Saturday 31 March 2018

हमारे समय में

हमारे समय में
क्रांति भी एक फैशन है
सत्य, अहिंसा, करुणा
और दलितोद्धार
स्त्री-विमर्श
और गाँव के प्रति
जिम्मेदारी।
हमारे समय में
भक्ति भी एक फैशन है
सत्संग,
ईश्वर
और सहविचार।
प्रेम और मोह
सभी फैशन की तरह
यहाँ तक कि गांधीवाद
यथार्थवाद
अंतिम व्यक्ति की चिंता
और लाचारी।
हमारा समय
कुछ मुहावरों में
जिंदा है
सबको प्रोडक्ट की तरह
बेच रहा है
हर तरह के शुभ के लिए
एक दिन है
मदर डे
फादर डे
प्रेम दिवस
हिंदी दिवस
और जाने कितने 'डे'
और जाने कितने दिवस।
शांति
सद्भावना
और मैत्री
सब मुहावरों में
तब्दील हो गए हैं।
सब कुछ छपे हुए
जीवन की तरह है।
आदमी कुछ शब्दों में
शब्द कुछ अंकों में
अंक कुछ
वेबसाइट में
सूचनाओं में बदल गए हैं।
हमारे समय का आदमी
आदमी नहीं है
वह केवल संसाधन है
किसके लिए
हमारा समय
इसे जानता है
हम जो आदमी हैं
वे ही नहीं जानते।
हम अपने समय में हैं
यह एक अनुभव नहीं
एक खबर है
जो छप जाता है
और हम जान जाते हैं कि
हम हैं।
हम अपने समय की कोई
व्याख्या नहीं कर सकते।
सिर्फ उसमें हो सकते हैं
हमारी छोटी-बड़ी
एक कीमत है
जिसे देकर कोई भी
हमें खरीद सकता है।
हम अपने समय के ब्रह्मांड में
एक कोड हैं
एक बटन हैं
जिस पर उँगली पड़ते ही
हम जीने लगते हैं
और खेलने लगते हैं
और एक बटन से
हमारा जीवन बंद हो जाता है।

~अनंत मिश्र

Friday 30 March 2018

फैसला

उन दिनों हीरालाल और मैं अक्सर शाम को घूमने जाया करते थे। शहर की गलियाँ लाँघ कर हम शहर के बाहर खेतों की ओर निकल जाते थे। हीरालाल को बातें करने का शौक था और मुझे उसकी बातें सुनने का। वह बातें करता तो लगता जैसे जिंदगी बोल रही है। उसके किस्से-कहानियों का अपना फलसफाना रंग होता। लगता जो कुछ किताबों में पढ़ा है सब गलत है, व्यवहार की दुनिया का रास्ता ही दूसरा है। हीरालाल मुझसे उम्र में बहुत बड़ा तो नहीं है लेकिन उसने दुनिया देखी है, बड़ा अनुभवी और पैनी नजर का आदमी है।

उस रोज हम गलियाँ लाँघ चुके थे और बाग की लंबी दीवार को पार कर ही रहे थे जब हीरालाल को अपने परिचय का एक आदमी मिल गया। हीरालाल उससे बगलगीर हुआ, बड़े तपाक से उससे बतियाने लगा, मानों बहुत दिनों बाद मिल रहा हो।

फिर मुझे संबोधन करके बोला, 'आओ, मैं तुम्हारा परिचय कराऊँ... यह शुक्ला जी हैं...'

और गद‌गद आवाज में कहने लगा, 'इस शहर में चिराग ले कर भी ढूँढ़ने जाओ तो इन-जैसा नेक आदमी तुम्हें नहीं मिलेगा?'

शुक्ला जी के चेहरे पर विनम्रतावश हल्की-सी लाली दौड़ गई। उन्होंने हाथ जोड़े और एक धीमी-सी झेंप-भरी मुस्कान उनके होंठों पर काँपने लगी।

'इतना नेकसीरत आदमी ढूँढ़े भी नहीं मिलेगा। जिस ईमानदारी से इन्होंने जिंदगी बिताई है मैं तुम्हें क्या बताऊँ। यह चाहते तो महल खड़े कर लेते, लाखों रुपया इकट्ठा कर लेते...'

शुक्ला जी और ज्यादा झेंपने लगे। तभी मेरी नजर उनके कपड़ों पर गई। उनका लिबास सचमुच बहुत सादा था, सस्ते से जूते, घर का धुला पाजामा, लंबा बंद गले का कोट और खिचड़ी मूँछें। मैं उन्हें हेड क्लर्क से ज्यादा का दर्जा नहीं दे सकता था।

'जितनी देर उन्होंने सरकारी नौकरी की, एक पैसे के रवादार नहीं हुए। अपना हाथ साफ रखा। हम दोनों एक साथ ही नौकरी करने लगे थे। यह पढ़ाई के फौरन ही बाद कंपटीशन में बैठे थे और कामयाब हो गए थे और जल्दी ही मजिस्ट्रेट बन कर फीरोजपुर में नियुक्त हुए थे। मैं भी उन दिनों वहीं पर था...'

मैं प्रभावित होने लगा। शुक्ला जी अभी लजाते हाथ जोड़े खड़े थे और अपनी तारीफ सुन कर सिकुड़ते जा रहे थे। इतनी-सी बात तो मुझे भी खटकी कि साधारण कुर्ता-पाजामा पहनने वाले लोग आम तौर पर मजिस्ट्रेट या जज नहीं होते। जज होता तो कोट-पतलून होती, दो-तीन अर्दली आसपास घूमते नजर आते। कुर्ता-पाजामा में भी कभी कोई न्यायाधीश हो सकता है?

इस झेंप-विनम्रता-प्रशंसा में ही यह बात रह गई कि शुक्ला जी अब कहाँ रहते हैं, क्या रिटायर हो गए हैं या अभी भी सरकारी नौकरी करते हैं और उनका कुशल-क्षेम पूछ कर हम लोग आगे बढ़ गए।

ईमानदार आदमी क्यों इतना ढीला-ढाला होता है, क्यों सकुचाता-झेंपता रहता है, यह बात कभी भी मेरी समझ में नहीं आई। शायद इसलिए कि यह दुनिया पैसे की है। जेब में पैसा हो तो आत्म-सम्मान की भावना भी आ जाती है, पर अगर जूते सस्ते हों और पाजामा घर का धुला हो तो दामन में ईमानदारी भरी रहने पर भी आदमी झेंपता-सकुचाता ही रहता है। शुक्ला जी ने धन कमाया होता, भले ही बेईमानी से कमाया होता, तो उनका चेहरा दमकता, हाथ में अँगूठी दमकती, कपड़े चमचम करते, जूते चमचमाते, बात करने के ढंग से ही रोब झलकता।

खैर, हम चल दिए। बाग की दीवार पीछे छूट गई। हमने पुल पार किया और शीघ्र ही प्रकृति के विशाल आँगन में पहुँच गए। सामने हरे-भरे खेत थे और दूर नीलिमा की झीनी चादर ओढ़े छोटी-छोटी पहाड़ियाँ खड़ी थीं। हमारी लंबी सैर शुरू हो गई थी।

इस महौल में हीरालाल की बातों में अपने आप ही दार्शनिकता की पुट आ जाती है। एक प्रकार की तटस्थता, कुछ-कुछ वैराग्य-सा, मानो प्रकृति की विराट पृष्ठभूमि के आगे मानव-जीवन के व्यवहार को देख रहा हो।

थोड़ी देर तक तो हम चुपचाप चलते रहे, फिर हीरालाल ने अपनी बाँह मेरी बाँह में डाल दी और धीमे से हँसने लगा ।

'सरकारी नौकरी का उसूल ईमानदारी नहीं है, दफ्तर की फाइल है। सरकारी अफसर को दफ्तर की फाइल के मुताबिक चलना चाहिए।'

हीरालाल मानो अपने आप से बातें कर रहा था। वह कहता गया, 'इस बात की उसे फिक्र नहीं होनी चाहिए कि सच क्या है और झूठ क्या है, कौन क्या कहता है। बस, यह देखना चाहिए कि फाइल क्या कहती है।'

'यह तुम क्या कह रहे हो?' मुझे हीरालाल का तर्क बड़ा अटपटा लगा, 'हर सरकारी अफसर का फर्ज है कि वह सच की जाँच करे, फाइल में तो अंट-संट भी लिखा रह सकता है।'

'न, न, न, फाइल का सच ही उस के लिए एकमात्र सच है। उसी के अनुसार सरकारी अफसर को चलना चाहिए, न एक इंच इधर, न एक इंच उधर। उसे यह जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि सच क्या है और झूठ क्या है, यह उसका काम नहीं...'

'बेगुनाह आदमी बेशक पिसते रहें?'

हीरालाल ने मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। इसके विपरीत मुझे इन्हीं शुक्ला जी का किस्सा सुनाने लगा। शायद इन्हीं के बारे में सोचते हुए उसने यह टिप्पणी की थी।

'जब यह आदमी जज हो कर फीरोजपुर में आया, तो मैं वहीं पर रहता था। यह उसकी पहली नौकरी थी। यह आदमी सचमुच इतना नेक, इतना मेहनती, इतना ईमानदार था कि तुम्हें क्या बताऊँ। सारा वक्त इसे इस बात की चिंता लगी रहती थी कि इसके हाथ से किसी बेगुनाह को सजा न मिल जाए। फैसला सुनाने से पहले इससे भी पूछता, उससे भी पूछता कि असलियत क्या है, दोष किसका है, गुनहगार कौन है? मुलजिम तो मीठी नींद सो रहा होता और जज की नींद हराम हो जाती थी। ...अगर मैं भूल नहीं करता तो अपनी माँ को इसने वचन भी दिया था कि वह किसी बेगुनाह को सजा नहीं देगा। ऐसी ही कोई बात उसने मुझे सुनाई भी थी।

'छोटी उम्र में सभी लोग आदर्शवादी होते हैं। वह जमाना भी आदर्शवाद का था,' मैंने जोड़ा।

पर हीरालाल कहे जा रहा था, 'आधी-आधी रात तक यह मिस्लें पढ़ता और मेज से चिपटा रहता। उसे यही डर खाए जा रहा था कि उससे कहीं भूल न हो जाए। एक-एक केस को बड़े ध्यान से जाँचा करता था।'

फिर यों हाथ झटक कर और सिर टेढ़ा करके मानो इस दुनिया में सही क्या है और गलत क्या है, इसका अंदाज लगा पाना कभी संभव ही न हो, हीरालाल कहने लगा, 'उन्हीं दिनों फीरोजपुर के नजदीक एक कस्बे में एक वारदात हो गई और केस जिला कचहरी में आया। मामूली-सा केस था। कस्बे में रात के वक्त किसी राह-जाते मुसाफिर को पीट दिया गया था और उसकी टाँग तोड़ दी गई थी। पुलिस ने कुछ आदमी हिरासत में ले लिए थे और मुकदमा इन्हीं शुक्ला जी की कचहरी में पेश हुआ था। आज भी वह सारी घटना मेरी आँखों के सामने आ गई है... अब जिन लोगों को हिरासत में ले लिया गया था उनमें इलाके का जिलेदार और उसका जवान बेटा भी शामिल थे। पुलिस की रिपोर्ट थी कि जिलेदार ने अपने लठैत भेज कर उस राहगीर को पिटवाया है। जिलेदार खुद भी पीटनेवालों में शामिल था। साथ में उसका जवान बेटा और कुछ अन्य लठैत भी थे। मामला वहाँ रफा-दफा हो जाता अगर उस राहगीर की टाँग न टूट गई होती। मामूली मारपीट की तो पुलिस परवाह नहीं करती लेकिन इस मामले को तो पुलिस नजर‍अंदाज नहीं कर सकती थी। खैर, गवाह पेश हुए, पुलिस ने भी मामले की तहकीकात की और पता यही चला कि जिलेदार ने उस आदमी को पिटवाया है, और पीटनेवाले, राहगीर को अधमरा समझ कर छोड़ गए थे।

'तीन महीने तक केस चलता रहा।' हीरालाल कहने लगा, 'केस में कोई उलझन, कोई पेचीदगी नहीं थी, पर हमारे शुक्ल जी को चैन कहाँ? इधर जिलेदार के हिरासत में लिए जाने पर, हालाँकि बाद में उसे जमानत पर छोड़ दिया गया था, कस्बे-भर में तहलका-सा मच गया था। जिलेदार को तो तुम जानते हो ना। जिलेदार का काम मालगुजारी उगाहना होता है और गाँव में उसकी बड़ी हैसियत होती है। यों वह सरकारी कर्मचारी नहीं होता ।

'खैर! तो जब फैसला सुनाने की तारीख नजदीक आई तो शुक्ला जी की नींद हराम। कहीं गलत आदमी को सजा न मिल जाए। कहीं कोई बेगुनाह मारा न जाए। उधर पुलिस तहकीकात करती रही थी, इधर शुक्ला जी ने अपनी प्राइवेट तहकीकात शुरू कर दी। इससे पूछ, उससे पूछ। जिस दिन फैसला सुनाया जाना था उससे एक दिन पहले शाम को यह सज्जन उस कस्बे में जा पहुँचे और वहाँ के तहसीलदार से जा मिले। वह उनकी पुरानी जान-पहचान का था। उन्होंने उससे भी पूछा कि भाई, बताओ भाई, अंदर की बात क्या है, तुम तो कस्बे के अंदर रहते हो, तुमसे तो कुछ छिपा नहीं रहता है। अब जब तहसीलदार ने देखा कि जिला-कचहरी का जज चल कर उसके घर आया है, और जज का बड़ा रुतबा होता है, उसने अंदर की सही-सही बात शुक्ला जी को बता दी। शुक्ला जी को पता चल गया कि सारी कारस्तानी कस्बे के थानेदार की है, कि सारी शरारत उसी की है। उसकी कोई पुरानी अदावत जिलेदार के साथ थी और वह जिलेदार से बदला लेना चाहता था। एक दिन कुछ लोगों को भिजवा कर एक राह-जाते मुसाफिर को उसने पिटवा दिया, उसकी टाँग तुड़वा दी और जिलेदार और उसके बेटे को हिरासत में ले लिया। फिर एक के बाद एक झूठी गवाही। अब कस्बे के थानेदार की मुखालफत कौन करे? किसकी हिम्मत? तहसीलदार ने शुक्ला जी से कहा कि मैं कुछ और तो नहीं जानता, पर इतना जरूर जानता हूँ कि जिलेदार बेगुनाह है, उसका इस पिटाई से दूर का भी वास्ता नहीं।

'वहाँ से लौट कर शुक्ला दो-एक और जगह भी गया। जहाँ गया, वहाँ पर उसने जिलेदार की तारीफ सुनी। जब शुक्ला जी को यकीन हो गया कि मुकदमा सच॔मुच झूठा है तो उसने घर लौट कर अपना पहला फैसला फौरन बदल दिया और दूसरे दिन अदालत में अपना नया फैसला सुना दिया और जिलेदार को बिना शर्त रिहा कर दिया।

'उसी दिन वह मुझे क्लब में मिला। वह सचमुच बड़ा खुश था। उसे बहुत दिन बाद चैन नसीब हुआ था। बार-बार भगवान का शुक्र कर रहा था कि वह अन्याय करते-करते बच गया, वरना उससे बहुत बड़ा पाप होने जा रहा था। 'मुझसे बहुत बड़ी भूल हो रही थी। यह तो अचानक ही मुझे सूझ गया और मैं तहसीलदार से मिलने चला गया । वरना मैंने तो अपना फैसला लिख भी डाला था, उसने कहा।'

हीरालाल की बात सुन कर मैं सचमुच प्रभावित हुआ। अब मेरी नजरों में शुक्ला सस्ते जूतों और मैलों कपड़ों में एक ईमानदार इंसान ही नहीं था बल्कि एक गुर्देवाला, जिंदादिल और जीवटवाला व्यक्ति था। उसे बाग की दीवार के पास खड़ा देख कर जो अनुकंपा-सी मेरे दिल में उठी थी वह जाती रही और मेरा दिल उसके प्रति श्रद्धा से भर उठा। हमें सचमुच ऐसे ही लोगों की जरूरत है जो मामले की तह तक जाएँ और निर्दोष को आँच तक न आने दें।

खेतों की मेड़ों के साथ-साथ चलते हम बहुत दूर निकल आए थे। वास्तव में उस सफेद बुत तक जा पहुँचे थे जहाँ से हम अक्सर दूसरे रास्ते से मुड़ने लगते।

'फिर जानते हो क्या हुआ?' हीरालाल ने बड़ी आत्मीयता से कहा।

'कुछ भी हुआ हो हीरालाल, मेरे लिए इतना ही काफी है कि यह आदमी जीवटवाला और ईमानदार है। अपने उसूल का पक्का रहा।'

'सुनो, सुनो, एक उसूल जमीर का होता है तो दूसरा फाइल का।' हीरालाल ने दानिशमंदों की तरह सिर हिलाया और बोला, 'आगे सुनो... फैसला सुनाने की देर थी कि थानेदार तो तड़प उठा। उसे तो जैसे साँप ने डस लिया हो। चला था जिलेदार को नीचा दिखाने, उल्टा सारे कस्बे में लोग उसकी लानत-मलामत करने लगे। चारों ओर थू-थू होने लगी। उसे तो उल्टे लेने-के-देने पड़ गए थे।

'पर वह भी पक्का घाघ था उसने आव देखा न ताव, सीधा डिप्टी-कमिश्नर के पास जा पहुँचा। जहाँ डिप्टी-कमिश्नर जिले का हाकिम होता है, वहाँ थानेदार अपने कस्बे का हाकिम होता है। डिप्टी-कमिश्नर से मिलते ही उसने हाथ बाँध लिए, कि हुजूर मेरी इस इलाके से तबदीली कर दी जाए। डिप्टी-कमिश्नर ने कारण पूछ तो बोला, हुजूर, इस इलाके को काबू में रखना बड़ा मुश्किल काम है। यहाँ चोर-डकैत बहुत हैं, बड़े मुश्किल से काबू में रखे हुए हूँ। मगर हुजूर, जहाँ जिले का जज ही रिश्वत ले कर शरारती लोगों को रिहा करने लगे, वहाँ मेरी कौन सुनेगा। कस्बे का निजाम चौपट हो जाएगा। और उसने अपने ढंग से सारा किस्सा सुनाया। डिप्टी-कमिश्नर सुनता रहा। उसके लिए यह पता लगाना कौन-सा मुश्किल काम है कि किसी अफसर ने रिश्वत ली है या नहीं ली है, कब ली है और किससे ली है। थानेदार ने साथ में यह भी जोड़ दिया कि फैसला सुनाने के एक दिन पहले जज साहब हमारे कस्बे में भी तशरीफ लाए थे। डिप्टी-कमिश्नर ने सोच-विचार कर कहा कि अच्छी बात है, हम मिस्ल देखेंगे, तुम मुकद्दमे की फाइल मेरे पास भिजवा दो। थानेदार की बाँछें खिल गईं। वह चाहता ही यही था, उसने झट से फिर हाथ बाँध दिए, कि हुजूर एक और अर्ज है। मिस्ल पढ़ने के बाद अगर आप मुनासिब समझें तो इस मुकदमे की हाईकोर्ट में अपील करने की इजाजत दी जाए।

'आखिर वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। डिप्टी-कमिश्नर ने मुकदमे की मिस्ल मँगवा ली। शुरू से आखिर तक वह मुकद्दमे के कागजात देख गया, सभी गवाहियाँ देख गया, एक-एक कानूनी नुक्ता देख गया और उसने पाया कि सचमुच फैसला बदला गया है। कागजों के मुताबिक तो जिलेदार मुजरिम निकलता था। मिस्ल पढ़ने के बाद उसे थानेदार की यह माँग जायज लगी कि हाईकोर्ट में अपील दायर करने की इजाजत दी जाए। चुनाचे उसने इजाजत दे दी।

'फिर क्या? शक की गुंजाइश ही नहीं थी। डिप्टी कमिश्नर को भी शुक्ला की ईमानदारी पर संदेह होने लगा...'

कहते-कहते हीरालाल चुप हो गया। धूप कब की ढल चुकी थी और चारों ओर शाम के अवसादपूर्ण साए उतरने लगे थे। हम देर तक चुपचाप चलते रहे। मुझे लगा मानो हीरालाल इस घटना के बारे में न सोच कर किसी दूसरी ही बात के बारे में सोचने लगा है।

'ऐसे चलती है व्यवहार की दुनिया', वह कहने लगा, 'मामला हाईकोर्ट में पेश हुआ और हाईकोर्ट ने जिला-अदालत के फैसले को रद्द कर दिया। जिलेदार को फिर से पकड़ लिया गया और उसे तीन साल की कड़ी कैद की सजा मिल गई । हाईकोर्ट ने अपने फैसले मे शुक्ला पर लापरवाही का दोष लगाया और उसकी न्यायप्रियता पर संदेह भी प्रकट किया।

'इस एक मुकद्दमे से ही शुक्ला का दिल टूट गया। उसका मन ऐसा खट्टा हुआ कि उसने जिले से तबदीली करवाने की दरख्वास्त दे दी और सच मानो, उस एक फैसले के कारण ही वह जिले-भर में बदनाम भी होने लगा था। सभी कहने लगे, रिश्वत लेता है। बस, इसके बाद पाँच-छह साल तक वह उसी महकमे में घिसटता रहा, इसका प्रमोशन रुका रहा। इसीलिए कहते हैं कि सरकारी अफसर को फाइल का दामन कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए, जो फाइल कहे, वही सच है, बाकी सब झूठ है...'

