ालिब


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