Saturday 24 February 2018

मैं बुलाता तो हूँ उस को मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल

मैं बुलाता तो हूँ उस को मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल,
उस पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने.

खेल समझा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए,
काश यूँ भी हो कि बिन मेरे सताए न बने.

ग़ैर फिरता है लिए यूँ तिरे ख़त को कि अगर,
कोई पूछे कि ये क्या है तो छुपाए न बने.

उस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या,
हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने.

कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है,
पर्दा छोड़ा है वो उस ने कि उठाए न बने.

मौत की राह न देखूँ कि बिन आए न रहे,
तुम को चाहूँ कि न आओ तो बुलाए न बने.

बोझ वो सर से गिरा है कि उठाए न उठे,
काम वो आन पड़ा है कि बनाए न बने.

इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने.

~मिर्ज़ा ग़ालिब

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