अँधेरा घिर आया था और हम अँधेरे में ही धीमे-धीमे शहर की ओर लौटने लगे थे। मैं समझ सकता हूँ कि शुक्ला के दिल पर क्या बीती होगी और वह कितना हतबुद्धि और परेशान रहा होगा। वह जो न्यायप्रियता का वचन अपनी माँ को दे कर आया था।

'फिर? फिर क्या हुआ? जजी छोड़ कर शुक्ला जी कहाँ गए?'

'अध्यापक बन गया, और क्या? एक कालिज में दर्शनशास्त्र पढ़ाने लगा। सिद्धांतों और आदर्शों की दुनिया में ही एक ईमानदार आदमी इत्मीनान से रह सकता है। बड़ा कामयाब अध्यापक बना। ईमानदारी का दामन इसने अभी भी नहीं छोड़ा है। इसने बहुत-सी किताबें भी लिखी हैं। बढ़िया से बढ़िया किताबें लिखता है, पर व्यवहार की दुनिया से दूर, बहुत दूर...'

~ भीष्म साहनी

Tuesday 27 March 2018

एक छोटा-सा मजाक

सरदियों की ख़ूबसूरत दोपहर... सरदी बहुत तेज़ है। नाद्या ने मेरी बाँह पकड़ रखी है। उसके घुंघराले बालों में बर्फ़ इस तरह जम गई है कि वे चांदनी की तरह झलकने लगे हैं। होंठों के ऊपर भी बर्फ़ की एक लकीर-सी दिखाई देने लगी है। हम एक पहाड़ी पर खड़े हुए हैं। हमारे पैरों के नीचे मैदान पर एक ढलान पसरी हुई है जिसमें सूरज की रोशनी ऎसे चमक रही है जैसे उसकी परछाई शीशे में पड़ रही हो। हमारे पैरों के पास ही एक स्लेज पड़ी हुई है जिसकी गद्दी पर लाल कपड़ा लगा हुआ है।

--चलो नाद्या, एक बार फिसलें! --मैंने नाद्या से कहा-- सिर्फ़ एक बार! घबराओ नहीं, हमें कुछ नहीं होगा, हम ठीक-ठाक नीचे पहुँच जाएंगे।

लेकिन नाद्या डर रही है। यहाँ से, पहाड़ी के कगार से, नीचे मैदान तक का रास्ता उसे बेहद लम्बा लग रहा है। वह भय से पीली पड़ गई है। जब वह ऊपर से नीचे की ओर झाँकती है और जब मैं उससे स्लेज पर बैठने को कहता हूँ तो जैसे उसका दम निकल जाता है। मैं सोचता हूँ-- लेकिन तब क्या होगा, जब वह नीचे फिसलने क ख़तरा उठा लेगी! वह तो भय से मर ही जाएगी या पागल ही हो जाएगी।

--मेरी बात मान लो! --मैंने उससे कहा-- नहीं-नहीं, डरो नहीं, तुममें हिम्मत की कमी है क्या?

आख़िरकार वह मान जाती है। और मैं उसके चेहरे के भावों को पढ़ता हूँ। ऎसा लगता है जैसे मौत का ख़तरा मोल लेकर ही उसने मेरी यह बात मानी है। वह भय से सफ़ेद पड़ चुकी है और काँप रही है। मैं उसे स्लेज पर बैठाकर, उसके कंधों पर अपना हाथ रखकर उसके पीछे बैठ जाता हूँ। हम उस अथाह गहराई की ओर फिसलने लगते हैं। स्लेज गोली की तरह बड़ी तेज़ी से नीचे जा रही है। बेहद ठंडी हवा हमारे चेहरों पर चोट कर रही है। हवा ऎसे चिंघाड़ रही है कि लगता है, मानों कोई तेज़ सीटी बजा रहा हो। हवा जैसे गुस्से से हमारे बदनों को चीर रही है, वह हमारे सिर उतार लेना चाहती है। हवा इतनी तेज़ है कि साँस लेना भी मुश्किल है। लगता है, मानों शैतान हमें अपने पंजों में जकड़कर गरजते हुए नरक की ओर खींच रहा है। आसपास की सारी चीज़ें जैसे एक तेज़ी से भागती हुई लकीर में बदल गई हैं। ऎसा महसूस होता है कि आनेवाले पल में ही हम मर जाएंगे।

मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या! --मैं धीमे से कहता हूँ।

स्लेज की गति धीरे-धीरे कम हो जाती है। हवा का गरजना और स्लेज का गूँजना अब इतना भयानक नहीं लगता। हमारे दम में दम आता है और आख़िरकार हम नीचे पहुँच जाते हैं। नाद्या अधमरी-सी हो रही है। वह सफ़ेद पड़ गई है। उसकी साँसें बहुत धीमी-धीमी चल रही हैं... मैं उसकी स्लेज से उठने में मदद करता हूँ।

अब चाहे जो भी हो जाए मै कभी नहीं फिसलूंगी, हरगिज़ नहीं! आज तो मैं मरते-मरते बची हूँ। --मेरी ओर देखते हुए उसने कहा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में ख़ौफ़ का साया दिखाई दे रहा है। पर थोड़ी ही देर बाद वह सहज हो गई और मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखने लगी। क्या उसने सचमुच वे शब्द सुने थे या उसे ऎसा बस महसूस हुआ था, सिर्फ़ हवा की गरज थी वह? मैं नाद्या के पास ही खड़ा हूँ, मैं सिगरेट पी रहा हूँ और अपने दस्ताने को ध्यान से देख रहा हूँ।

नाद्या मेरा हाथ अपने हाथ में ले लेती है और हम देर तक पहाड़ी के आसपास घूमते रहते हैं। यह पहेली उसको परेशान कर रही है। वे शब्द जो उसने पहाड़ी से नीचे फिसलते हुए सुने थे, सच में कहे गए थे या नहीं? यह बात वास्तव में हुई या नहीं। यह सच है या झूठ? अब यह सवाल उसके लिए स्वाभिमान का सवाल हो गया है. उसकी इज़्ज़त का सवाल हो गया है। जैसे उसकी ज़िन्दगी और उसके जीवन की ख़ुशी इस बात पर निर्भर करती है। यह बात उसके लिए महत्त्वपूर्ण है, दुनिया में शायद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण। नाद्या मुझे अपनी अधीरता भरी उदास नज़रों से ताकती है, मानों मेरे अन्दर की बात भाँपना चाहती हो। मेरे सवालों का वह कोई असंगत-सा उत्तर देती है। वह इस इन्तज़ार में है कि मैं उससे फिर वही बात शुरू करूँ। मैं उसके चेहरे को ध्यान से देखता हूँ-- अरे, उसके प्यारे चेहरे पर ये कैसे भाव हैं? मैं देखता हूँ कि वह अपने आप से लड़ रही है, उसे मुझ से कुछ कहना है, वह कुछ पूछना चाहती है। लेकिन वह अपने ख़यालों को, अपनी भावनाओं को शब्दों के रूप में प्रकट नहीं कर पाती। वह झेंप रही है, वह डर रही है, उसकी अपनी ही ख़ुशी उसे तंग कर रही है...। --सुनिए! --मुझ से मुँह चुराते हुए वह कहती है। --क्या? --मैं पूछता हूँ। --चलिए, एक बार फिर फिसलें।

हम फिर से पहाड़ी के ऊपर चढ़ जाते हैं। मैं फिर से भय से सफ़ेद पड़ चुकी और काँपती हुई नाद्या को स्लेज पर बैठाता हूँ। हम फिर से भयानक गहराई की ओर फिसलते हैं। फिर से हवा की गरज़ और स्लेज की गूँज हमारे कानों को फाड़ती है और फिर जब शोर सबसे अधिक था मैं धीमी आवाज़ में कहता हूँ : --मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या।

नीचे पहुँचकर जब स्लेज रुक जाती है तो नाद्या एक नज़र पहले ऊपर की तरफ़ ढलान को देखती है जिससे हम अभी-अभी नीचे फिसले हैं, फिर दूसरी नज़र मेरे चेहरे पर डालती है। वह ध्यान से मेरी बेपरवाह और भावहीन आवाज़ को सुनती है। उसके चेहरे पर हैरानी है। न सिर्फ़ चेहरे पर बल्कि उसके सारे हाव-भाव से हैरानी झलकती है। वह चकित है और जैसे उसके चेहरे पर यह लिखा है-- क्या बात है? वे शब्द किसने कहे थे? शायद इसी ने? या हो सकता है मुझे बस ऎसा लगा हो, बस ऎसे ही वे शब्द सुनाई दिए हों?

उसकी परेशानी बढ़ जाती है कि वह इस सच्चाई से अनभिज्ञ है। यह अनभिज्ञता उसकी अधीरता को बढ़ाती है। मुझे उस पर तरस आ रहा है। बेचारी लड़की! वह मेरे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं देती और नाक-भौंह चढ़ा लेती है। लगता है वह रोने ही वाली है। --घर चलें? -- मैं पूछता हूँ। --लेकिन मुझे... मुझे तो यहाँ फिसलने में ख़ूब मज़ा आ रहा है। --वह शर्म से लाल होकर कहती है और फिर मुझ से अनुरोध करती है: --और क्यों न हम एक बार फिर फिसलें?

हुम... तो उसे यह फिसलना "अच्छा लगता है"। पर स्लेज पर बैठते हुए तो वह पहले की तरह ही भय से सफ़ेद दिखाई दे रही है और काँप रही है। उसे साँस लेना भी मुश्किल हो रहा है। लेकिन मैं अपने होंठों को रुमाल से पोंछकर धीरे से खाँसता हूँ और जब फिर से नीचे फिसलते हुए हम आधे रास्ते में पहुँच जाते हैं तो मैं एक बार फिर कहता हूँ : --मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या!

और यह पहेली पहेली ही रह जाती है। नाद्या चुप रहती है, वह कूछ सोचती है... मैं उसे उसके घर तक छोड़ने जाता हूँ। वह धीमे-धीमे क़दमों से चल रही है और इन्तज़ार कर रही है कि शायद मैं उससे कुछ कहूंगा। मैं यह नोट करता हूँ कि उसका दिल कैसे तड़प रहा है। लेकिन वह चुप रहने की कोशिश कर रही है और अपने मन की बात को अपने दिल में ही रखे हुए है। शायद वह सोच रही है।

दूसरे दिन मुझे उसका एक रुक्का मिलता है :"आज जब आप पहाड़ी पर फिसलने के लिए जाएँ तो मुझे अपने साथ ले लें। नाद्या।" उस दिन से हम दोनों रोज़ फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाते हैं और स्लेज पर नीचे फिसलते हुए हर बार मैं धीमी आवाज़ में वे ही शब्द कहता हूँ :--मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या!

जल्दी ही नाद्या को इन शब्दों का नशा-सा हो जाता है, वैसा ही नशा जैसा शराब या मार्फ़ीन का नशा होता है। वह अब इन शब्दों की ख़ुमारी में रहने लगी है। हालाँकि उसे पहाड़ी से नीचे फिसलने में पहले की तरह डर लगता है लेकिन अब भय और ख़तरा मौहब्बत से भरे उन शब्दों में एक नया स्वाद पैदा करते हैं जो पहले की तरह उसके लिए एक पहेली बने हुए हैं और उसके दिल को तड़पाते हैं। उसका शक हम दो ही लोगों पर है-- मुझ पर और हवा पर। हम दोनों में से कौन उसके सामने अपनी भावना का इज़हार करता है, उसे पता नहीं। पर अब उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। शराब चाहे किसी भी बर्तन से क्यों न पी जाए-- नशा तो वह उतना ही देती है। अचानक एक दिन दोपहर के समय मैं अकेला ही उस पहाड़ी पर जा पहुँचा। भीड़ के पीछे से मैंने देखा कि नाद्या उस ढलान के पास खड़ी है, उसकी आँखें मुझे ही तलाश रही हैं। फिर वह धीरे-धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगती है ...अकेले फिसलने में हालाँकि उसे डर लगता है, बहुत ज़्यादा डर! वह्बर्फ़ की तरह सफ़ेद पड़ चुकी है, वह काँप रही है, जैसे उसे फ़ाँसी पर चढ़ाया जा रहा हो। पर वह आगे ही आगे बढ़ती जा रही है, बिना झिझके, बिना रुके। शायद आख़िर उसने फ़ैसला कर ही लिया कि वह इस बार अकेली नीचे फिसल कर देखेगी कि "जब मैं अकेली होऊंगी तो क्या मुझे वे मीठे शब्द सुनाई देंगे या नहीं?" मैं देखता हूँ कि वह बेहद घबराई हुई भय से मुँह खोलकर स्लेज पर बैठ जाती है। वह अपनी आँखें बंद कर लेती है और जैसे जीवन से विदा लेकर नीचे की ओर फिसल पड़ती है... स्लेज के फिसलने की गूँज सुनाई पड़ रही है। नाद्या को वे शब्द सुनाई दिए या नहीं-- मुझे नहीं मालूम... मैं बस यह देखता हूँ कि वह बेहद थकी हुई और कमज़ोर-सी स्लेज से उठती है। मैं उसके चेहरे पर यह पढ़ सकता हूँ कि वह ख़ुद नहीं जानती कि उसे कुछ सुनाई दिया या नहीं। नीचे फिसलते हुए उसे इतना डर लगा कि उसके लिए कुछ भी सुनना या समझना मुश्किल था।

फिर कुछ ही समय बाद वसन्त का मौसम आ गया। मार्च का महीना है... सूरज की किरंएं पहले से अधिक गरम हो गई हैं। हमारी बर्फ़ से ढकी वह सफ़ेद पहाड़ी भी काली पड़ गई है, उसकी चमक ख़त्म हो गई है। धीरे-धीरे सारी बर्फ़ पिघल जाती है। हमारा फिसलना बंद हो गया है और अब नाद्या उन शब्दों को नहीं सुन पाएगी। उससे वे शब्द कहने वाला भी अब कोई नहीं है : हवा ख़ामोश हो गई है और मैं यह शहर छोड़कर पितेरबुर्ग जाने वाला हूँ-- हो सकता है कि मैं हमेशा के लिए वहाँ चला जाऊंगा।

मेरे पितेरबुर्ग रवाना होने से शायद दो दिन पहले की बात है। संध्या समय मैं बगीचे में बैठा था। जिस मकान में नाद्या रहती है यह बगीचा उससे जुड़ा हुआ था और एक ऊँची बाड़ ही नाद्या के मकान को उस बगीचे से अलग करती थी। अभी भी मौसम में काफ़ी ठंड है, कहीं-कहीं बर्फ़ पड़ी दिखाई देती है, हरियाली अभी नहीं है लेकिन वसन्त की सुगन्ध महसूस होने लगी है। शाम को पक्षियों की चहचहाट सुनाई देने लगी है। मैं बाड़ के पास आ जाता हूँ और एक दरार में से नाद्या के घर की तरफ़ देखता हूँ। नाद्या बरामदे में खड़ी है और उदास नज़रों से आसमान की ओर ताक रही है। बसन्ती हवा उसके उदास फीके चेहरे को सहला रही है। यह हवा उसे उस हवा की याद दिलाती है जो तब पहाड़ी पर गरजा करती थी जब उसने वे शब्द सुने थे। उसका चेहरा और उदास हो जाता है, गाल पर आँसू ढुलकने लगते हैं... और बेचारी लड़की अपने हाथ इस तरह से आगे बढ़ाती है मानो वह उस हवा से यह प्रार्थना कर रही होकि वह एक बार फिर से उसके लिए वे शब्द दोहराए। और जब हवा का एक झोंका आता है तो मैं फिर धीमी आवाज़ में कहता हूँ : --मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या!

अचानक न जाने नाद्या को क्या हुआ! वह चौंककर मुस्कराने लगती है और हवा की ओर हाथ बढ़ाती है। वह बेहद ख़ुश है, बेहद सुखी, बेहद सुन्दर।

और मैं अपना सामान बांधने के लिए घर लौट आता हूँ...।

यह बहुत पहले की बात है। अब नाद्या की शादी हो चुकी है। उसने ख़ुद शादी का फ़ैसला किया या नहीं-- इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उसका पति-- एक बड़ा अफ़सर है और उनके तीन बच्चे हैं। वह उस समय को आज भी नहीं भूल पाई है, जब हम फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाया करते थे। हवा के वे शब्द उसे आज भी याद हैं, यह उसके जीवन की सबसे सुखद, हृदयस्पर्शी और ख़ूबसूरत याद है।

और अब, जब मैं प्रौढ़ हो चुका हूँ, मैं यह नहीं समझ पाता हूँ कि मैंने उससे वे शब्द क्यों कहे थे, किसलिए मैंने उसके साथ ऎसा मज़ाक किया था!...

~अंतोन चेखव 

Monday 26 March 2018

पुतले

वे सीमेंट के थे - छह पुतले। सीमेंट के रंग की ही साँवली त्वचा लिए। काँच की रंगीन गोलियों और चीनी मिट्टी के टूटे बर्तनों से, उनकी त्वचा सजी थी। इन काँच की गोलियों का खेल, बच्चे अब भूल चुके थे। बच्चे अब कंप्यूटर के सामने बैठकर, दुनिया से खेल रहे थे। कंप्यूटर के भीतर काँच की गोलियों का उस तरह का कोई खेल नहीं था जैसा धरती पर कभी, उन बच्चों के पूर्वजों के बचपन में था। यही हाल चीनी मिट्टी के बर्तन का भी था, वे इस तरह तड़क चुके थे कि अब किसी काम के नहीं बचे थे और खाने की टेबल बाहर हो गए थे।

पुतलों की देह, मनुष्य के इस्तेमाल से बाहर आ गई चीजों से सजी बनी थी। यह अलग बात है कि मनुष्य के कारीगर हाथ उनकी देह पर झिलमिलाते से दिख रहे थे : मनुष्य की अँगुलियों की झिलमिलाती थाप।

पुतलों का कद बहुत बड़ा नहीं था। वे बच्चों के कद में जैसे बड़ों का चेहरा पहने हुए थे। इनमें चार पुरुष थे और दो स्त्रियाँ। स्त्रियाँ, पुरुषों के बीच थीं। सर पर टोकरी रखीं। एक स्त्री की टोकरी में मछलियाँ थीं और दूसरी स्त्री की टोकरी में सब्जियाँ। टोकरी में रखी मछलियाँ, बरसों हो गए अब तक सड़ी नहीं थीं और सब्जियाँ अब भी ताजी थीं। सीमेंट के पुरुषों की पीठ, उनके बीच में खड़ी उन दो सीमेंट की स्त्रियों की ओर थीं। पुरुष-पुतले, स्त्री-पुतलों को नहीं, पृथ्वी की चार दिशाओं को देखते खड़े थे। पृथ्वी की चारों दिशाएँ, पुरुष-पुतलों के कंचे की आँखों में आकर डूब रही थीं।

इन छह पुतलों के चारों ओर लोहे की मोटी छड़ों से बना गोल घेरा था। घेरा, सड़क से ढाई फुट ऊँचे, ईंटों के गोल प्लेटफार्म पर गड़ा हुआ था। लोहे की छड़ों के सिरों पर भाले थे। भालों की नोक, पुतलों को देखो तो आँखों में चुभती थी। यह किसी को मालूम नहीं था कि पुतले जब घेरे के बाहर देखते हैं तो उनकी कंची आँखों में भाले की छाया गड़ती है या नहीं... कोई यह सोचता ही नहीं था कि पुतले भी देखते होंगे। स्त्री-पुतले, स्त्री की तरह और पुरुष-पुतले, पुरुषों की तरह देखते होंगे। इस चौक से जितना उन्हें दिखता होगा। देखते होंगे उतना।

उन पुतलों के आसपास, लोहे के गोल और नुकीले घेरे के भीतर, मखमली घास उगी थी हरी। हरी घास के ऊपर फूलों के छोटे-छोटे पौधे उभरे हुए थे - कुछ इस तरह कि कोशिश कर थोड़ा और उभरना चाह रहे हों... थोड़ा और आसमान की ओर उठना... थोड़ा और पुतलों के कद को छूने की कोशिश करना चाह रहे हों... उन उभरते फूलों ने, उस गोल घेरे को चटक रंगों से भर दिया था। नीला, पीला, लाल बैगनी। रंगों में, भालों की नुकीली और लोहे के स्वाद-सी छाया, कहीं-कहीं गड़ी-सी दिख रही थी।

इन फूलों के पास, बच्चों को भाने वाले सभी रंग थे। कभी कोई रंग फूलों का खटकता था बच्चों के मन में तो आश्चर्य कि फूल अपना रंग बदल लेते थे। जबकि बच्चे, उन फूलों को उस व्यस्त चौराहे के गुजरते हुए, बस एक झलक ही देख पाते थे। बच्चों की उस एक झलक में उपजी खटक को, सीमेंट के इन पुतलों के आस-पास उगे फूल तुरंत पकड़ लेते थे और मुस्कुराते हुए अपना रंग बदल देते थे कि बच्चा जब अगली बार गुजरे चौराहे से तो अपनी पसंद का रंग, फूलों में देख सके।

फूल ऐसे खिले थे, जैसे वे पुतलों को छूने की कोशिश कर रहे हों। हरी घास इस तरह बेचैन थी, जैसे वह ऐसी हलचल अपने भीतर चाह रही हो कि पुतले जो दिखने में बड़ों की तरह थे वे मन से बच्चे बन, उस पर खेल सकें। फूल और घास की इस कोशिश को आसमान ध्यान से देख रहा था और आसमान का नीला रंग, पुतलों के लिए हो रही, फूल और घास की इस निश्छल कोशिश पर झर रहा था...

चौक की गोल ऊँचाई पर उगी, इस हरी घास की जमीन पर, फूलों के पौधों के साथ-साथ, वे पुतले भी उगे हुए से ही थे - मनुष्य की गढ़ी थोड़ी सजावटी और थोड़ी बनावटी उस घास की हरी ऊँचाई-निचाई पर। इसीलिए वे छह पुतले एक दूसरे से थोड़ा ऊपर नीचे खड़े थे। स्त्री-पुतलियाँ ढाल पर थीं, कुछ इस तरह कि चौक से उतरकर बाजार चली जाएँगी - सब्जी और मछली बेचने और पुरुष-पुतले, अपने सामने दिखती दिशाओं पर निकल पड़ेंगे, अनंत यात्रा पर जो समुद्र के किनारे जाकर खत्म होगी या समुद्र के तल पर, अथाह जल के नीचे।

पुतले इस शहर के सबसे अभिजात्य चौक पर खड़े थे। सिविल लाइन्स स्क्वैअर पर। शहर इसी चौक से उत्पन्न होने और इसी चौक पर समाप्त होने के लिए अभिशप्त था। यह चौक उस कॉलोनी के मध्य में था जो अपनी ताकत से इस शहर को और इस राज्य को चला रही थी... इस राज्य का मुख्यमंत्री, सारे मंत्री, सारे आई.ए.एस., इसी कॉलोनी में रहते थे। वे छह पुतले अपनी कंची आँखों से उनकी आवाजाही देखते रहते थे। इन पुतलों की पलके थीं सूर्य और चंद्रमा। पुतलों की कंची आँखें, सूर्य की रोशनी में जागती थीं और चंद्रमा की रोशनी में सोती थीं। पुतलों की पलकें पुतलों के चेहरे पर नहीं आसमान में थीं और इस तरह आसमान में छह सूर्य और छह चंद्रमा थे, जब तक चौक पर थे छह पुतले।

सबसे बड़ी बात यह थी ये पुतले, महापुरुषों के पुतले नहीं थे। महापुरुषों के पुतले अपनी आँखों से कुछ नहीं देख पाते हैं। वे दिन में भी, अपनी आँखों के भीतर घना अँधेरा लिए, शहर के कई चौराहों पर खड़े रहते हैं। महापुरुषों के पुतलों के लिए, दिन और रात बराबर हैं। शहर और जंगल बराबर हैं। महापुरुषों के पुतले देखने के लिए नहीं, शहर को महान भव्यता देने के लिए शहर में जहाँ-तहाँ खड़े हैं, जैसे खड़े हैं वे जंगल में, शहर में नहीं। इस राज्य का मुख्यमंत्री, सारे मंत्री, सारे अधिकारी, महापुरुषों के पुतलों के कारण ही इस चौराहे पर सामान्य जनों के पुतलों को अनदेखा करते हुए, महान भव्यता में आवाजाही कर रहे हैं : बेशर्म आवाजाही।

इस सिविल लाइन्स स्क्वैअर पर खड़े पुतले, जिनके पास महापुरुषों का चेहरा नहीं था एक दूसरे की पीठ को महसूस कर रहे थे। वे घूमकर, एक दूसरे की पीठ देखना चाह रहे थे। पर वे घूम नहीं पा रहे थे। पैर उनके गड़े हुए थे हरी घास के नीचे बिछी, काली के बाद भूरी और कड़ी मिट्टी के भीतर। इसलिए पुतलों के पास एक दूसरे का चेहरा नहीं था और उन्हें यह पता नहीं था कि लगभग वे एक जैसे दिखते हैं। उन्हें यह भी पता नहीं था कि जब एक पुतला, मन ही मन मुस्कुराता है, तब ठीक उसी क्षण, सभी पुतले मन ही मन मुस्कुराते हैं। जब एक पुतला होता है दुखी तो सभी पुतले होते हैं दुखी। सच तो यह था कि पुतलों के पास खुद के चेहरे भी नहीं थे और उन्हें यह नहीं पता था कि वे दिखते कैसे हैं। वे अपने को रचने वाली मनुष्य अँगुलियों की हरकतों को याद कर, अपने चेहरे की कल्पना करते रहते थे और कभी ठीक-ठाक ढंग से अपने चेहरे तक अपनी कल्पना को नहीं पहुँचा पा रहे थे।

खुद के चेहरे तो मनुष्यों के पास भी ठीक-ठाक नहीं हैं... आईना देखो तो चेहरा दिखता है... आईने के सामने से हटते ही चेहरा पास से गायब हो रहा है... मनुष्य अपने चेहरे के आभासों को रच रहा है... मनुष्य चेहरे के आभासों के साथ जी रहा है... मरते समय मनुष्य के पास हमेशा दूसरों के चेहरे रहते हैं... मनुष्य दूसरों के चेहरों से रची गहराई में धीरे-धीरे डूबते हुए मरता है।

पुतलों के पास कोई आईना नहीं था। पुतलों के लिए अगर आसमान को आईना मान लें तो आसमान में पुतले अपना चेहरा नहीं देख पा रहे थे। पुतलों को चौराहे से गुजरती मनुष्यों की आँखें देख रही थीं जरूर। पर मनुष्यों की आँखों में उभर नहीं रहा था पुतलों का चेहरा।

इन पुतलों पास दृष्टि थी अनंत। दृष्टि अनंत उनकी देख रही थी, चारों दिशाओं में पूरे शहर को। शहर पार, पूरे राज्य को। राज्य पार, पूरे देश को। देश पार, पूरी पृथ्वी को। पृथ्वी पार, पूरे ब्रह्मांड को।

इस सिविल लाइन्स स्क्वैअर की, दक्षिण दिशा की सड़क, पुलिस लाइन तक जाकर खत्म हो रही थी। कह सकते हैं कि यह सड़क पुलिस के बूटों की आवाज और खुरदुरे खाकी रंग तक पहुँचा रही थी, क्योंकि जैसे ही सड़क पुलिस लाइन के गेट के भीतर घुसती - अचानक बदल जाती थी। वह पुलिस की सड़क बन जाती और सामान्य आदमी जब उस पर पैर रखता, गेट के बाहर से गेट के भीतर तो उसके पैरों के पंजों का एहसास, धीरे-धीरे खत्म होने लगता। अपने पंजे नहीं लगते अपने। सामान्य आदमी को लगता कि उसके पंजे खाकी वर्दी के बूटों के नीचे आ रहे हैं, बार-बार और कुचल रहे हैं बार-बार। इस तरह पुलिस लाइन के गेट के भीतर घुसने के बाद, सामान्य आदमी लहूलुहान पैर लेकर घर लौट रहा था और कई दिनों तक चलता रहता था लंगड़ाता।

इसी सड़क की बाईं ओर, सिविल लाइन्स स्क्वैअर को छूते हुए, सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री का बंगला दिख रहा था। पुराना बंगला : मंगलोरी खपरैलों से ढँका। खपरैल काई के धब्बों से भरे हुए थे। बंगले से कई गुना बड़ा, बंगले का खुला क्षेत्र था। बंगला पेड़ों के साथ और पेड़ बंगले के साथ थे। बंगला पूर्व मुख्यमंत्री के साथ था जो शहर के बीचोंबीच, एक बड़ी भूमि को घेरे, धरती पर थोड़ा धँसा सा अपने पुरानेपन पर खड़ा था। बंगला इतने पुरानेपन पर था कि रंगरोगन के बावजूद यह लग रहा था कि यह थोड़ा और पुराना होगा तो ध्वस्त हो जाएगा। यह पुरानापन सिर्फ बाहर था। अंदर बंगला भव्य था। यह जनता को धोखा देने के लिए था कि देखो पूर्व मूख्यमंत्री को कितना जर्जर बंगला दिया गया है। जबकि यह दिया गया नहीं, उनके द्वारा चुना गया बंगला था। जनता बंगले के भीतर कभी नहीं जाती थी और हमेशा बंगले का बाहरी ध्वस्त-सा दृश्य, अपने मन में रखती थी और खुश होती थी। जनता को लगता था कि पूर्व मुख्यमंत्री उसके समकक्ष है।

इसी सड़क के दाईं ओर एक बड़े व्यापारी का विशाल दुमंजिला बंगला था जो हमेशा सूना दिखता था, जैसे वह व्यापार में लिप्त, अपने मालिक के व्यापार से मुक्त होकर, इस शहर में आने का इंतजार करता खड़ा हो। पूर्व मुख्यमंत्री का सरकारी बंगला, इस व्यापारी के बंगल के सामने दयनीय दिख रहा था। यह बस दिखना था कि वस्तुएँ जैसे दिख रही थीं वैसी वे दरअसल थी नहीं। व्यापारी के बंगले से ज्यादा ताकत, पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले के भीतर अब भी मौजूद थी। यही व्यापारी, पूर्व मुख्यमंत्री के चरणों में लोट चुका था - धन के साथ, जब वे मुख्यमंत्री थे और शब्द 'पूर्व' उनके साथ नहीं लगा था। अब यह व्यापारी नए मुख्यमंत्री के चरणों में लोट रहा था। व्यापारी लोटता है तो चरणों में धन बिखरता है। जितना धन व्यापारी चरणों में बिखेरता है - उससे कई गुना यादा धन वापस बटोर कर ले जाता है। जिन चरणों में धन बिखरता है, वे यह सब जानते हैं। चरणों के आस पास बिखरा धन दिखता है, पर व्यापारी कुछ देकर जो अधिक ले जाता है - वह धन जनता का है और इसीलिए मुख्यमंत्री या मंत्री या अधिकारी को वह धन दिखाई नहीं देता है।

व्यापारी का बंगला कभी भी, पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले की ओर टक-टकी लगाकर नहीं देखता है। वह जब देखता है, कनखियों में देखता है। कुछ इस तरह कि उसके देखने को पूर्व मुख्यमंत्री का बंगला पकड़ न पाए। देखो इस तरह कि न देखने जैसा लगे। पूर्व मुख्यमंत्री को अपने सामने झुके सिर पसंद हैं - उनके चरणों को देखते सिर। कोई देखे टकटकी लगाकर यह धृष्टता है।

पूर्व मुख्यमंत्री ने यह सोचा नहीं था कि वे दुबारा, सत्ता में नहीं आ पाएँगे। वे नए बने राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे। जोड़-तोड़ में माहिर। पर राज्य के दूसरे चुनाव में, उनका दल बहुमत नहीं पा सका था और उन्हें वह बंगला छोड़ना पड़ा था, जिसकी दिशाएँ वास्तुशास्त्रियों और जिसका मुहूर्त ज्योतिषों ने, बहुत ठोक बजाकर तय किया था। मुख्यमंत्रीत्व काल का वह बंगला, कलेक्टर से छीना गया था, क्योंकि राज्य का यह पहला मुख्यमंत्री कभी कलेक्टर था और उसी बंगले में पद छोड़ने तक रह चुका था। वह एक बड़े भ्रष्ट-कांड में फँसने से बचने के लिए, कलेक्टर का पद छोड़, राजनीति की शरण में आया था। जाहिर था कि वह उस बंगले को शुभ समझता था। राजनीति इतनी उसे फली थी कि वह नए राज्य का पहला मुख्यमंत्री बन गया था। पर अब ऐसी स्थिति नहीं थी। अब वे पूर्व मुख्यमंत्री थे और किसी का कोई बंगला छीन नहीं सकते थे। उन्हें सरकार से प्रस्तावित दो चार बंगलों में से एक चुनकर संतोष करना था : फालतुओं में एक फालतू को चुनने-सा। पूर्व मुख्यमंत्री के पास निजी बंगले असंख्य थे। देश के हर बड़े शहर में और विदेश में। पता नहीं किसके किसके नाम पर बंगले थे। पर सरकारी बंगले में रहना, सत्ता में रहने जैसा था। जर्जर दिखते बंगले के भीतर रहते हुए पूर्व मुख्यमंत्री, जर्जर सत्ता के भीतर रह रहे थे।

सत्ता से हटते ही, ठीक दूसरे दिन, पूर्व मुख्यमंत्री के कमर से नीचे का हिस्सा मर गया - अचानक। वे अपने कार्यकर्ताओं को गाली बकते ढह गए फर्श पर। फिर जब उठे तो व्हील चेयर पर थे। उन्हें अपनी कमर से नीचे की देह दिख रही थी, पर महसूस नहीं हो रही थी। अपना ही पेशाब दिख रहा था, पर पेशाब की धार, महसूस नहीं हो रहा थी। कभी-कभी धोखे से उनकी अँगुलियाँ कमर के नीचे चल देतीं तो टट्टी या पेशाब से लिथड़ जाती थीं और वे थोड़ी टूटती और बिखरती सी दयनीय आवाज में अपने अधीनस्थों और परिजनों पर चिल्लाने लगते थे... हास्यापद स्थिति थी, जिससे दुख चू रहा था। पूर्व मुख्यमंत्री के शरीर से चू रहे इस दुख को, पैसा पोछ नहीं पा रहा था। सार्वजनिक जगहों पर बड़ी मुश्किल हो रही थी। वैसे तो उनकी कमर के नीचे का हिस्सा पूरी तरह ढँका रहता था। महँगी खुशबू में डूबा हुआ। पर बदबू को ढकना इतना आसान नहीं था। बदबू उनकी कमर के नीचे बिखेरी गई खुशबू को फाड़ती आखिर ऊपर आ ही रही थी और राज्य में जहाँ-तहाँ फैल रही थी। पूर्व मुख्यमंत्री का इस बदबू पर कोई बस नहीं था। वे अपने पुनः सत्ता में आने का इंतजार कर रहे थे। उन्हें पता था कि सत्ता में आते ही उनकी कमर के नीचे का हिस्सा पुनः जीवित हो जाएगा और कमर के नीचे से उठती बदबू, खुशबू में बदल जाएगी...?

एक सुबह इस सिविल लाइन्स स्क्वैअर के इन छः पुतलों ने देखा कि पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले के सामने एक दुकान सजी हुई है। बंगले के काँटा-तार के घेरे पर, जिसमें कुछ लतरें, जिद कर चढ़ी हुई थीं और जिनकी पत्तियाँ धूल से सनी हुई थीं। वस्तुओं की खाली चमकीली पालिथीन की थैलियाँ और खाली पुट्ठे के डिब्बे, बड़ी जतन से तार के काँटों पर फँसाकर सजा दिए गए थे। घेरे के नीचे सड़क किनारे टीन और प्लास्टिक के छोटे-बड़े डिब्बे तथा बोतलें, करीने से सजी रखी हुई थीं। इस दुकान में मशरूम के डिब्बे से लेकर, चाकलेट के डिब्बे तक थे। इसमें कंडोम से लेकर, एंटी सेप्टिक क्रीम तक के डिब्बे और सिगरेट के डिब्बे से लेकर, क्रार्नफ्लेक्स तक के डिब्बे थे। इस दुकान में राशन और तेल के डिब्बे भी थे। बासमती चावल की पालीथीन-थैली अपने भीतर इस तरह हवा भर कर फरफरा रही थी कि लग रहा था चावल से भरी हुई है। सड़क किनारे रखे खाली डिब्बों को देखकर कोई पता नहीं कर सकता था कि वे खाली हैं, पर काँटातार पर लटकी पालीथीन की थैलियाँ अपने खाली और हवा से भरे होने को बार-बार कह रही थीं।

इन खाली डिब्बों और पालिथीन की थैलियों के बीच एक आदमी बैठा था। आदमी कद पाँच फुट आठ इंच था। शरीर तगड़ा और रंग काला था। सूरज बरसों से उसके खुले शरीर से लिपट रहा था सीधे। शरीर पर उसने बस चड्डी पहन रखी थी - शेष देह नंगी थी, एड़ियों तक : काली चमकती। सूरज इसलिए सुनहरा था कि उसने इस आदमी के शरीर से रंग गोरा सोख लिया था। इस आदमी की काली देह पर, जहाँ-तहाँ मैल की पर्तें उभरी हुई थीं। यह आदमी बरसों से नहाया नहीं था। वह बस बारिश में भीगता रहा था बरसों से और बारिश ने उसे, जितना साफ किया था छूकर, यह आदमी उतना ही साफ हुआ था। बारिश के बाद, हवा और धूल ने उसे जितना मैला किया था, वह उतना मैला होता गया था।

उस आदमी की दुकान भी, बारिश और हवा के खेल के भीतर फँसी हुई थी। दुकान को हवा और बारिश मिटाने लगते थे और वह उन्हें सहेजता रहता था। होता यह था कि दुकान के हवा से उड़ जाने पर, या पानी में बह जाने पर, वह शहर के मुख्य बाजार की ओर निकल पड़ता था देर रात, जैसे थोक व्यापारियों के यहाँ कोई चिल्हर विक्रेता खरीददारी के लिए जाता है। बंद दुकानों के सामने फेंक दी गई खाली पालिथीन की थैलियों, डिब्बों और बोतलों को वह इस तरह उठाता था, जैसे वे भरे हुए हैं। रात उसके उठाए खाली डिब्बे, बोतल और पालीथीन की थैलियाँ अँधेरे से भरे हुए रहते थे। सूरज उगता सुबह तो भी डिब्बों में अँधेरा भरा रहता था। पालीथीन की थैलियों और प्लास्टिक की बोतलों में अँधेरे के साथ-साथ, दिन के उजाले की छाया भी बैठी रहती थी। वह आदमी थैलियों, डिब्बों और बोतलों के खालीपन को नहीं पहचानता था। उसे खाली डिब्बे, पालीथीन थैलियों और बोतलें, वस्तुओं से भरी और भारी लगती थीं। वह जब पानी की खाली बोतल का मुँह आसमान की ओर उठा अपने ओठों से लगाता तो उसका गला गट्गट् की आवाज निकालने लगता था। चावल की पालीथीन से उसकी हथेली पर चावल गिरने लगता और कार्नफ्लेक्स के रंगीन डिब्बे से कार्न फ्लेक्स वह फाँकता तो मुँह से कुरुम-कुरुम की आवाज उठने लगती। सिगरेट के खाली डिब्बे से, वह सिगरेट निकालता और माचिस की खाली डिब्बी से तीली निकाल कर, वह सिगरेट को उस तीली से छूता तो रोशनी फूटती और सिगरेट जलने लगती थी। वह आदमी अभी सिगरेट का लंबा कस खींच रहा था और धुआँ, जब उसने अपने फेफड़ों से बाहर छोड़ा तो चौराहे पर खड़े छह पुतले उस धुएँ में डूब गए। उस आदमी की सिगरेट और उस से निकल रहा धुआँ, बस उस आदमी को और उन छह पुतलों को दिख रहा था।

वह दिन भर ग्राहकों का इंतजार करता रहता था। वह रात भर ग्राहकों का इंतजार करता। ग्राहक कोई नहीं आता। उसका मन खाली डिब्बों और पालिथीन की वस्तुएँ तो रच लेता था, पर ग्राहक नहीं रच पा रहा था। हवा और पानी ही थे उसके ग्राहक जो आते और पूरी दुकान का समान एक बार में खरीद कर ले जाते। वह खुश होता कि सब कुछ बिक गया और फिर दुकान सजाने निकल पड़ता। खाली डिब्बे, पालिथीन की थैलियाँ बीनने। बीनते-बीनते वह अपनी दुकान की पुरानी जगह को भूल जाता था। पर उसे यह लगता था कि वह एक जगह पर ही बरसों से वस्तुओं को बेचता रहा है अब तक। इस तरह वह पूरे शहर भर में, अपनी दुकान लगाता घूम रहा था और पूरा शहर उसके लिए दुकान की एक छोटी जगह में बदल चुका था। पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले के सामने की यह जगह भी उसे ऐसी लग रही थी कि वह बरसों से यहाँ बैठा है अपनी दुकान सजाए। बरसों से सीमेंट के छह पुतले उसे देख रहे हैं लगातार, जैसे उसकी दुकान के सामने लगातार मौजूद है छह ग्राहक जो उसकी दुकान की किसी भी वस्तु को खरीदने अब तक झुके नहीं हैं। वह दिन में दो-तीन बार सीमेंट के पुतलों के चेहरों के सामने पालिथीन की थैली और डिब्बे लहराते हुए मोल भाव कर चुका है। रेट फिक्स है... रेट फिक्स है, वह चिल्ला चुका है कई बार। पहली बार उसे छह ग्राहक दिखे हैं एक साथ जो लगातार उसकी दुकान के सामने खड़े हैं।

पूर्व मुख्यमंत्री की कार, उनके बंगले के भीतर गई कि बाहर बंगले के गेट पर तीन सिपाही आए तुरंत। पूर्व मुख्यमंत्री के आदेश की हड़बड़ी और बेचैनी उन तीनों के चेहरों पर इस तरह थी कि वे एक चेहरे के सिपाही लग रहे थे, जैसे तीनों एक दूसरे के क्लोन हों। उन तीन सिपाहियों ने उस आदमी को घेर लिया जो पूर्व मुख्यमंत्री के गेट पर दुकान लगाए बैठा था, खाली डिब्बों और पालिथीन की थैलियाँ की। उन तीनों ने उस आदमी पर हमला बोला। सबसे पहले काँटा-तार की फेंसिग से लटकी पालिथीन की थैलियों और पुट्ठों के रंगीन डिब्बों को नोच-नोचकर एक जगह ढेर बना दिया। फिर वे तीनों, जमीन पर सजे काली डिब्बों को पैरों और हाथों दोनों की मदद से समटेने लगे। अब उस आदमी की दुकान एक ढेर में बदल गई थी। उनमें से एक सिपाही ने अपनी जेब से लाइटर निकाला खट्ट की आवाज हुई। एक सुनहरी लौ चमकी। लौ के साथ-साथ वह आदमी दुकान के ढेर पर झुकता दिखा और लौ ने ढेर को छू लिया तो झटके से पीछे हटता दिखा।

अब आदमी के अपनी दुकान के ढेर पर, झुकने और फिर हटने से, उन तीन सिपाहियों का ध्यान, उस आदमी पर गया जो पूर्व मुख्यमंत्री के गेट के सामने खाली डिब्बों और पालिथिन थैलियों की दुकान लगाने की गुस्ताखी कर चुका था। उन्होंने देखा कि वह आदमी उन्हें घूरता खड़ा है नंगधंड़ग, बाएँ हाथ से अपने अंडकोषों को सहलता। सिपाही जब तक सामान का ढेर लगा रहे थे वह आदमी यह मान रहा था कि ये पूरा सामान खरीद रहे हैं : अच्छे ग्राहक। उन तीनों ने ध्यान नहीं दिया था कि वह आदमी खुश और उत्तेजित उनके आगे-पीछे होता रहा था। जब उन तीनों में से एक ने ढेर को लाइटर की लौ से छुआ तो अब वह इस घटना को समझने की कोशिश कर रहा था कि कोई दुकान से सामान खरीद कर आग के हवाले क्यों करेगा... उस आदमी के चेहरे पर उन तीनों को घूरना जो उभरा था, इसीलिए उभरा था। वे तीनों सिपाही आदमी को घूरता देख, गुस्से से भर गए। वे आगे बढ़े। उस घूरते आदमी की ओर हाथ उठाकर, गाली बकते हुए। वह आदमी उन्हें घूरता, पीछे हटने लगा। वे तीनों जितने कदम आगे बढ़ रहे थे, वह आदमी उतने कदम पीछे हट रहा था - सड़क के किनारे-किनारे, जहाँ उसकी सीध में, उसकी दुकान ढेर बनी जल रही थी। वह जलते ढेर से दूर हो रहा था। पर उस आदमी का घूरना लगातार बना रहा। वह अपनी लाल ऑॅंखों से घूर रहा था तीनों सिपाहियों को लगातार। वे तीनों सिपाही उसके पीछे दौड़े तो वह आदमी अपना घूरना, सड़क के किनारे, उन तीनों के लिए गिराकर मुड़ा और दौड़ पड़ा उनसे दूर, विपरीत दिशा में। उन तीनों सिपाहियों ने उस आदमी को इतनी दूर तक दौड़ाया कि वह पूर्व मूख्यमंत्री के घर के सामने की जगह को भूल जाए। वापस ना आए दुबारा। दुबारा सजा न ले अपनी खाली दुकान पूर्व मुख्यमंत्री के दरवाजे पर।

पर आश्चर्य कि वह काला नंग-धंड़ग आदमी, दूसरे दिन सुबह-सुबह फिर पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले के सामने खड़ा दिखा। वह अपनी दुकान को ढूँढ़ रहा था जो अब तक एक काले छोटे ढेर में बदल चुकी थी। वह सूरज के साथ-साथ बंगले के सामने उगा आया था। सिपाही सूरज को सुबह उगने से रोक नहीं सकते थे, ठीक उसी तरह सिपाही उस आदमी को सुबह उगने से रोक नहीं पाए थे। वह रात भर पूरे शहर में भटकता रहा था - इस जगह को ढूँढ़ता। रात उसकी आँखों में बैचेन बैठी थी। सुबह उसने अपने को पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले के सामने खड़ा पाया था।

वह आदमी अपनी दुकान के जले हुए ढेर के सामने बैठ गया। अब भी कुछ पालिथीन और एकाध पुट्ठे के डिब्बे में, उस दुकान के निशान, काँटा-तार के घेरे और सड़क किनारे की जमीन पर, अब भी दिख रहे थे। आदमी उकड़ू बैठा था। काँटा-तार पर फँसी पालिथीन की एक छोटी थैली हवा के साथ उड़ी और उकड़ू बैठे आदमी के सिर को छूती निकल गई। आदमी जले हुए ढेर को घूरता रहा देर तक। देर तक धुनता रहा अपना सिर। फिर उठा और छाती पीट-पीट रोने लगा। रोने के साथ उसके मुँह से अजीब आवाज निकल रही थी, जैसे हिचकियों में उसकी साँस बार-बार फँस रही हो। जब रोते-रोते वह थक गया तो गाली बकने लगा गंदी-गंदी : धारा प्रवाह। उसका चेहरा पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले की ओर था और पीठ उन छह पुतलों की ओर जो शुरू से उसे देख रहे थे और उसके लिए दया और सहानुभूति से भरे हुए थे। उस आदमी की गालियाँ, मुँह से बाहर आते ही, पालिथीन थैलियाँ और खाली डिब्बों में बदल रही थीं और हवा के साथ उड़, पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले के ऊपर गिर रही थीं।

सिविल लाइन्स स्क्वैअर उस आदमी की गालियों से भर रहा था। आते-जाते लोग ठिठकने लगे थे। बस उन छह पुतलों को उस आदमी की गालियाँ नहीं छू रही थीं। गालियाँ जैसे ही पुतलों को छूती तुरंत पानी में बदल जाती थीं। उस आदमी के आस-पास साइकिल सवारों और मजदूरों की अच्छी-खासी भीड़ अब इकट्ठा हो चुकी थी। ये वे लोग थे जो सुबह काम पर निकले थे और जिन्हें शाम को थककर वापस लौटना था। वह आदमी भीड़ को नहीं देख पा रहा था। बंद आँखों से, वह पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले को देख रहा था। बक रहा था वह सिर्फ बंगले को गाली।

अचानक सिपाही उस आदमी पर टूट पड़े। उनके हाथ-लात एक साथ चलने लगे। बहुत देर तक तीनों सिपाहियों के बूट उस आदमी की देह पर बजे। सिपाही बारी-बारी से उसके सिर के लंबे, गंदे और उलझे बालों को पकड़, उसकी देह को घुमा रहे थे। सिपाही उस आदमी से भी ज्यादा गंदी गालियों में डूब रहे थे।

सिपाही जब उसे पीटते-पीटते थक गए तो वह आदमी उठा लड़खड़ता। उसकी नाक से खून गिर रहा था - टप्-टप्। पीठ कोहनियाँ, घुटने और चेहरा छिल गया था। वह काला आदमी, अब खून के लाल धब्बों से भरा हुआ था। वह अब भी सिपाहियों को नहीं, बंगले को घूर रहा था, जैसे बंगले ने आकर उसे पीटा हो और फिर वापस जाकर, अपनी जगह खड़ा हो गया हो। एक सिपाही ने उसे धकेला, चल भाग यहाँ से। वह आदमी कुछ पीछे हटा... फिर कुछ कदम और... फिर सिपाहियों ने उसकी पीठ देखी नंगी और काली पीठ जिससे खून छलक रहा था। पीठ उस आदमी के चेहरे की तरह दिख रही थी। सिपाहियों ने और वहाँ खड़ी भीड़ ने - किसी पीठ को चेहरा बनते पहली बार देखा था। सिपाही, काली पर लाल धब्बों भरी उस पीठ के घूरने की हद के भीतर थे : बेचैन।

वह आदमी अपने गायब होने के कुछ घंटों बाद, जब सूर्य बस डूबने वाला था, फिर चौराहे पर प्रगट हो गया। इस बार वह सीमेंट के छह पुतलों के बीच खड़ा था। पूर्व मुख्यमंत्री का बंगला, रात्रि की चहल-पहल से पहले के मौन में डूबा हुआ था। गेट पर खड़े सिपाहियों ने उस आदमी को चौराहे के गोल घेरे पर चढ़ता देख लिया था, पर उन्होंने अपना ध्यान, जान-बूझकर उस से हटा लिया। उनकी ड्यूटी उस आदमी के लिए ही गेट पर लगी थी। वह आदमी जब गेट के सामने आएगा तो सिपाही उसे देखेंगे। ये वही तीन सिपाही थे जो कुछ घंटे पहले, उस आदमी की पीठ को चेहरा बनते देख चुके थे।

उस रात सीमेंट के छह पुतलों की बीच खड़ा वह आदमी, लगातार पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले की ओर घूरता रहा गुस्से से। वह आदमी रात में हुई, बंगले की चहल-पहल को घूरता रहा। वह अँधेरे में डूबे बंगले को घूरता रहा जो चहलपहल के बाद थककर सोया-सा लग रहा था। उस आदमी के इस तरह बंगले को लगातार घूरने का असर, सीमेंट के उन छह स्त्री-पुरुषों के पुतलों पर भी हुआ। सीमेंट के वे छह पुतले पहली बार अपनी जगह से हिले। उनके जमीन पर घँसे पैर खुल गए। पहली बार पुतलों ने अपने देखने की दिशा बदली। वे उस आदमी के दर्द के छह गवाह थे जो अब उनके बीच खड़ा था, बंगले को घूरता। सुबह हुई तो उस चौराहे पर, सीमेंट के छह पुतलों की जगह, अब सीमेंट के सात पुतले थे और सातों पुतले पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले की ओर घूर रहे थे...

~आनंद हर्षुल 

Sunday 25 March 2018

भय

'ये वही हैं?' बस यों ही पूछ लिया था मैंने।

फोटो फ्रेम में मढ़ी थी और उस पर लाल गेंदे के फूलों की मुरझाई माला लटक रही थी। घूरती हुई दो आँखों और ऐंठी हुई मूँछों के सिवाय तस्वीर का रेशा-रेशा मरियल, बेजान था। चावल उठाती-तौलती वह बीच-बीच में हल्दी, धनिया, जीरा आदि के छोटे-छोटे पैकेट ग्राहकों के आगे इस तरह जोर से रखती कि कई बार सरककर वे उसी तस्वीर के आगे गिरते। गिरने की आवाज किन्हीं अनकहे शब्दों सी टूटती- धप्प!

'हाँ...' पता नहीं किस गहरी खाई से आवाज आई। वह बहुत व्यस्त थी। उसके चेहरे पर, कमजोर होने के बावजूद नमक था। मुझे अपनी ओर देखते पाकर उसने नजरें घुमाईं। हालाँकि मुस्कराने को कुछ था नहीं, पर दोनों मुस्कराए।

मेरे साथ एक तंद्रिल विभोरता अब तक चिपकी थी। कोई था, जो हौले से मेरे कानों के नीचे एक एहसास धर देता था। धीरे से बाँहें आकर मेरी कमर को घेर लेती थीं - एक गहरी सी किलकारी अपनी रुनझुन छोड़ते हुए अदृश्य होती रहती थी। निरंतर कुछ होता हुआ सा मेरे साथ था। ...अचानक सड़क पर गाड़ियों का कोलाहल तेज हो गया। मैं चौंकी - शायद कोई वीआईपी होगा। आगे विशेष हॉर्न बज रहा है और पीछे गाड़ियों का रेला। अजीब बात है, शहर में कब कौन आता है, आम आदमियों को पता ही नहीं चलता। मुझे ही देखो - कैसी बेखबर हूँ, चौंककर सड़क देख रही हूँ। इस छोटे शहर में भी दुनिया भर के जलसे, और गाड़ियाँ दिखने लगी हैं। राजधानी बने अभी छह महीने भी नहीं हुए और भीड़ ऐसी ठेलमठेल चली आ रही है यहाँ कि जैसे किसी दूसरे शहर का ट्रान्सप्लाण्टेशन इस शहर में हो रहा हो। इसके भीतर उगता हुआ एक नया शहर! कैसे धीरे-धीरे लोगों को अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है। लोग चौकन्ने नहीं थे, अब चौंकते हैं, रोजाना विशेष हॉर्न सुन-सुनकर। और यकीन मानिए कि लोग इस इत्मीनान में अब भी हैं कि देहरादून, दिल्ली-मुंबई जैसा नहीं बनेगा, पर होगा जनाब वैसा ही। आखिर मतलब क्या है?

'कल की न्यूज नहीं देखी?' कोई कह रहा था। मेरे कान उधर ही लग गए।

'वही है।' उसने नाम को बीच से गायब ही कर दिया। भला कौन होगा?

'क्या फर्क पड़ता है।' फिर उसी गहरी खाई से ध्वनि गूँजी। बिलकुल सही, क्या फर्क पड़ता है? बस कुछ लोगों को फर्क पड़ता है और उनमें हम नहीं आते...

ठीक सामने बैंक की छोटी-सी शाखा है। मैं उधर ही देखती हूँ। जब भी यहाँ राशन लेने आओ, भीड़भाड़ के बीच बार-बार नजर बैंक की तरफ चली जाती है। इस बैंक में लोगों ने खाते नहीं खोले क्या? भीड़ की गहमागहमी का जैसा संबंध पसीने और पैसे से है, वह इस बैंक में क्यों नहीं दिखता? हैरत है! पता नहीं, मुझे हर बार क्यों लगता है कि जैसे कोई परिचत चेहरा इसी बैंक के दरवाजे से निकलेगा - हाथ हिलाते हुए मुस्कराएगा। न जाने इस दुकान और सामने के बैंक से कौन-सा स्नेह संबंध लगता है? पर नहीं, सारा गुणा-भाग करके भी कोई परिचित याद नहीं आता इस बैंक में।

'बहन जी, थोड़ा रास्ता...'

'हाँ, हाँ...' मैं अपने को टेढ़ा-सा मोड़ कर जगह बनाती हूँ। जहाँ देखों, लोग ठुसे पड़े हैं, कौन किसे पछाड़कर आगे आएगा और कितना आगे आएगा। कुछ कहा नहीं जा सकता।

संदेह, हर जगह संदेह! इस संदेहवाली बात पर मुझे कुछ याद आता है और मैं फिर से भरसक गरदन मोड़कर अपनी कमर के पीछे का कुर्ता देख रही हूँ - कुछ लगा तो नहीं? अजीब लग रहा है, लोग देख रहे होंगे। क्या मैं दीदी की तरह होती जा रही हूँ? सिहर गई मैं। खून! अभी कैसे लग सकता है? इस वक्त में खून कहाँ आता है! फिर भी तसल्ली कर लेनी चाहिए। दीदी भी डायरी में लिख-लिख कर तसल्ली करती रहती थीं। मैं उस अदृश्य डायरी के अदृश्य पन्नों पर उँगली चला रही हूँ! कुछ पंक्तियाँ अस्पष्ट हैं, कुछ हल्की-सी स्पष्ट चमकती हैं।

दीदी! कहाँ मिला तुम्हें बाल्जाक यह कहता हुआ?

'उससे नौकरानी जैसा व्यवहार करो पर उसे समझाकर रखो कि वह महारानी है।' दीदी पहले की तरह ही मुड़-मुड़कर अपनी कमर के नीचे, पीछे की तरफ की पूरी साड़ी देखती हैं, फिर साड़ी के नीचे का किनारा उठाकर आँखें गड़ा-गड़ा कर देख रही हैं। फिर सिर उठाती है, जैसे कह रही हों 'नहीं लगा'। क्षण भर को एक तसल्ली उभरती है वहाँ। क्या उम्र रही होगी मेरी तब? याद नहीं। या शायद औरत की कोई उम्र नहीं होती। उम्र तो अनुभवों की होती है...। उसी के अनुपात में वह परिपक्व होती है। सचमुच परिपक्व ही?

'ये आपका...' इससे पहले कि मैं पूरा इत्मीनान करती, उसने सामान का थैला मेरे हाथों में पकड़ा दिया। मुझमें एक अजीब-सी घबराहट थी।

'वो रह गया' सामान देखते ही देखते मैंने पापड़ के पैकेट की तरफ इशारा किया।

'आप कुछ भी नहीं भूलतीं...।'

मुझे लगा जैसे वह कह रही है - समय के साथ भूलना चाहिए। क्या उत्तर दूँ - भूलना आसान है क्या? राशन का थैला पकड़े मैं दुकान से बाहर आई। दुकान की सीढ़ियों के नीचे हरे रंग का पुराना बजाज स्कूटर खड़ा था। मैंने धीरे से उसके हरेपन को छुआ। ऐसे समय में हरा रंग लुभावना लगता है शायद! मन ही मन कुछ अलग-सी अनुभूति हुई। डिक्की में सामान सहेजा, कुछ पाँव के पास की जगह में रखा। किक मारने के लिए पैर उठाया कि तभी खयाल आया - स्टार्ट करने से बल पड़ सकता है। अरे कुछ नहीं होगा। यह तो आते वक्त भी सोचा था, फिर अभी दिन ही कितने चढ़े हैं? किक मारी, पर स्कूटर घर्र-घूँ करके रह गया। स्टार्ट हुआ, पर खिसका नहीं। ओह पंक्चर! इन्हें भी यहीं पंक्चर होना था? स्कूटर खरीदते वक्त शायद ही दुनिया की किसी स्त्री को यह खयाल आया हो कि अगर स्कूटर ऐसे आड़े वक्त पर पंक्चर हो जाए, तो ठेलकर कौन ले जाएगा? अपने आप पर खीज आई। जैसे-तैसे स्कूटर के दोनों हैंडल पकड़कर आगे बढ़ाने की कोशिश की पर शरीर की ताकत जैसे सिकुड़कर तलवे में बैठ गई हो। कहीं ज्यादा जोर देने पर हो सकता है कि... सड़क पर खड़े-खड़े मुझे कुछ हो गया तो... इस कल्पना ने मुझे पसीने-पसीने कर दिया। मैं दौड़कर बगल की दुकान में बैठे आदमी के पास गई - 'कोई हो तो पंक्चर की दुकान तक...'

'आदमी होगा तभी तो जाएगा मैडम!' बूढ़ा हँसा।

क्या करें? सड़क पर आते-जाते लोग क्या देख नहीं रहे कि एक औरत पंक्चर स्कूटर के साथ परेशान है। आज अपने स्कूटर पर स्टेपनी का न होना बेहद खल रहा है। स्टेपनी होती तो कम से कम खुद ही बदलने की कोशिश करती। बैंक के सामने दो आदमी खड़े गप्पे मार रहे हैं पर उनकी निगाह इधर है, मेरी तरफ। वे इंतजार में हैं शायद कि अभी मैं उन्हीं की तरफ आऊँगी। क्या उनसे कहना ठीक होगा? मैं सोचती हूँ। इससे तो बेहतर होगा कि स्कूटर यहीं छोड़ कर पंक्चर की दुकान तक जाऊँ और वहाँ से पैसे देकर किसी लड़के को ले आऊँ। पैसा, मैंने पर्स खोल कर देखा। तभी एक ठण्डा हाथ मेरे हाथ से टकराया -

'परेशान होने की जरूरत नहीं बहन जी, मैं जरा बच्चे को दुकान पर बैठा कर आई।'

यह तो वही थी जनरल स्टोर वाली। क्या कहूँ उससे कि ऐसे जाने कितने वक्तों में खुद मैंने स्कूटर ठेलकर दुकान तक पहुँचाया है, पर आज जाने अपना ही शरीर साथ छोड़ रहा है। स्कूटर ठेलकर कहीं मैं अपने शरीर के साथ कोई खिलवाड़ न कर बैठूँ।

वह अर्थपूर्ण नजरों से देखते हुए बोली - 'लोग तो स्कूटर पर बैठने से डरते हैं।'

फिर रुककर उसने आगे कहा - 'लाई ही क्यों?'

मैं शर्मिंदा हुई। मेरी हिम्मत कहाँ सूखती जा रही है? कुछ पहले की विभोरता कहाँ गायब हो गई है?

घर आते ही सबसे पहले स्लेटी डायरी निकाली। हालाँकि तुरंत पढ़ना चाहती थी, कम से कम बाल्जाक वाले पृष्ठ को तो तुरंत देखना चाहती थी पर नहीं हो सका। डायरी बाँहों की बगल में दबाए-दबाए गैस पर चाय चढ़ाई, फिर बगल की खूँटी पर डायरी को टिकाकर मुँह धोया-पोंछा, फिर डायरी उतारकर बगल में दबाई और चाय गिलास में लेकर उसी अपनी पुरानी कुर्सी पर बैठ गई।

इस कुर्सी पर मैं होती हूँ या मेरा अकेलापन। दोनों साथ होते हैं तो ये डायरी चली आती है बीच में। जाने कैसे-कैसे अपने इस अकेलेपन को साथ लिए, एक छोटी-सी नौकरी करने चली आई थी इस शहर में। जाने कब और कैसे, इतनी आपाधापी, लड़ाई और झगड़े के बीच भी इस डायरी को समेटा था कपड़ों के भीतर। यही एकमात्र पूँजी थी, जो दीदी छोड़ गई थीं अपने पीछे और जिसे मैंने सँभाला था। इसे पढ़ना किसी अतीत से गुजरने जैसा नहीं था मेरे लिए। यह तो साथ चलता हुआ मेरे अपने ही आज का हिस्सा बना हुआ था।

कभी नहीं लगा कि इसे पढ़ना किसी फ्लैशबैक में स्मृतियों की कहानी दोहराना है, बल्कि लगता है वह सब कुछ यहीं है, बस अभी और यहीं। ऐसे में मेरा अकेलापन दबे पाँव दरवाजे से निकलकर टहलने चल देता है और मैं इसी कुर्सी पर बैठी होती हूँ अपनी नासमझी, मान और गुस्से में ऐंठी।

तो दीदी अपने लंबे बाल खोले इसी कुर्सी पर बैठी लिख रही थीं। लिखती थीं वे, जाने किस-किस किताब से चुन-चुन कर, जाने कौन-कौन-से वाक्यों की कतरनें जोड़ती-सिलती रहती थीं इसी डायरी में। पढ़ती थीं और निशान लगाती जाती थीं। कोई शोधार्थी जब चाहे, बिना किताबों को पढ़े उन्हीं निशानों से किताबों के मूल को निकाल ले। वे गहरे डूबकर मोती लाती थीं, जिसका मूल्य किसी के लिए कुछ नहीं था। एक बेकार के काम में लगी हैं, तो चलो ठीक ही है। दुनिया-भर की चुगलखोरी और कमीनी हरकतों से बची तो हैं।

'कुछ चोटें नहीं दिखतीं।' ऐसे ही किसी वक्त में माँ ने बताया था।

'कैसी?'

'मन की।'

दीदी फिर ससुराल से आ गई थीं। अपने लंबे-लंबे काले बाल पहले वे जिस जतन से खोलतीं, लहरातीं, अब वह नहीं रहा। अब वे बाल खोलते ही डर जातीं - लैट्रिन कैसे जाऊँगी? नहाऊँगी कैसे? बस, सारा दिन घर में घुसी कुछ पढ़ती रहतीं। आते ही पापा के रेडिया पर अधिकार जतातीं और रेडियो को इतना रगड़-रगड़कर साफ करतीं कि पापा चिल्लाने लगते - 'सफाई का मैनिया हो गया है लड़की को।' पर दिन-प्रतिदिन वे और सफाई करती गईं। यहाँ तक कि मेरे बिस्तर की चादर को छू-छूकर, टटोल-टटोलकर देखतीं, फिर बुजुर्गियत से बतातीं - 'इन दिनों में ठीक से सोया कर छोटी! कभी-कभी लग भी जाता है।'

मैं शरमा जाती - 'नहीं लगेगा दीदी, मैं ठीक से लगाती हूँ।'

'कभी-कभी चूक हो जाती है, मुझे देखो!' उन्होंने अपने दोनों हाथ उठाकर, कुर्ते की बाँह कोहनी तक मोड़कर दिखाई - 'पहले कभी होती थी ऐसी असावधानी? अब पता नहीं कैसे चूक जाती हूँ।'

मैं उनकी इन हरकतों से परेशान होकर कभी-कभी गुस्साती - 'कहाँ चूकती हो, मैंने तो कभी नहीं देखा?'

'तूने कभी नहीं देखा?' वे आश्चर्य से चीखतीं - 'वहाँ तो सबने देखा है।' फिर अविश्वास से थिर होतीं - 'ध्यान नहीं दिया होगा।'

ध्यान नहीं दिया होगा? क्या मतलब? सारा घर इन्हीं पर ध्यान देता है और ये कहती हैं कि ध्यान नहीं दिया होगा। घर के एक-एक सदस्य को इन्होंने अपनी सफाई से तंग कर रखा है। जाने क्या झाड़ती-बुहारती रहती है सबमें से...

वह उम्र थी, जब मैं उनके इस वाक्य से कुढ़ी थी। चिढ़कर मैंने माँ से कहा था - 'ये अपने घर क्यों नही रहतीं?'

'कहाँ?'

मुझे उम्मीद नहीं थी माँ के इस जवाब की।

कहाँ का मतलब? आखिर ये माँ ही थीं, जो दीदी की शादी पर इतनी खुश थीं। एक जिम्मेदारी पूरी हुई का राग अलाप रही थीं और अब हर सवाल को क्यों, कहाँ जैसे अजीब से जवाब में उलझा देती हैं। इन जवाबों के साथ माँ बुझती जा रही थीं और दीदी सुस्त, उदास और काम के नाम पर सफाई में संलग्न। क्यों हर एक महीने बाद ये अगले छह महीने के लिए यहाँ आकर जम जाती हैं। ठीक से रहतीं तो कोई बात नहीं थी, पर इनकी ये सनक! हाँ, तब मुझे यह सनक ही लगती थी और मैं मन ही मन उन्हें पागल, बीमार, सिड़ी कहती थी।

'जा छोटी, जरा दीदी के चादर के नीचे से रबरशीट निकाल ला।'

माँ ने मुझे किसलिए भेजा था उनके कमरे में? यह तब की बात है, जब दीदी रात के दो बजे बीमार पड़ी थीं। मैं उम्र के किस किनारे पर थी? याद नहीं। हमेशा समस्याओं, दुर्घटनाओं के साथ जोड़कर मैं अपनी उम्र के मुहाने ढूँढ़ती हूँ, पर समय है कि हाथ नहीं आता। शायद यह वह समय था, जब चीजें हमारी समझ के दायरे में प्रवेश करने लगती हैं। यह पहला मौका था, जब दीदी रात के दो बजे अस्पताल जा रही थीं। इससे पहले जब भी वे बीमार पड़ीं, दिन के वक्त ही अस्पताल ले जाई गई थीं। तब हम प्रायः स्कूल में हुआ करते थे।

उस दिन माँ ने मुझे ताकीद किया था - 'चादर उठाकर फर्श पर रख देना, नहीं तो गद्दा खराब हो जाएगा।'

मैं दंग थी। खून से लथपथ साड़ी... कमरे से बरामदे तक खून की एक लकीर बनाती दीदी माँ के सहारे, पापा के परिचित ऑटोवाले के ऑटो में बैठाई जा रही थीं। मैं खून की लकीर से भरसक अपने को बचाते हुए दीदी के कमरे तक गई। खून का रंग इतना गाढ़ा लाल था कि मेरी आँखें एक पल को चौंधिया गईं। किधर, किस कोने से उठाऊँ चादर को कि पूरा समेट लूँ? पता नहीं किस अजीब उलझनभरी भावना से भरकर मैंने चादर उठाकर जमीन पर रखी और खून की लकीरें जिस पर आड़ी-तिरछी थीं, उस रबरशीट को, उसी चादर के किनारे से पोंछा, फिर रबरशीट लेकर भागी थी। माँ ने बड़ी फुर्ती से उसे दीदी की कमर के चारों तरफ लपेट दिया। बेचारे ऑटो वाले की सीट खराब न हो जाए, यह सोचकर माँ ने एक और बड़ी चादर दीदी के चारों ओर लपेट दी। कफन में लिपटी मानो एक लाश लेकर, जब वे लोग ऑटो से जा रहे थे, मैं पड़ोस की चाची जी के साथ खड़ी थी।

पहली बार मुझे एक बड़ी जिम्मेदारी का एहसास हुआ था। घर में बच्चे सोए हैं और मैं हूँ इस वक्त सबसे बड़ी। इनकी गार्जियन! कोई भी, कभी भी उठ सकता है। बच्चे नींद में चौंक सकते हैं, भोर में उन्हें ठंड लगेगी तो चादर मुझे ही ओढ़ानी होगी। मुझसे ढाई साल छोटी बहन भी उस वक्त मुझे बच्ची सी लगी। अब मैं बड़ी और जिम्मेदार लड़की थी, जिसके कंधों पर रात के दो बजे माँ-बाप पूरा घर छोड़ कर चले गए थे - दीदी के बाद, दीदी से बेहतर! ऐसा ही सोचा था तब मैंने।

चाची का, मेरा हाथ पकड़कर मानो सांत्वना देते हुए मुझे घर के अंदर ले आना बिलकुल नहीं जँचा था। इतने में चाची का बेटा भी आ गया। विनय। दुबला-पतला, लंबा शरीर, छोटी-छोटी आँखें लंबोतरे चेहरे में दिपदिपाती हुईं। अलमस्त सा एक भाव चेहरे पर टिका हुआ। बचपन से कंधे पर शायद किताबों का अतिरिक्त बोझ लादने के कारण या झुक-झुककर पढ़ने के कारण उसके कंधे थोड़े आगे को झुक आए थे। उन्हीं छोटी-छोटी आँखों में अजीब सी मस्ती भरकर और होठों में हल्के-हल्के मुस्कराते हुए, वह जब भी कहता - 'छोटी!' तो मैं बहुत-बहुत छोटी हो जाती, और बहुत चाहते हुए भी उसके बराबर नहीं पहुँच पाती - पढ़ाकू, घमंडी! उसे लगता कि मैं जिस पढ़ाई के पीछे पागल हूँ, वह व्यर्थ और उबाऊ है। भला समाजशास्त्र में कोई क्या पढ़ता चला जा सकता है? क्या बनोगी? समाजशास्त्र की टीचर? ये सॉफ्ट-सॉफ्ट विषय तुम लड़कियों के लिए ही रखे गए हैं। भई, समाज सेवा, परिवार सेवा... सेवाओं के लिए समाजशास्त्र पढ़ने की क्या जरूरत?

मैंने बहुत चाहा कि वह समझे कि समाजशास्त्र इतना ओछा नहीं है और इसमें बहुत 'स्कोप' भी है।

'जैसे?' वह दाँव रखता, मैं गिनाती। वह स्वीकार नहीं करता।

'इस समाज में से शास्तर हटा दो भाई तो कुछ बात बने।' कहते हुए हवा में घूँसा मारता।

तो वही विनय चला आया है मेरी, चाची और बच्चों की सुरक्षा के लिए। मेरे अस्तित्व के एहसास को, जो कुछ देर पहले सिर तानकर खड़ा हुआ था, बड़ा धक्का लगा। लेकिन विनय के आने से चाची ने संतोष की साँस खींची।

'तू इधर मत आ' के लहजे में चाची ने आनन-फानन में विनय को बैठक की तरफ कर दिया। खुद खड़े होकर बरामदे से कमरे तक का मुआयना सा किया - 'बेचारी!'

फिर आदेशात्मक स्वर में बोलीं - 'छोटी, सर्फ डालकर बाल्टी भर पानी दे और सींक वाली झाड़ू। हाँ, बच्चों के उठने के पहले साफ हो जानी चाहिए गंदगी।'

गंदगी, जो शरीर से बाहर हो गई, बेकार हो गई, निर्जीव हो गई। मेरी आँखें खून के बीच उस निर्जीव को खोज रही थीं।

'वह तो पेट में ही मर गया...'

'हँ?'

मैं पानी गिरा-गिराकर झाड़ू से झाड़ती जाती। चाची पोंछे के कपड़े से फर्श पोछती जातीं। चादर उठाकर नाली पर रख दी गई थी।

'इस बार तो डॉक्टरनी ने पूरा भरोसा दिया था...' चाची बुदबुदाईं।

'कैसा भरोसा?'

'एक बच्चा हो जाता तो सब ठीक हो जाता...'

'आप मानती हैं ऐसा...'

चाची खामोश रह गईं। हम दोनों झाड़ू-पोछा करके नाली पर चादर धोने बैठे। चाची पानी गिराती जातीं और मैं उसी झाड़ू को खून के ऊपर रगड़-रगड़ कर छुड़ाती जाती।

'क्या पता?' फिर अजीब ढंग से बड़बड़ाईं चाची।

'खून के दाग छूटे हैं कहीं...?'

'कहाँ छूटे? चादर खराब हो गई...'

ठीक यही कहा था मैंने या कि केवल महसूस किया था।

जो खराब हो गया था, जो छूट नहीं रहा था। मेरे हाथों में जैसे कुछ लाल-लाल, चिप-चिप करता-सा जम गया था।

घड़ी में पाँच की टिक-टिक हो रही थी। मैं असमंजस में थी - क्या चाची को चाय के लिए पूछना चाहिए? हम दोनों पैर सिकोड़कर खटिया पर, पीठ दीवार से टिकाए बैठे थे। चाची आँख बंद किए कुछ सोच रही थीं। मैं आँखें बंद करती कि भय घिरने लगता - दीदी, क्या हो रहा होगा वहाँ...

अचानक चाची बोल उठीं - 'पाँच बज गए, चाय चढ़ा छोटी, मैं तब तक घर से आई।'

चाची के निकलते ही उठकर दरवाजा बंद किया मैंने। पाँव जम गए थे, धीरे-धीरे उठ रहे थे। सोचा, जब चाय चढ़ाने जा ही रही हूँ तो विनय को भी पूछ लेना चाहिए। उदास और भारी कदमों से बैठक में झाँका - यह क्या? हमारे सुरक्षा कवच तो सो रहे हैं सोफे पर पाँव फैलाए। मैं लौट पड़ी। नींद से क्या जगाना।

जाने के लिए मैं पलटी ही थी कि झटके से उठकर विनय ने मेरा हाथ पकड़ लिया। घोर चिंता और भय के बीच जाने कहाँ से एक सुरमई लय चली आई। मैं वहीं बैठ गई, विनय के कुछ पास। वह सम्मोहक स्पर्श छूट गया। किसी प्रार्थना में लीन विनय सिर झुकाए बैठा था। कुछ भी नहीं था, पर बहुत कुछ पसरा था हमारे बीच। यह वह क्षण था, जिसके लिए कोई शब्द नहीं रचा जा सका या कि यह वह क्षण था, जिसके लिए लाख-लाख शब्द बनाकर भी मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति की शक्ति में असमर्थ रह गया, या कि यह वही क्षण था, जिसके लिए तमाम शोध के बाद भी ऋषियों, मुनियों ने अकथ, अगोचर, अगम्य, अरूप-सरूप, खरूप, सब कुछ कहा और कुछ भी नहीं कह पाए। यह वही क्षण था, जो चुपचाप चला आता है कि हम सँभले, पहचानें कि वह जाने की राह निकल पड़ता है।

...

'...देखा प्रेम का नतीजा...'

गहरे दुख में डूबकर पाया हुआ आप्त वाक्य, अध्यापिकाओं द्वारा समवेत स्वर में स्वीकृति गूँजी। यह शिक्षा मिल रही थी, सामने परदे पर चलती फिल्म - 'प्यार झुकता नहीं' से। हीरो-हीरोइन का अतीव सुंदर प्यार धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था। एक रुपहला-सुनहला सा जादू था, जिसमें मैं, दीदी, माँ और उनके स्कूल की अध्यापिकाएँ और उनकी बेटियाँ सब कोई बँधे जा रहे थे कि एक नासमझ सी दूरी ने हमारे नायक-नायिका के जीवन को तहस-नहस कर दिया। पद्मिनी कोल्हापुरे (उस फिल्म की नायिका) का मानसिक असंतुलन, दुख और तकलीफें जैसे-जैसे बढ़ रही थीं, हम लड़कियाँ उसी गति से रोती जा रही थीं - हालत यह हुई कि हममें से कुछ की हिचकियाँ बँध गईं।

तो हम बड़ी होतीं, सुंदर सपने देखतीं लड़कियाँ सावधान की गईं। 'अंत में प्रेम की जीत हुई' यह तो मनगढ़ंत किस्सा है। असली सार तो वही है, पद्मिनी कोल्हापुरे की दुर्गति। उसके बाद सब कुछ टूट-फूटकर खत्म हो जाता है, असली जिंदगी में। हम सबने इस पर बहुत-बहुत विश्वास किया, बहुत-बहुत सराहा और बहुत श्रद्धा से इस नैतिक शिक्षा को अपने हृदय में जगह दी।

'यह फिल्म थी, नहीं तो क्या उसका बच्चा मिल पाता उसे' यह बोध आज तक सालता है मुझे। इन सारयुक्त दृश्यों के आगे फिल्म का अंत झूठा था। ऐसे ही एक फिल्म और बसी थी हमारे दिलोदिमाग में - 'जूली'। हालाँकि इसका गाना 'जूली आइ लव यू...' हम बड़े मन और सुकून से गाते थे।

यूँ, माँ बच्चों को फिल्में दिखाने ले जाना पसंद नहीं करती थीं और न ही दीदी की सारी जिद रखती थीं। दीदी अपने स्कूल से इन फिल्मों के बारे में सुनकर आती थीं, फिर माँ से जिद करती थीं। माँ कोई खास ध्यान नहीं देतीं पर इस बार माँ झुकीं, वह भी क्यों? हुआ यह कि माँ के स्कूल की अध्यापिकाओं ने बताया कि अरे, ये तो वे फिल्में हैं, जिन्हें लड़कियों को दिखाना ही चाहिए। बढ़ती लड़कियों को ये 'प्रेम के घातक परिणाम' की सूचना देती हैं। तो इस नैतिक उद्देश्य से प्रेरित होकर हम भी 'जूली' देखने गए।

'देखी जूली की दुर्दशा!' यह कहने की माँ को जरूरत नहीं पड़ी। यह जूली की हृदय-विदारक दुर्दशा ही थी, जिसके आगे साहित्य में वर्णित सारे प्रेम संदर्भ निहायत काल्पनिक, झूठे और खयाली पुलाव मात्र साबित हो रहे थे। यहाँ दुख था और दुख का साक्षात कारण था। तो माँ के कहे बिना, इस फिल्म में छिपी नैतिक शिक्षा को हमने खुद ही ग्रहण कर लिया, और माँ के पूछने के पहले ही बताया - 'छिः, ये लड़कियाँ प्रेम में पड़ती ही क्यों हैं?'

माँ के चेहरे पर एक क्षण के लिए प्रसन्नता दौड़ी, फिर वे चिंता में घिरीं - 'यही तो नहीं समझतीं आजकल की लड़कियाँ! अरे वो तो गनीमत समझो कि फिल्म में प्रेम जैसा कुछ दिखाया भी गया। असली हालात तो ये है कि अच्छी पढ़ी-लिखी लड़कियों को प्रेम के नाम पर फुसलाकर, दिल्ली-बंबई पहुँचा दिया जाता है... बेचारी भोली-भाली लड़कियाँ...' माँ ने उन अज्ञात लड़कियों को याद किया।

यहाँ अपने उपर्युक्त भाषण में माँ ने 'पढ़ी-लिखी लड़कियों' पर विशेष बल दिया था। इसके बाद 'दिल्ली और बंबई' पर विशेष बल दिया था। उस वक्त तक दिल्ली और बंबई हमारे लिए जगमगाते हुए ऐसे महानगर थे, जिनमें यदि गलती से कभी हम चले जाएँ तो निःसंदेह रास्ता भूल जाएँगे और हम 'पढ़े-लिखे' थे, अर्थात कि अपने को 'पढ़ी-लिखी लड़कियों' वाली कोटि में मानते थे। सो, हम बहुत भयभीत हुए। कभी रोती हुई जूली हमारे सपनों में आती तो कभी पढ़ी लिखी तमाम लड़कियाँ आती-जाती अपनी बेवकूफियों पर पश्चात्ताप करती बिलखतीं - कभी चमकता हुआ महानगर आता, जिसकी अनंत गलियों-चौराहों में हम भटक रहे होते - हम कभी खुद इतने बदसूरत और रोते हुए अपने ही सपनों में आते कि अपने आप से डर जाते - कहीं हमारे ही भीतर प्रेम का वह राक्षस तो नहीं छिपा बैठा है?

तो निष्कर्ष यूँ निकला कि अच्छी लड़कियों! प्रेम से बचो! प्रेम एक छिछली भावुकता है, जो भविष्य में दुर्गति का कारण बनेगी। कोई सहारा नहीं देगा लड़कियों! इसलिए पढ़ो-लिखो और अपने भीतर के सहज आकर्षण को दबा डालो। लड़कियों! ध्यान से सुनो! गौतम बुद्ध ने कहा है - दुख है, तो उसका कारण है। कारण है तो निवारण भी है, और मध्यमा प्रतिपदा अर्थात मध्यम मार्ग! बस, चुपचाप इस मध्यम मार्ग पर चलो। जब तक माँ-बाप कहें, पढ़ो, जब पढ़ाई बंद करने को कहें, बंद करो। जिसके साथ कहें, उसी के साथ जाओ। जिससे प्रेम करने को कहें, उसी से प्रेम करो! ऐसा करने से तुम्हारे द्वारा किए गए प्रेम की जिम्मेदारी उनकी होगी और इस प्रेम में यदि काँटे चुभेंगे, तो इसका प्रायश्चित्त भी वही करेंगे यानी तुम्हारे माँ-बाप। पर प्रदर्शन मत करो लड़कियों! प्रेम प्रदर्शन की चीज नहीं है। मन की चीज है। मन की? मन की बात मत सुनो लड़कियों! यह दुख है...

कभी जूली आ रही है, कभी गौतम बुद्ध, कभी पद्मिनी कोल्हापुरे की रोती हुई आँखें... सब चिल्ला रहे हैं - 'लड़की तू भूल रही है। इतनी जल्दी भूल गई तू? यही है वह क्षण जिससे बचना है। ये नशा है - इसका अनुभव मत कर। बरबाद हो जाएगी लड़की तू...'

'बरबाद!' मैंने सिर पीछे सोफे पर टिका लिया। जैसे सिर में कोई हथौड़ा चल रहा हो। विनय ने मुड़कर मेरी तरफ देखा। मैंने आँखें बंद कर ली। क्या विनय को समझा सकती हूँ वह सब कुछ और यह सब कुछ? जो अभी भी डरा रहा है मुझे और जो वर्षों से डराता रहा है।

विनय ने बहुत आहिस्ते से, बहुत कोमलता से अपनी एक उँगली मेरे होठों पर रखी और तुरंत हटा ली। मेरी धड़कनों के साथ हृदय पर मनों बोझ बढ़ता जा रहा था। यह प्रेम मुझसे सहन नहीं हो रहा - दहशत भर रहा है मेरे भीतर। इस प्रेम को बहुत-बहुत चाहते हुए भी मैं कैसे इससे भागूँ? हाय! अब क्या होगा मेरा? हे प्रभु! मैंने जान-बूझकर अपने आपको आज इस कुचक्र में फँसा दिया...।

अनंत बेचैनियों में काँपती मैं उठ गई। विनय भी उठ गया, कि बिल्कुल नाउम्मीदी में विनय ने अपने होठ मेरे होठों पर रख दिए। तेज बासी महक! घृणा की एक लहर पैरों से उठकर मेरे समूचे अस्तित्व को हिला रही थी। मेरे हाथों ने उसे परे धकेल दिया और भागकर मैं नाली पर आई। नाली में अभी भी खून की एक परत झलक रही थी या यह भ्रम था मेरा? मैंने अपना हाथ चेहरे का पसीना पोंछने के लिए चेहरे पर फिराया तो लगा कि खून मेरे चेहरे पर चिपक गया है। अचानक जोर की उल्टी आई।

मैं नाली पर उल्टी कर रही थी और एक हाथ मेरी पीठ सहला रहा था - 'बेकार डर गई, इतने से कुछ नहीं होता।' वह कानों के पास बुदबुदाया। मैं मुँह धो-पोंछकर रोने लगी। मैं रोती जाती और वह जाने क्या-क्या समझाता जाता।

...

'अनचाहे सेक्स को झेलने वाली औरतें ज्यादा उल्टियाँ करती हैं, मानो वे अपने मुँह के रास्ते अपने गर्भ को पलटकर रख देना चाहती हों...' दीदी की उसी स्लेटी रंग की डायरी पर, बैठे-बैठे निशान लगा रही हूँ। यह क्या? यह निशान लगाने की आदत मुझमें कहाँ से चली आई? बगल के घर में रहनेवाली नीतू पुकारती है - 'दीदी।' और मेरी जान निकल जाती है। मेरी हिम्मत रह-रहकर टूटती है। डायरी की बात गले नहीं उतर रही। भला अपने ही गर्भ से अरुचि? दीदी जब-तब सपनों में आ जाती हैं। 'डर मत, हिम्मत रख।' वे कहती हैं।

मैं अकेले-अकेले रोने लगती हूँ। गर्भपात! अपने ही शरीर से कुछ अलग हो जाने का भय! दीदी, मुझे बचाओ, मैं रो रही हूँ।

'मृणाल दी, तुम्हारा स्कूटर बनकर आ गया है, कई पंक्चर थे।' वही पड़ोस की नीतू की आवाज, सुनकर मुझे शर्म आती है। रो रही हूँ मैं अभी तक! अब जबकि मैं छोटी से मृणाल बन चुकी हूँ, तब भी रोना? मैं जल्दी से उठकर मुँह धोती हूँ - 'धत, मैं वैसी ही कमजोर रह गई।'

'मैंने स्कूटर सीखा है। आपके इसी खज्जड़ स्कूटर पर प्रैक्टिस करूँगी।' नीतू चहकती हुई स्कूटर की चाभी लेकर बाहर जा रही है। मैं मुस्कराती हुई दरवाजे से टिकी खड़ी हूँ। नीतू इशारे से बुला रही है। मैं 'न' में सिर हिलाती हूँ।

'अब मुझे स्कूटर के लिए माफ करो।' निराशा जाने कहाँ से मेरे स्वर में छिपकर बोल रही है।

मैं अनुभव कर रही हूँ, जैसे दूर एक आम का पेड़ हिलता हुआ दिख रहा है। एक घोंसला है उस पर। खूब सुंदर चिड़िया उसके चारों ओर मँडरा-मँडरा कर चहचहा रही है। यह क्या? उसके अंडे जमीन पर गिरकर टूट गए हैं! चिड़िया के अंडों से निकला पीला द्रव मेरी आँखों के आगे छा रहा है... एक आकृति मेरे ऊपर झुकती चली आ रही है... जगह-जगह चूमती - जीभ ही जीभ, थूक ही थूक! अरुचि और घृणा से सिहर रही हूँ मैं। मेरी थूक से लिसड़ी देह दूर पड़ी है - मुझे उबकाई सी आ रही है। लगता है, सारा पेट ही उलटकर बाहर आ जाएगा... दीदी, जाने कहाँ से आकर मुझे इशारा कर रही हैं कि अपना परफ्यूम वाला रूमाल नाक पर रखो। मेरा हाथ जैसे दीदी की कोहनी तक फैला हाथ हो गया है...

'देखो, इधर ' नीतू स्कूटर लेकर आई है और फिर मुड़ रही है - 'एक चक्कर और।'

मेरे चेहरे पर भय देखकर कहती है - 'अच्छा, एक चक्कर के बाद बिलकुल नहीं...'

वह स्कूटर से उतर गई है। उतरकर मोड़ रही है। ये सामने की पतली सी लड़की, किस तरह स्कूटर मोड़ रही है? कल इसका हाथ दुखेगा... उसके गोल पुट्ठे और कंधे की ऊँची हड्डियों वाली पीठ मेरी तरफ है। बाँहों की पिंडलियाँ कुर्ते की बाँह के भीतर से उभर आई हैं। राजस्थानी कुर्ते पर लंबा-सा स्कर्ट हिल रहा है। इस हिलते हुए स्कर्ट के नीचे धीरे-धीरे रक्त की एक लकीर खिंचती जा रही है - धीरे-धीरे उसका स्कर्ट उसके पैरों में लिपटता जा रहा है... खून से सींझती-सींझती चली जा रही है... उसे कोई रोको! उसके पैरों के बीच लद्द से कटा हुआ मांस का एक टुकड़ा गिरा, फिर एक और... वह है कि चली जा रही है। मांस के टुकड़े उसके पैरों के पास आते हैं, वह फर्लांग जाती है कि एक टुकड़े पर पाँव पड़ते-पड़ते बचा... मैं चिल्लाई - 'रोको, रोको!' लगा, कुछ मेरे भीतर टूटा - मेरे ही पैरों से रक्त की गरम सी लहर टकराई... एकदम से शरीर में सिकुड़न सी हुई, फिर एक दर्द की लहर... और कुछ फिसलकर मेरे ही दाहिने पाँव की सलवार में अटका... अरे, यह तो मैं ही... मुझे चक्कर आया। आखिर आज हो ही गया, इसी को बचाने तो भागी-भागी आई थी मैं...

मैं जोर-जोर से रोने लगी और दरवाजे के पाट के बीच लगभग बैठी हुई सी गिर गई।

~अल्पना मिश्र 

Saturday 24 March 2018

दलपतित का सौभाग्य लाभ

अपने देश की शस्‍य-श्‍यामला माटी में आजादी का यूरिया पड़ते ही जो तीन चीजें खूब फलने-फूलने लगी हैं, वे हैं, गुंडे, दलाल और नेता। अपने दलपति सिंह भी पहले एक साधारण कोटि के गुंडे थे, जो बाद में अपनी प्रतिभा से मध्‍यम कोटि के दलाल हुए और फिर मौका पाकर उत्तम कोटि के नेता बन गए। एक वरिष्‍ठ मंत्री के आशीर्वाद से वे खूब फलने-फूलने लगे। उन्‍हें एक सरकारी संस्‍थान का अध्‍यक्ष बना दिया गया। जनता की भलाई के लिए उन्‍होंने जो भी काम किया, उसका उन्‍हें हाथों-हाथ फल मिला। इतना कि उसे समेटने के लिए उन्‍हें कई खाते खोलने पड़े।

पर जैसा कि आप जानते हैं, कैसा भी घूरा हो, एक दिन समतल हो जाता है, वैसा ही एक सफाई अभियान में दलपति सिंह के साथ भी हुआ। उनके गुप्‍त कामों की टंकी में लीक हो जाने से जो बदबू फैली और जो कीचड़ बहा, उससे न केवल उनके सरपरस्‍तों की साँस घुटने लगी बल्कि लगा कि पूरा दल ही दलपति सिंह के दलदल में डूब जाएगा। सलाहकारों की राय मानकर दलाधिपति ने जनहित में दलपति सिंह को दलपतित कर दिया।

दलपतित होते ही दलपति सिंह के दिन पूस की रात में बदल गए। पद की ताकत खत्‍म होते ही उनके बैंक बैलेंस पर भी उसका असर पड़ने लगा। उनके खिलाफ एकाधिक जाँच आयोग भी बैठा दिए गए। सभा-सम्‍मेलनों में जो मुख्‍य अतिथि का दिखाऊ आसन होता है, उसके लिए वे एकाएक अनुपयोगी समझ लिए गए। यहाँ तक कि साहित्यिक संस्‍थाओं से भी लोगों ने उन्‍हें बुलाना छोड़ दिया। वे 'दो शब्‍द' कहने के लिए तरस गए।

दलपति सिंह को अपने इस शीघ्रपतन पर बहुत चिंता हुई। उनकी रातें उनके लिए वैरी बन गईं। दिन उनके काटे नहीं कटते थे। वे इतने शक्तिहीन बन गए कि हफ्तों गुजर जाने पर भी वे किसी का बाल बाँका नहीं कर पाए। मजबूर होकर दलपति सिंह ने धर्म की लाठी को कसकर पकड़ लिया। निर्बल के बल राम! सुबह होते ही वे नगर के हर बड़े मंदिर का घंटा हिलाने लगे। यहाँ तक कि तांत्रिकों और कापालिकों के चरणों में सिर रगड़-रगड़कर अपनी टोपी गंदी कर ली। उँगलियों में रत्‍न धारण किया, गले में रत्‍नमालाएँ। मगर कोई फायदा नहीं हुआ। इन तमाम चीजों के धारण से उनका अपना वजन तो बढ़ गया, पर सत्ता में अपना 'वेट' नहीं बढ़ा सके।

हार कर दलपति सिंह ने अपने धार्मिक सलाहकार भोलेनाथ भंडारी की शरण ली। भोले भंडारी कैलाश टॉवर के बाइसवें मंजिल के एक भव्‍य वातानुकूलित कमरे में ध्‍यानमग्‍न रहते थे। उनके पास पहुँचना आसान काम नहीं था, पर दलपति सिंह अपनी श्रद्धा भक्ति और पूर्व संबंधों के बल पर उन तक पहुँच ही गए। भोलेनाथ के कमरे में पहुँचकर उन्‍हें बड़ी शांति मिली। उनका तन और मन दोनों ठंडा हो गया। आखिर क्‍यों न होता! भोले भंडारी का हिमालय ब्रांड एयर कंडीशनर इस देश का लाजवाब एयर कंडीशनर जो था।

भोलेनाथ भंडारी तमाम वीआइपियों से घिरे हुए थे। सबको कोई-न-कोई संताप था। उनसे निपटकर जब काफी समय बाद एकांत मिला, तब उन्‍होंने दलपति सिंह की सुध ली। दलपति सिंह उनके चेंबर में पहुँचकर उनके चरणों में लोट गए। वे अपना दुखड़ा रोते हुए एक कतरा आँसू किस्‍तों में बहाने लगे। दलपति सिंह को इतना विचलित देखकर भोलेनाथ भंडारी ने सामने रखी भंग की पिंडी में से एक गोला बनाकर उन्‍हें देते हुए कहा, 'इस सिद्धि को ग्रहण करो। मन चंगा हो जाएगा।'

दलपति सिंह उस भंग के गोले को प्रसाद समझकर निगल गए। वैसे वे इसके पहले भी कई बड़ी योजनाएँ निगल चुके थे, इसलिए इसे निगलने में कोई परेशानी नहीं हुई। वे बगैर जल के ही इसे गटक गए। भंग के प्रभाव से वे जल्‍दी ही खुद को तरोताजा महसूस करने लगे।

दलपति सिंह थोड़ा सँभल गए तो वे बोले, 'प्रभो, आपसे कुछ छिपा नहीं है। सत्ता की काली कमरी का सुख तो आप जानते ही हैं। मुझे वही काली कमरी दिलवा दीजिए। मुझ पर चढ़ने से रहा, प्रभो दूसरा रंग।'

'सत्ता की काली कमरी!' भोलेनाथ हँसने लगे। बोले, 'अपने पतन का कारण जानकर भी तुम्‍हारा मन नहीं भरा। अब तो इस अँधेरे रंग से डरो।'

दलपति सिंह हाथ जोड़कर बोले, 'इसीलिए तो आपकी शरण में आया हूँ भोलेनाथ! मुझे इस अँधेरे से प्रकाश की ओर ले चलिए! प्रकाश तक पहुँचने के लिए अँधेरे से गुजरना ही पड़ता है। इसीलिए मुझे अँधेरा पसंद है। जगमग दीवाली भी इस अँधेरे में ही होती है।'

भोले भंडारी हँसने लगे। बोले, 'नेता हो न, तभी काले से प्रेम है।'

दलपति सिंह ने कहा, 'अब जैसा भी हूँ, आपकी शरण में हूँ। मुझे एक बार फिर से शक्तिशाली बना दीजिए। इतना कि मैं पुनः अपने शत्रुओं का मर्दन कर सकूँ।'

'इसके लिए तुम्‍हें शक्ति की पूजा करनी पड़ेगी।'

'करूँगा। पूरी निष्‍ठा से करूँगा।'

'शक्ति को प्रसन्‍न करने के लिए तुम्‍हें अपनी प्रिय वस्‍तु की बलि भी देनी होगी।'

'बलि?'

'चौंको मत। किसी की जान नहीं लेनी है। अपनी किसी प्रिय चीज का त्‍याग करना ही काफी होगा।'

दलपति सिंह सोच में पड़ गए। क्‍या है उनकी प्रिय वस्‍तु? किसे वे सबसे अधिक प्‍यार करते हैं? प्‍यार तो उन्‍हें अपनी पत्‍नी तक से नहीं था। हाँ, इधर वह एक सोशल वर्कर से जरूर प्रेम करने लगे थे। अपने तीखे नैन-नक्‍शों के कारण वह उन्‍हें बहुत प्रिय लगने लगी थी। मगर दिक्‍कत यह थी कि उसे एक सीनियर मंत्री भी चाहने लगे थे। उसे वे अपनी रिजर्व सीट बना चुके थे। बेचारे दलपति सिंह की जब वह सीट ही नहीं बन पाई थी तो उसे त्‍यागने का सवाल ही नहीं उठता था।

'क्‍या सोच रहे हो?' भोले भंडारी बोले।

'यही कि किसे त्‍यागूँ? समझ नहीं पा रहा हूँ।' दलपति सिंह ने सकुचाते हुए कहा।

भोलेनाथ हँसने लगे। बोले, 'कुर्सी से प्रिय तो तुम्‍हें कुछ है नहीं। उसे त्‍याग नहीं सकते। यह सारा खेल उसी के लिए है। सोचो, देखो तुम्‍हारी सेकेंड च्‍वाइस क्‍या है।'

'कुछ वक्‍त दीजिए भोलानाथ!' दलपति ने कहा। भोलेनाथ गंभीर हो गए। बोले, 'हमें तो यही पता था कि सफल नेता सोचते-विचारते नहीं। वे बस डिसीजन लेते हैं। सोचने-विचारनेवाले कुछ कर नहीं पाते। लेखकों की दुर्गति देखते हो न। निर्णय में इतना वक्‍त लोगे तो मुकाबला कैसे कर पाओगे?'

'तो मैंने भी डिसीजन ले लिया।' अचानक दलपति सिंह हाथ उठाकर नाचने लगे, 'जय-जय भंग भवानी! तोड़ दुश्‍मन की मियानी।'

भोलेनाथ ने हाथ उठाकर दलपति सिंह को शांत करते हुए पूछा, 'किसकी बलि दोगे, दलपति?'

'अपने ही संस्‍थान का एक सीनियर अफसर है प्रभो!' दलपति सिंह ने कहा, 'नियम-कानून की शक्‍कर को ढोनेवाला चींटा। वैसा ही मेहनती और कतार में चलनेवाला। मेरी बड़ी इज्‍जत करता रहा है, पर हर बात आँख मूँदकर मानते हुए डरता भी रहा है। मैं उसे लाख समझाता रहा, अरे नियम कानून तो बनानेवाले हम हैं। हमारे होते क्‍यों डरते हो? जैसा कहूँ, वैसा करते चलो। मगर उस मूर्ख की अक्‍ल की गुफा का दरवाजा खुला नहीं। लाख प्रलोभनों से 'सिम-सिम खुल जा, खुल जा, खुल जा' किया, मगर सब बेकार हुआ। शुरू-शुरू में मैं उसकी बड़ी कद्र करता था। मुझे वह बहुत प्रिय था। मगर ऐसा आदमी जो हरदम नैतिकता को ब्रह्मचारी की लँगोट की तरह कसकर बाँधे रखता हो, मेरे किस काम का। मैंने काफी दिनों तक उसे सहा। अपनी आदत के विरुद्ध। मुझे खुद आश्‍चर्य है।'

'हूँ!' भोलेनाथ गंभीर हो गए।

अपने नथुने फड़काते हुए दलपति सिंह ने कहा, 'मुझे इस वक्‍त न जाने क्‍यों ऐसा महसूस हो रहा है कि मेरे पतन में मेरे उस प्रिय अफसर का भी हाथ है। भले ही मेरी उससे नहीं पटी, पर काफी समय तक मैं उस पर भरोसा करता रहा। मेरे सिस्‍टम से वह वाकिफ था। उसी ने पलीता लगाया होगा। जो शख्‍स कभी मेरी नाक का बाल था, अब उसे जड़ से उखाड़ फेंकूँगा।'

गुस्‍से में दलपति सिंह ने अपनी नाक का एक बाल उखाड़ लिया।

भोलेनाथ बोले, 'तुम्‍हारा यह निर्णय अटल है?'

'बिलकुल!' दलपति सिंह ने सीना तानकर कहा, 'एक बार जो ठान लिया, पठान की तरह मान लिया।'

भोलेनाथ कुछ सोचने लगे। बोले, 'किसी के कैरियर की बलि! यह तो नर बलि हुई। मगर शक्ति साधना के लिए उत्तम कोटि की बलि!'

'अति उत्तम कोटि की कहिए भोलेनाथ!' दलपति सिंह उत्‍साह से बोले, 'इस अफसर के सेंट्रल में जाने के चांसेज थे। अब गया काम से। इस बलि से देवी जरूर प्रसन्‍न होंगी।'

'जरूर!' भोलेनाथ बोले, 'सोचा था, मैं उनसे तुम्‍हारी सिफारिश कर दूँगा, पर तुम मेरी कल्‍पना से भी ज्‍यादा तेज निकले। सच है दलपतित नेता भी सवा लाख होता है।'

'सब आपकी इस सिद्धि का प्रताप है। दिमाग के सभी झरोखे एक साथ खुल गए।' दलपति सिंह के चेहरे पर पहली बार मुस्‍कान उभरी। गंदे जल से सहसा उछल गई एक मछली की तरह।

दलपति सिंह ने दलपतित होते हुए भी कुछ ऐसा चक्‍कर चलाया कि बेचारा ईमानदार अफसर राजनीति का शिकार बन गया। दलपति सिंह के अपकर्मों के मल ने उसके दामन को भी दागदार बना दिया। वह संदेह के घेरे में आ गया और उसके खिलाफ इन्‍क्‍वायरी की चर्चा होने लगी। इस अपमान और अन्‍याय को सह नहीं पाने के कारण उस नेक अफसर ने त्‍याग-पत्र दे दिया। इस तरह राजनीति के मारे हुए अनेक लोगों में वह भी शामिल हो गया। उसके इस्‍तीफे की खबर से दलपति सिंह को पलक झपकने भर का अफसोस हुआ जो दूसरे ही पल महाशून्‍य में विलीन हो गया। ताकतवर बनने और कुछ हासिल करने के लिए ऐसी न जाने कितनी बलियाँ जरूरी होती हैं।

उस अफसर के त्‍याग-पत्र का नैवेद्य सजाकर धूप-दीप-गंध-पुष्‍प सहित दलपति सिंह महाशक्ति की आराधना करने पहुँचे। अपने चंचल मन को बलपूर्वक बाँधकर वह देवी की वंदना करने लगे। उस अधर्मी पुरुष की धर्म के प्रति ऐसी तात्‍कालिक तन्‍मयता देखकर महिषासुर मन-ही-मन मुस्‍करा पड़ा। सिंहवाहिनी दुर्गा का त्रिशूल अगर उसके सीने में गहरे न गड़ा होता तो वह जरूर ठठाकर हँस पड़ता।

अपनी गंदी प्राण वायु से शंखनाद करते हुए दलपति सिंह ने अफसर का त्‍याग-पत्र ज्‍यों ही देवी के चरणों में डाला, देवी की आँखें खुल गईं। वे बोलीं, 'तुम दलपतित हुए दलपति सिंह हो न?'

'आपने ठीक फरमाया महादेवी!' दलपति सिंह कमर तक झुककर बोले।

मगर महाशक्ति को जीता-जागता अपने सामने देखकर दलपति सिंह का कलेजा मुँह को आ गया। कथक नाचनेवाले की तरह उनकी टाँगें थरथराने लगीं। शेर से भी उन्‍हें बड़ा डर लगता था। सर्कस में शेर के तमाशे के वक्‍त वे तंबू छोड़कर बाहर आ जाते थे। यहाँ तो साक्षात रायल बंगाल टाइगर बब्‍बर सिंह की तरह सामने डटा था।

यह देखकर महिषासुर को गुस्‍सा आ गया। उसने कहा, 'क्‍यों मेरी नाक कटा रहा है दलपति? सदियों से देवी दुर्गा का त्रिशूल सीने पर झेलते हुए उनके सामने डटा हुआ हूँ। उनका सिंह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाया। और एक तू है कि महा‍शक्ति को देखते ही थरथराने लगा! कैसा असुर है तू? तो फिर शक्ति को ग्रहण कैसे करेगा? जिसकी आराधना करता है, उसी से डरता है?'

देवी दुर्गा ने महिषासुर को टेढ़ी नजरों से देखा। महिषासुर सीधा होकर चुप हो गया।

'क्‍या चाहिए तुम्‍हें?' महादेवी ने पूछा।

दलपति सिंह ने काँपते हुए कहा, 'माँ, आप भक्‍तों के मत की बातें जानती हैं। फिर भी कहता हूँ, मुझे शक्ति का वरदान दीजिए, जिससे सत्ता हासिल कर सकूँ। सत्ता से हटते ही मैं किसी लायक नहीं रहा। मेरा अतीत मुझे डराने लगा है।'

'तुम्‍हारा अतीत ही तुम्‍हारे दलपतित होने का कारण है।'

'मुझे अपने अतीत से मुक्ति दीजिए। मैं आपका बालक हूँ। मैं क्‍या-क्‍या करता हूँ, खुद ही समझ नहीं पाता।' दलपति सिंह ने विनती करते हुए कहा, 'अगर आपने मुझे शक्ति का वरदान नहीं दिया और मेरी धन की बर्बादी को नहीं रोका तो मैं यहीं अपनी भी बलि दे दूँगा।'

देवी दुर्गा मुस्‍कराने लगीं। बोलीं, 'हठी बालक, जा तेरी मनोकामना पूरी होगी।'

'यह भी वरदान दीजिए माँ, कि मुझे धन की कमी कभी न हो, मैं निरंतर ऐश्‍वर्यशाली बना रहूँ।'

देवी ने परिहास किया, 'ऐश्‍वर्य के वाहक तो हमेशा उल्‍लू होते हैं।'

'और शक्ति के वाहक असुर!' महिषासुर ने टिप्‍पणी की। यह सुनकर सिंह गुर्राने लगा। देवी दुर्गा ने दोनों को डाँटकर चुप कराया।

दलपति सिंह कमर तक झुककर बोले, 'आपका व्‍यंग्‍य मेरे सिर माथे।'

'ऐश्‍वर्य के लिए तुम महालक्ष्‍मी को प्रसन्‍न करो। वही तुम्‍हारी धन की प्‍यास को शांत करेंगी।'

'माता, जरा आप उनसे मेरी सिफारिश कर दीजिए। वे आपका कहा नहीं टालेंगी।' दलपति सिंह ने प्रार्थना की।

'तुम उनसे मिल तो लो!' यह कहकर देवी अपनी प्रतिमा में विलीन हो गईं।

दलपति सिंह नैवेद्य सजाकर महालक्ष्‍मी की सेवा में पहुँचे। पास ही कुबेर बैठे बही-खाता देख रहे थे और आसपास कई उल्‍लू मँडरा रहे थे। उनमें से कुछ देश के भी थे, कुछ विदेश के। सब एक से बढ़कर एक थे। अद्वितीय।

दलपति सिंह को वहाँ देखकर लक्ष्‍मी का खास उल्‍लू बेचैनी से पंख फड़फड़ाने लगा। दलपति सिंह ने उस पर ध्‍यान नहीं दिया। वे सीधे देवी के चरणों में कटे हुए पेड़ की तरह गिरकर लेट गए। इसी तरह लेटे हुए उन्‍होंने अपनी पूरी विनयपत्रिका सुना दी। इसके बाद भी जब काफी देर तक वे देवी लक्ष्‍मी के चरणों में इसी तरह पड़े रहे तो चंचला लक्ष्‍मी ने एक मृदु पदाघात करके उन्‍हें उठा दिया।

दलपति सिंह को बहुत अच्‍छा लगा। पैसों के लिए लोग दिन-रात न जाने कैसों-कैसों की लातें सहते हैं। उनके लिए तो यह आशीर्वाद था। वे फिर उन चरणों की वंदना करने लगे।

दलपति सिंह की पद्धति को देखकर कई उल्‍लू हैरान होकर अपना पंख फड़फड़ाना भूल गए। कुछ देशी उल्‍लूओं को दलपति सिंह से जलन भी होने लगी।

लक्ष्‍मी बोलीं, 'तुम्‍हारी इच्‍छा का मुझे पता है। तुम महाशक्ति से आशीर्वाद लेकर आए हो। मैं तुम्‍हें निराश नहीं करूँगी। इस दीवाली पर तुम्‍हारे आँगन के पार के द्वार से घुसकर कुबेर तुम्‍हारी इच्‍छा पूरी कर देंगे। घर का दरवाजा खुला रखना, नहीं तो छप्‍पर फट जाएगा।'

दलपति सिंह खुश होकर नाचने लगे। वे बोले, 'हर दरवाजा खुला रखूँगा देवी। मगर कुबेर को लाने में देर मत करना।'

कुबेर अपने बही-खाते से सिर उठाकर बोले, 'आने में अबेर-सवेर तो हो ही सकती है। मुझे और भी लोगों के यहाँ जाना है।'

दलपति सिंह की उतावली देखकर लक्ष्‍मी हँसने लगीं। बोलीं, 'निश्चिंत रहो, दलपति!'

दलपति सिंह उमंग से दमकते हुए बाहर निकलने लगे। तभी एक सुंदर और स्‍वस्‍थ युवक ने उन्‍हें रोकते हुए कहा, 'बधाई हो, दलपतित दलपति जी!'

दलपति सिंह ने उनका वीर वेश देखकर पूछा, 'कौन हैं आप?'

'नहीं पहचाना?' उस सुदर्शन युवक ने कहा। दलपति सिंह असमंजस में पड़ गए। वे अपना सिर खुजलाने लगे। बोले, 'इधर मेरी कुछ दिनों से पहचान गड़बड़ा गई है, तभी तो दलपतित हो गया। पहचान नहीं पाया कि कौन मेरे अपने हैं, कौन पराए? सच कहूँ तो अब मुझे खुद को ही पहचानने में दिक्‍कत होती है।'

'मैं कार्तिकेय हूँ! मुझ पर भरोसा कर सकते हो। माँ महाशक्ति का आशीर्वाद तुम्‍हारे साथ है। बहन लक्ष्‍मी की कृपा तुम पर है। इसलिए मैं भी तुम्‍हारा हितैषी हुआ। अब तुम्‍हें चोट पहुँचानेवाला कोई भी व्‍यक्ति मेरा शत्रु होगा।'

दलपति सिंह गदगद होकर बोले, 'अब मैं आपको पहचान गया। मैं आपकी क्षमता को प्रणाम करता हूँ।'

कार्तिकेय बोले, 'जाते हुए तुम गणेश भैया से भी आशीर्वाद लेना मत भूलना!'

'भला मैं उन्‍हें कैसे भूल सकता हूँ। मैं तो हर समय 'श्रीगणेशजी सदा सहाय' का जाप करता रहता हूँ।'

गणेशजी द्वार के पास ही पद्मासन लगाए बैठे थे। उनका नटखट चूहा उनकी धोती में घुसकर उछल-कूद मचा रहा था। वे उसे डाँट रहे थे।

गणेशजी के सामने खड़े होकर दलपति सिंह बोले, 'भक्‍त दलपति का प्रणाम स्‍वीकार करें देव!'

गणेशजी ने सूँड़ हिलाते हुए आशीर्वाद दिया, 'सौभाग्‍यशाली बनो! तुम्‍हारा हर कर्म सफल हो!'

'कुकर्म भी?' कहते हुए दलपति सिंह ने अपनी जीभ काट ली। अक्‍सर उनकी जुबान से शब्‍द फिसल जाते थे। जैसा कि इस वक्‍त भी हुआ। वे घबड़ा गए, कहीं गणेशजी नाराज न हो जाएँ।

मगर गणेशजी नाराज नहीं हुए। वे दलपति सिंह को सौभाग्‍य का वरदान दे चुके थे।

गणेशजी गंभीर होकर बोले, 'अब तुम समर्थ व्‍यक्ति हो गए हो दलपति! समर्थ व्‍यक्तियों के कुकर्म भी सत्‍कर्म बन जाते हैं। उनसे भी कई लोगों का हित सधता है। समरथ को दोष नहीं लगता।'

'आपकी कृपा दृष्टि मुझ पर ऐसे ही बनी रहे।' दलपति सिंह हाथ जोड़कर बोले।

गणेशजी ने गौर से दलपति सिंह को ओर देखा। उन्‍हें उनके बालों में एक जूँ चलती हुई नजर आई। दलपति सिंह का खून चूसकर जूँ बहुत पुष्‍ट हो गई थी। गणेशजी ने सूँड़ की फूँक से उस जूँ को लापता कर दिया।

दलपति सिंह गदगद होकर गणेश वंदना करने लगे, 'जय हो विघ्‍न विनाशक!' उनके सिर की खुजली शांत हो चुकी थी। उनका उद्वेग शांत हो चुका था। दलपति सिंह को लग रहा था, जैसे वे महाशक्ति में तैर रहे हों।

गणेशजी से विदा लेकर, अपना झुका हुआ माथा अब गर्व से उठाकर दलपति सिंह वहाँ से चल पड़े। अकड़ के मारे उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। शक्ति के प्रताप से उनके शरीर में इतना उत्ताप भर गया था कि वे जिधर से गुजर रहे थे उधर की हरियाली तक झुलसी जा रही थी।

वहीं नजदीक ही सरोवर के किनारे एक कुंज में देवी सरस्‍वती अपने ध्‍यान में डूबी हुई वीणा बजा रही थीं। वीणा की मधुर स्‍वर-लहरियों से पूरे वातावरण में दिव्‍यता छा गई थी। ठंडी-ठंडी हवाओं में तैरते हुए वीणा के स्‍वर्गिक स्‍वर ने पूरे परिवेश को सुहावना बना दिया था।

अचानक सरस्‍वती को मौसम कुछ बदला हुआ नजर आया। हवा कुछ गर्म हो गई थी। सरस्‍वती की उँगलियाँ रुक गईं। उनका ध्‍यान भंग हो गया। उन्‍होंने एक व्‍यक्ति को चपल गति से उधर से गुजरते हुए देखा। तभी दलपति सिंह की नजरें भी देवी सरस्‍वती पर पड़ीं। दलपति सिंह ने अपना मुँह मोड़ लिया और झाड़ियों को लाँघते हुए वे विपरीत दिशा में चले गए।

सरस्‍वती ने चकित होकर हंस से पूछा, 'कौन था यह उद्धत व्‍यक्ति?'

हंस बोला, 'माँ दुर्गा, देवी लक्ष्‍मी, भैया कार्तिकेय और गणेशजी का नवीनतम कृपापात्र! एक सत्ताधारी धनपति!'

'धनपति!' सरस्‍वती के स्‍वर में व्‍यंग्‍य उभरा। बोलीं, 'पर यह इतना उद्धत क्‍यों है? क्‍या इसे हमारा आदर नहीं करना चाहिए? क्‍या यह हमें पहचान नहीं पाया?'

'इसे आपके आशीर्वाद की जरूरत नहीं है देवी!' हंस ने कहा, 'अब यह अपने धन की ताकत से हर चीज हासिल कर लेगा। विद्या-बुद्धि को पैसों से तौलेगा। विद्वानों को भरी सभा में उपदेश देगा। जिसके पास सत्ता है और धन है, वह आज सबसे बड़ी ताकत है। अब विद्वानों से ज्‍यादा सम्‍मान सत्ता पर बैठे लोग और पैसेवाले पाते हैं। वे हर जगह पूजे जाते हैं।'

'इतनी गलत बात लोग कैसे मान लेते हैं?' सरस्‍वती चकित होकर बोलीं।

'एक गरीब देश की य‍ही नियति होती है।' हंस बोला।

सरस्‍वती उदास होकर वीणा के तारों पर अपनी उँगलियाँ फेरने लगीं।

~अमर गोस्वामी 

Friday 23 March 2018

पुरस्कार

आर्द्रा नक्षत्र; आकाश में काले-काले बादलों की घुमड़, जिसमें देव-दुन्दुभी का गम्भीर घोष। प्राची के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण-पुरुष झाँकने लगा था।-देखने लगा महाराज की सवारी। शैलमाला के अञ्चल में समतल उर्वरा भूमि से सोंधी बास उठ रही थी। नगर-तोरण से जयघोष हुआ, भीड़ में गजराज का चामरधारी शुण्ड उन्नत दिखायी पड़ा। वह हर्ष और उत्साह का समुद्र हिलोर भरता हुआ आगे बढ़ने लगा।

प्रभात की हेम-किरणों से अनुरञ्जित नन्ही-नन्ही बूँदों का एक झोंका स्वर्ण-मल्लिका के समान बरस पड़ा। मंगल सूचना से जनता ने हर्ष-ध्वनि की।

रथों, हाथियों और अश्वारोहियों की पंक्ति जम गई। दर्शकों की भीड़ भी कम न थी। गजराज बैठ गया, सीढिय़ों से महाराज उतरे। सौभाग्यवती और कुमारी सुन्दरियों के दो दल, आम्रपल्लवों से सुशोभित मंगल-कलश और फूल, कुंकुम तथा खीलों से भरे थाल लिए, मधुर गान करते हुए आगे बढ़े।

महाराज के मुख पर मधुर मुस्क्यान थी। पुरोहित-वर्ग ने स्वस्त्ययन किया। स्वर्ण-रञ्जित हल की मूठ पकड़ कर महाराज ने जुते हुए सुन्दर पुष्ट बैलों को चलने का संकेत किया। बाजे बजने लगे। किशोरी कुमारियों ने खीलों और फूलों की वर्षा की।

कोशल का यह उत्सव प्रसिद्ध था। एक दिन के लिए महाराज को कृषक बनना पड़ता-उस दिन इंद्र-पूजन की धूम-धाम होती; गोठ होती। नगर-निवासी उस पहाड़ी भूमि में आनन्द मनाते। प्रतिवर्ष कृषि का यह महोत्सव उत्साह से सम्पन्न होता; दूसरे राज्यों से भी युवक राजकुमार इस उत्सव में बड़े चाव से आकर योग देते।

मगध का एक राजकुमार अरुण अपने रथ पर बैठा बड़े कुतूहल से यह दृश्य देख रहा था।

बीजों का एक बाल लिये कुमारी मधूलिका महाराज के साथ थी। बीज बोते हुए महाराज जब हाथ बढ़ाते, तब मधूलिका उनके सामने थाल कर देती। यह खेत मधूलिका का था, जो इस साल महाराज की खेती के लिए चुना गया था; इसलिए बीज देने का सम्मान मधूलिका ही को मिला। वह कुमारी थी। सुन्दरी थी। कौशेयवसन उसके शरीर पर इधर-उधर लहराता हुआ स्वयं शोभित हो रहा था। वह कभी उसे सम्हालती और कभी अपने रूखे अलकों को। कृषक बालिका के शुभ्र भाल पर श्रमकणों की भी कमी न थी, वे सब बरौनियों में गुँथे जा रहे थे। सम्मान और लज्जा उसके अधरों पर मन्द मुस्कराहट के साथ सिहर उठते; किन्तु महाराज को बीज देने में उसने शिथिलता नहीं की। सब लोग महाराज का हल चलाना देख रहे थे-विस्मय से, कुतूहल से। और अरुण देख रहा था कृषक कुमारी मधूलिका को। अहा कितना भोला सौन्दर्य! कितनी सरल चितवन!

उत्सव का प्रधान कृत्य समाप्त हो गया। महाराज ने मधूलिका के खेत का पुरस्कार दिया, थाल में कुछ स्वर्ण मुद्राएँ। वह राजकीय अनुग्रह था। मधूलिका ने थाली सिर से लगा ली; किन्तु साथ उसमें की स्वर्णमुद्राओं को महाराज पर न्योछावर करके बिखेर दिया। मधूलिका की उस समय की ऊर्जस्वित मूर्ति लोग आश्चर्य से देखने लगे! महाराज की भृकुटी भी जरा चढ़ी ही थी कि मधूलिका ने सविनय कहा-

देव! यह मेरे पितृ-पितामहों की भूमि है। इसे बेचना अपराध है; इसलिए मूल्य स्वीकार करना मेरी सामथ्र्य के बाहर है। महाराज के बोलने के पहले ही वृद्ध मन्त्री ने तीखे स्वर से कहा-अबोध! क्या बक रही है? राजकीय अनुग्रह का तिरस्कार! तेरी भूमि से चौगुना मूल्य है; फिर कोशल का तो यह सुनिश्चित राष्ट्रीय नियम है। तू आज से राजकीय रक्षण पाने की अधिकारिणी हुई, इस धन से अपने को सुखी बना।

राजकीय रक्षण की अधिकारिणी तो सारी प्रजा है, मन्त्रिवर! .... महाराज को भूमि-समर्पण करने में तो मेरा कोई विरोध न था और न है; किन्तु मूल्य स्वीकार करना असम्भव है।-मधूलिका उत्तेजित हो उठी।

महाराज के संकेत करने पर मन्त्री ने कहा-देव! वाराणसी-युद्ध के अन्यतम वीर सिंहमित्र की यह एक-मात्र कन्या है।-महाराज चौंक उठे-सिंहमित्र की कन्या! जिसने मगध के सामने कोशल की लाज रख ली थी, उसी वीर की मधूलिका कन्या है?

हाँ, देव! -सविनय मन्त्री ने कहा।

इस उत्सव के पराम्परागत नियम क्या हैं, मन्त्रिवर?-महाराज ने पूछा।

देव, नियम तो बहुत साधारण हैं। किसी भी अच्छी भूमि को इस उत्सव के लिए चुनकर नियमानुसार पुरस्कार-स्वरूप उसका मूल्य दे दिया जाता है। वह भी अत्यन्त अनुग्रहपूर्वक अर्थात् भू-सम्पत्ति का चौगुना मूल्य उसे मिलता है। उस खेती को वही व्यक्ति वर्ष भर देखता है। वह राजा का खेत कहा जाता है।

महाराज को विचार-संघर्ष से विश्राम की अत्यन्त आवश्यकता थी। महाराज चुप रहे। जयघोष के साथ सभा विसर्जित हुई। सब अपने-अपने शिविरों में चले गये। किन्तु मधूलिका को उत्सव में फिर किसी ने न देखा। वह अपने खेत की सीमा पर विशाल मधूक-वृक्ष के चिकने हरे पत्तों की छाया में अनमनी चुपचाप बैठी रही।

रात्रि का उत्सव अब विश्राम ले रहा था। राजकुमार अरुण उसमें सम्मिलित नहीं हुआ-अपने विश्राम-भवन में जागरण कर रहा था। आँखों में नींद न थी। प्राची में जैसी गुलाली खिल रही थी, वह रंग उसकी आँखों में था। सामने देखा तो मुण्डेर पर कपोती एक पैर पर खड़ी पंख फैलाये अँगड़ाई ले रही थी। अरुण उठ खड़ा हुआ। द्वार पर सुसज्जित अश्व था, वह देखते-देखते नगर-तोरण पर जा पहुँचा। रक्षक-गण ऊँघ रहे थे, अश्व के पैरों के शब्द से चौंक उठे।

युवक-कुमार तीर-सा निकल गया। सिन्धुदेश का तुरंग प्रभात के पवन से पुलकित हो रहा था। घूमता-घूमता अरुण उसी मधूक-वृक्ष के नीचे पहुँचा, जहाँ मधूलिका अपने हाथ पर सिर धरे हुए खिन्न-निद्रा का सुख ले रही थी।

अरुण ने देखा, एक छिन्न माधवीलता वृक्ष की शाखा से च्युत होकर पड़ी है। सुमन मुकुलित, भ्रमर निस्पन्द थे। अरुण ने अपने अश्व को मौन रहने का संकेत किया, उस सुषमा को देखने लिए, परन्तु कोकिल बोल उठा। जैसे उसने अरुण से प्रश्न किया-छि:, कुमारी के सोये हुए सौन्दर्य पर दृष्टिपात करनेवाले धृष्ट, तुम कौन? मधूलिका की आँखे खुल पड़ीं। उसने देखा, एक अपरिचित युवक। वह संकोच से उठ बैठी। -भद्रे! तुम्हीं न कल के उत्सव की सञ्चालिका रही हो?

उत्सव! हाँ, उत्सव ही तो था।

कल उस सम्मान....

क्यों आपको कल का स्वप्न सता रहा है? भद्र! आप क्या मुझे इस अवस्था में सन्तुष्ट न रहने देंगे?

मेरा हृदय तुम्हारी उस छवि का भक्त बन गया है, देवि!

मेरे उस अभिनय का-मेरी विडम्बना का। आह! मनुष्य कितना निर्दय है, अपरिचित! क्षमा करो, जाओ अपने मार्ग।

सरलता की देवि! मैं मगध का राजकुमार तुम्हारे अनुग्रह का प्रार्थी हूँ-मेरे हृदय की भावना अवगुण्ठन में रहना नहीं जानती। उसे अपनी....।

राजकुमार! मैं कृषक-बालिका हूँ। आप नन्दनबिहारी और मैं पृथ्वी पर परिश्रम करके जीनेवाली। आज मेरी स्नेह की भूमि पर से मेरा अधिकार छीन लिया गया है। मैं दु:ख से विकल हूँ; मेरा उपहास न करो।

मैं कोशल-नरेश से तुम्हारी भूमि तुम्हें दिलवा दूंगा।

नहीं, वह कोशल का राष्ट्रीय नियम है। मैं उसे बदलना नहीं चाहती-चाहे उससे मुझे कितना ही दु:ख हो।

तब तुम्हारा रहस्य क्या है?

यह रहस्य मानव-हृदय का है, मेरा नहीं। राजकुमार, नियमों से यदि मानव-हृदय बाध्य होता, तो आज मगध के राजकुमार का हृदय किसी राजकुमारी की ओर न खिंच कर एक कृषक-बालिका का अपमान करने न आता। मधूलिका उठ खड़ी हुई।

चोट खाकर राजकुमार लौट पड़ा। किशोर किरणों में उसका रत्नकिरीट चमक उठा। अश्व वेग से चला जा रहा था और मधूलिका निष्ठुर प्रहार करके क्या स्वयं आहत न हुई? उसके हृदय में टीस-सी होने लगी। वह सजल नेत्रों से उड़ती हुई धूल देखने लगी।

मधूलिका ने राजा का प्रतिपादन, अनुग्रह नहीं लिया। वह दूसरे खेतों में काम करती और चौथे पहर रूखी-सूखी खाकर पड़ रहती। मधूक-वृक्ष के नीचे छोटी-सी पर्णकुटीर थी। सूखे डंठलों से उसकी दीवार बनी थी। मधूलिका का वही आश्रय था। कठोर परिश्रम से जो रूखा अन्न मिलता, वही उसकी साँसों को बढ़ाने के लिए पर्याप्त था।

दुबली होने पर भी उसके अंग पर तपस्या की कान्ति थी। आस-पास के कृषक उसका आदर करते। वह एक आदर्श बालिका थी। दिन, सप्ताह, महीने और वर्ष बीतने लगे।

शीतकाल की रजनी, मेघों से भरा आकाश, जिसमें बिजली की दौड़-धूप। मधूलिका का छाजन टपक रहा था! ओढऩे की कमी थी। वह ठिठुरकर एक कोने में बैठी थी। मधूलिका अपने अभाव को आज बढ़ाकर सोच रही थी। जीवन से सामञ्जस्य बनाये रखने वाले उपकरण तो अपनी सीमा निर्धारित रखते हैं; परन्तु उनकी आवश्यकता और कल्पना भावना के साथ बढ़ती-घटती रहती है। आज बहुत दिनों पर उसे बीती हुई बात स्मरण हुई। दो, नहीं-नहीं, तीन वर्ष हुए होंगे, इसी मधूक के नीचे प्रभात में-तरुण राजकुमार ने क्या कहा था?

वह अपने हृदय से पूछने लगी-उन चाटुकारी के शब्दों को सुनने के लिए उत्सुक-सी वह पूछने लगी-क्या कहा था? दु:ख-दग्ध हृदय उन स्वप्न-सी बातों को स्मरण रख सकता था? और स्मरण ही होता, तो भी कष्टों की इस काली निशा में वह कहने का साहस करता। हाय री बिडम्बना!

आज मधूलिका उस बीते हुए क्षण को लौटा लेने के लिए विकल थी। दारिद्रय की ठोकरों ने उसे व्यथित और अधीर कर दिया है। मगध की प्रासाद-माला के वैभव का काल्पनिक चित्र-उन सूखे डंठलों के रन्ध्रों से, नभ में-बिजली के आलोक में-नाचता हुआ दिखाई देने लगा। खिलवाड़ी शिशु जैसे श्रावण की सन्ध्या में जुगनू को पकड़ने के लिए हाथ लपकाता है, वैसे ही मधूलिका मन-ही-मन कर रही थी। 'अभी वह निकल गया'। वर्षा ने भीषण रूप धारण किया। गड़गड़ाहट बढ़ने लगी; ओले पड़ने की सम्भावना थी। मधूलिका अपनी जर्जर झोपड़ी के लिए काँप उठी। सहसा बाहर कुछ शब्द हुआ-

कौन है यहाँ? पथिक को आश्रय चाहिए।

मधूलिका ने डंठलों का कपाट खोल दिया। बिजली चमक उठी। उसने देखा, एक पुरुष घोड़े की डोर पकड़े खड़ा है। सहसा वह चिल्ला उठी-राजकुमार!

मधूलिका?-आश्चर्य से युवक ने कहा।

एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। मधूलिका अपनी कल्पना को सहसा प्रत्यक्ष देखकर चकित हो गई -इतने दिनों के बाद आज फिर!

अरुण ने कहा-कितना समझाया मैंने-परन्तु.....

मधूलिका अपनी दयनीय अवस्था पर संकेत करने देना नहीं चाहती थी। उसने कहा-और आज आपकी यह क्या दशा है?

सिर झुकाकर अरुण ने कहा-मैं मगध का विद्रोही निर्वासित कोशल में जीविका खोजने आया हूँ।

मधूलिका उस अन्धकार में हँस पड़ी-मगध का विद्रोही राजकुमार का स्वागत करे एक अनाथिनी कृषक-बालिका, यह भी एक विडम्बना है, तो भी मैं स्वागत के लिए प्रस्तुत हूँ।

शीतकाल की निस्तब्ध रजनी, कुहरे से धुली हुई चाँदनी, हाड़ कँपा देनेवाला समीर, तो भी अरुण और मधूलिका दोनों पहाड़ी गह्वर के द्वार पर वट-वृक्ष के नीचे बैठे हुए बातें कर रहे हैं। मधूलिका की वाणी में उत्साह था, किन्तु अरुण जैसे अत्यन्त सावधान होकर बोलता।

मधूलिका ने पूछा-जब तुम इतनी विपन्न अवस्था में हो, तो फिर इतने सैनिकों को साथ रखने की क्या आवश्यकता है?

मधूलिका! बाहुबल ही तो वीरों की आजीविका है। ये मेरे जीवन-मरण के साथी हैं, भला मैं इन्हें कैसे छोड़ देता? और करता ही क्या?

क्यों? हम लोग परिश्रम से कमाते और खाते। अब तो तुम...।

भूल न करो, मैं अपने बाहुबल पर भरोसा करता हूँ। नये राज्य की स्थापना कर सकता हूँ। निराश क्यों हो जाऊँ?-अरुण के शब्दों में कम्पन था; वह जैसे कुछ कहना चाहता था; पर कह न सकता था।

नवीन राज्य! ओहो, तुम्हारा उत्साह तो कम नहीं। भला कैसे? कोई ढंग बताओ, तो मैं भी कल्पना का आनन्द ले लूँ।

कल्पना का आनन्द नहीं मधूलिका, मैं तुम्हे राजरानी के सम्मान में सिंहासन पर बिठाऊँगा! तुम अपने छिने हुए खेत की चिन्ता करके भयभीत न हो।

एक क्षण में सरल मधूलिका के मन में प्रमाद का अन्धड़ बहने लगा-द्वन्द्व मच गया। उसने सहसा कहा-आह, मैं सचमुच आज तक तुम्हारी प्रतीक्षा करती थी, राजकुमार!

अरुण ढिठाई से उसके हाथों को दबाकर बोला-तो मेरा भ्रम था, तुम सचमुच मुझे प्यार करती हो?

युवती का वक्षस्थल फूल उठा, वह हाँ भी नहीं कह सकी, ना भी नहीं। अरुण ने उसकी अवस्था का अनुभव कर लिया। कुशल मनुष्य के समान उसने अवसर को हाथ से न जाने दिया। तुरन्त बोल उठा-तुम्हारी इच्छा हो, तो प्राणों से पण लगाकर मैं तुम्हें इस कोशल-सिंहासन पर बिठा दूँ। मधूलिके! अरुण के खड्ग का आतंक देखोगी?-मधूलिका एक बार काँप उठी। वह कहना चाहती थी...नहीं; किन्तु उसके मुँह से निकला-क्या?

सत्य मधूलिका, कोशल-नरेश तभी से तुम्हारे लिए चिन्तित हैं। यह मैं जानता हूँ, तुम्हारी साधारण-सी प्रार्थना वह अस्वीकार न करेंगे। और मुझे यह भी विदित है कि कोशल के सेनापति अधिकांश सैनिको के साथ पहाड़ी दस्युओं का दमन करने के लिए बहुत दूर चले गये हैं।

मधूलिका की आँखों के आगे बिजलियाँ हँसने लगी। दारुण भावना से उसका मस्तक विकृत हो उठा। अरुण ने कहा-तुम बोलती नहीं हो?

जो कहोगे, वह करूँगी....मन्त्रमुग्ध-सी मधूलिका ने कहा।

स्वर्णमञ्च पर कोशल-नरेश अर्द्धनिद्रित अवस्था में आँखे मुकुलित किये हैं। एक चामधारिणी युवती पीछे खड़ी अपनी कलाई बड़ी कुशलता से घुमा रही है। चामर के शुभ्र आन्दोलन उस प्रकोष्ठ में धीरे-धीरे सञ्चलित हो रहे हैं। ताम्बूल-वाहिनी प्रतिमा के समान दूर खड़ी है।

प्रतिहारी ने आकर कहा-जय हो देव! एक स्त्री कुछ प्रार्थना लेकर आई है।

आँख खोलते हुए महाराज ने कहा-स्त्री! प्रार्थना करने आई? आने दो।

प्रतिहारी के साथ मधूलिका आई। उसने प्रणाम किया। महाराज ने स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखा और कहा-तुम्हें कहीं देखा है?

तीन बरस हुए देव! मेरी भूमि खेती के लिए ली गई थी।

ओह, तो तुमने इतने दिन कष्ट में बिताये, आज उसका मूल्य माँगने आई हो, क्यों? अच्छा-अच्छा तुम्हें मिलेगा। प्रतिहारी!

नहीं महाराज, मुझे मूल्य नहीं चाहिए।

मूर्ख! फिर क्या चाहिए?

उतनी ही भूमि, दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की जंगली भूमि, वहीं मैं अपनी खेती करूँगी। मुझे एक सहायक मिल गया है। वह मनुष्यों से मेरी सहायता करेगा, भूमि को समतल भी बनाना होगा।

महाराज ने कहा-कृषक बालिके! वह बड़ी उबड़-खाबड़ भूमि है। तिस पर वह दुर्ग के समीप एक सैनिक महत्व रखती है।

तो फिर निराश लौट जाऊँ?

सिंहमित्र की कन्या! मैं क्या करूँ, तुम्हारी यह प्रार्थना....

देव! जैसी आज्ञा हो!

जाओ, तुम श्रमजीवियों को उसमें लगाओ। मैं अमात्य को आज्ञापत्र देने का आदेश करता हूँ।

जय हो देव!-कहकर प्रणाम करती हुई मधूलिका राजमन्दिर के बाहर आई।

दुर्ग के दक्षिण, भयावने नाले के तट पर, घना जंगल है, आज मनुष्यों के पद-सञ्चार से शून्यता भंग हो रही थी। अरुण के छिपे वे मनुष्य स्वतन्त्रता से इधर-उधर घूमते थे। झाड़ियों को काट कर पथ बन रहा था। नगर दूर था, फिर उधर यों ही कोई नहीं आता था। फिर अब तो महाराज की आज्ञा से वहाँ मधूलिका का अच्छा-सा खेत बन रहा था। तब इधर की किसको चिन्ता होती?

एक घने कुञ्ज में अरुण और मधूलिका एक दूसरे को हर्षित नेत्रों से देख रहे थे। सन्ध्या हो चली थी। उस निविड़ वन में उन नवागत मनुष्यों को देखकर पक्षीगण अपने नीड़ को लौटते हुए अधिक कोलाहल कर रहे थे।

प्रसन्नता से अरुण की आँखे चमक उठीं। सूर्य की अन्तिम किरण झुरमुट में घुसकर मधूलिका के कपोलों से खेलने लगी। अरुण ने कहा-चार प्रहर और, विश्वास करो, प्रभात में ही इस जीर्ण-कलेवर कोशल-राष्ट्र की राजधानी श्रावस्ती में तुम्हारा अभिषेक होगा और मगध से निर्वासित मैं एक स्वतन्त्र राष्ट्र का अधिपति बनूँगा, मधूलिके!

भयानक! अरुण, तुम्हारा साहस देखकर मैं चकित हो रही हूँ। केवल सौ सैनिकों से तुम...

रात के तीसरे प्रहर मेरी विजय-यात्रा होगी।

तो तुमको इस विजय पर विश्वास है?

अवश्य, तुम अपनी झोपड़ी में यह रात बिताओ; प्रभात से तो राज-मन्दिर ही तुम्हारा लीला-निकेतन बनेगा।

मधूलिका प्रसन्न थी; किन्तु अरुण के लिए उसकी कल्याण-कामना सशंक थी। वह कभी-कभी उद्विग्न-सी होकर बालकों के समान प्रश्न कर बैठती। अरुण उसका समाधान कर देता। सहसा कोई संकेत पाकर उसने कहा-अच्छा, अन्धकार अधिक हो गया। अभी तुम्हें दूर जाना है और मुझे भी प्राण-पण से इस अभियान के प्रारम्भिक कार्यों को अर्द्धरात्रि तक पूरा कर लेना चाहिए; तब रात्रि भर के लिए विदा! मधूलिके!

मधूलिका उठ खड़ी हुई। कँटीली झाड़ियों से उलझती हुई क्रम से, बढ़नेवाले अन्धकार में वह झोपड़ी की ओर चली।

पथ अन्धकारमय था और मधूलिका का हृदय भी निविड़-तम से घिरा था। उसका मन सहसा विचलित हो उठा, मधुरता नष्ट हो गई। जितनी सुख-कल्पना थी, वह जैसे अन्धकार में विलीन होने लगी। वह भयभीत थी, पहला भय उसे अरुण के लिए उत्पन्न हुआ, यदि वह सफल न हुआ तो? फिर सहसा सोचने लगी-वह क्यों सफल हो? श्रावस्ती दुर्ग एक विदेशी के अधिकार में क्यों चला जाय? मगध का चिरशत्रु! ओह, उसकी विजय! कोशल-नरेश ने क्या कहा था-'सिंहमित्र की कन्या।' सिंहमित्र, कोशल का रक्षक वीर, उसी की कन्या आज क्या करने जा रही है? नहीं, नहीं, मधूलिका! मधूलिका!!' जैसे उसके पिता उस अन्धकार में पुकार रहे थे। वह पगली की तरह चिल्ला उठी। रास्ता भूल गई।

रात एक पहर बीत चली, पर मधूलिका अपनी झोपड़ी तक न पहुँची। वह उधेड़बुन में विक्षिप्त-सी चली जा रही थी। उसकी आँखों के सामने कभी सिंहमित्र और कभी अरुण की मूर्ति अन्धकार में चित्रित होती जाती। उसे सामने आलोक दिखाई पड़ा। वह बीच पथ में खड़ी हो गई। प्राय: एक सौ उल्काधारी अश्वारोही चले आ रहे थे और आगे-आगे एक वीर अधेड़ सैनिक था। उसके बायें हाथ में अश्व की वल्गा और दाहिने हाथ में नग्न खड्ग। अत्यन्त धीरता से वह टुकड़ी अपने पथ पर चल रही थी। परन्तु मधूलिका बीच पथ से हिली नहीं। प्रमुख सैनिक पास आ गया; पर मधूलिका अब भी नहीं हटी। सैनिक ने अश्व रोककर कहा-कौन? कोई उत्तर नहीं मिला। तब तक दूसरे अश्वारोही ने सड़क पर कहा-तू कौन है, स्त्री? कोशल के सेनापति को उत्तर शीघ्र दे।

रमणी जैसे विकार-ग्रस्त स्वर में चिल्ला उठी-बाँध लो, मुझे बाँध लो! मेरी हत्या करो। मैंने अपराध ही ऐसा किया है।

सेनापति हँस पड़े, बोले-पगली है।

पगली नहीं, यदि वही होती, तो इतनी विचार-वेदना क्यों होती? सेनापति! मुझे बाँध लो। राजा के पास ले चलो।

क्या है, स्पष्ट कह!

श्रावस्ती का दुर्ग एक प्रहर में दस्युओं के हस्तगत हो जायेगा। दक्षिणी नाले के पार उनका आक्रमण होगा।

सेनापति चौंक उठे। उन्होंने आश्चर्य से पूछा-तू क्या कह रही है?

मैं सत्य कह रही हूँ; शीघ्रता करो।

सेनापति ने अस्सी सैनिकों को नाले की ओर धीरे-धीरे बढ़ने की आज्ञा दी और स्वयं बीस अश्वारोहियों के साथ दुर्ग की ओर बढ़े। मधूलिका एक अश्वारोही के साथ बाँध दी गई।

श्रावस्ती का दुर्ग, कोशल राष्ट्र का केन्द्र, इस रात्रि में अपने विगत वैभव का स्वप्न देख रहा था। भिन्न राजवंशों ने उसके प्रान्तों पर अधिकार जमा लिया है। अब वह केवल कई गाँवों का अधिपति है। फिर भी उसके साथ कोशल के अतीत की स्वर्ण-गाथाएँ लिपटी हैं। वही लोगों की ईष्र्या का कारण है। जब थोड़े से अश्वारोही बड़े वेग से आते हुए दुर्ग-द्वार पर रुके, तब दुर्ग के प्रहरी चौंक उठे। उल्का के आलोक में उन्होंने सेनापति को पहचाना, द्वार खुला। सेनापति घोड़े की पीठ से उतरे। उन्होंने कहा-अग्निसेन! दुर्ग में कितने सैनिक होंगे?

सेनापति की जय हो! दो सौ ।

उन्हें शीघ्र ही एकत्र करो; परन्तु बिना किसी शब्द के। सौ को लेकर तुम शीघ्र ही चुपचाप दुर्ग के दक्षिण की ओर चलो। आलोक और शब्द न हों।

सेनापति ने मधूलिका की ओर देखा। वह खोल दी गई। उसे अपने पीछे आने का संकेत कर सेनापति राजमन्दिर की ओर बढ़े। प्रतिहारी ने सेनापति को देखते ही महाराज को सावधान किया। वह अपनी सुख-निद्रा के लिये प्रस्तुत हो रहे थे; किन्तु सेनापति और साथ में मधूलिका को देखते ही चञ्चल हो उठे। सेनापति ने कहा-जय हो देव! इस स्त्री के कारण मुझे इस समय उपस्थित होना पड़ा है।

महाराज ने स्थिर नेत्रों से देखकर कहा-सिंहमित्र की कन्या! फिर यहाँ क्यों? क्या तुम्हारा क्षेत्र नहीं बन रहा है? कोई बाधा? सेनापति! मैंने दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की भूमि इसे दी है। क्या उसी सम्बन्ध में तुम कहना चाहते हो?

देव! किसी गुप्त शत्रु ने उसी ओर से आज की रात में दुर्ग पर अधिकार कर लेने का प्रबन्ध किया है और इसी स्त्री ने मुझे पथ में यह सन्देश दिया है।

राजा ने मधूलिका की ओर देखा। वह काँप उठी। घृणा और लज्जा से वह गड़ी जा रही थी। राजा ने पूछा-मधूलिका, यह सत्य है!

हाँ, देव!

राजा ने सेनापति से कहा-सैनिकों को एकत्र करके तुम चलो मैं अभी आता हूँ। सेनापति के चले जाने पर राजा ने कहा-सिंहमित्र की कन्या! तुमने एक बार फिर कोशल का उपकार किया। यह सूचना देकर तुमने पुरस्कार का काम किया है। अच्छा, तुम यहीं ठहरो। पहले उन आतताईयों का प्रबन्ध कर लूँ।

अपने साहसिक अभियान में अरुण बन्दी हुआ और दुर्ग उल्का के आलोक में अतिरञ्जित हो गया। भीड़ ने जयघोष किया। सबके मन में उल्लास था। श्रावस्ती-दुर्ग आज एक दस्यु के हाथ में जाने से बचा था। आबाल-वृद्ध-नारी आनन्द से उन्मत्त हो उठे।

ऊषा के आलोक में सभा-मण्डप दर्शकों से भर गया। बन्दी अरुण को देखते ही जनता ने रोष से हूँकार करते हुए कहा-'वध करो!' राजा ने सबसे सहमत होकर आज्ञा दी-'प्राण दण्ड।' मधूलिका बुलायी गई। वह पगली-सी आकर खड़ी हो गई। कोशल-नरेश ने पूछा-मधूलिका, तुझे जो पुरस्कार लेना हो, माँग। वह चुप रही।

राजा ने कहा-मेरी निज की जितनी खेती है, मैं सब तुझे देता हूँ। मधूलिका ने एक बार बन्दी अरुण की ओर देखा। उसने कहा-मुझे कुछ न चाहिए। अरुण हँस पड़ा। राजा ने कहा-नहीं, मैं तुझे अवश्य दूँगा। माँग ले।

तो मुझे भी प्राणदण्ड मिले। कहती हुई वह बन्दी अरुण के पास जा खड़ी हुई।

~जयशंकर प्रसाद 

पागल

पुरुष : "तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुंदर हो जाती है।" स्त्री : "जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों ...