Sunday 1 April 2018

जंगल में बारिश

बारिश हो रही है लगातार
सामने दिखते उस जंगल में
यद्यपि वह सचमुच जंगल नहीं है
दूर तक पसरे हैं घने पेड़
पेड़ों के कुनबे बेरोक-टोक बढ़ते जा रहे हैं
वे ही जंगल होने का भ्रम देते हैं
बारिश हो रही है लगातार
मैं आठवीं मंजिल पर हूँ
और हैरत में भरकर देख रही हूँ
पेड़ों को इस तरह नहाते हुए बरखा में
महानगर के
पेड़ काटो और बसो अभियान से
भाग्य से बच गए ये दरख्त
राहत की साँस ले रहे हैं
अपनी मृत्यु से छूटकर मजे कर रहे हैं
इस झिमझिम वर्षा में
हो रहे है निहाल
वृक्ष झूम रहे हैं इधर से उधर
भीगी हवा चल रही है
आसमान से लटकती
बूँदों की असंख्य मोती-झालरें
हवा के ठेलने से
बाएँ से दाएँ चली जा रही हैं
लहरें बनाती हुई
पी रहे हैं झरती बूँदों को ये श्याम-तन
खामोशी से
दुनिया से छुपकर रस पीने में तल्लीन हैं
ये नहीं है हम-जैसे मानव-तनधारी
फिर भी क्यों लगते हैं इतने सगे
जैसे हों कोई भाई-बंधु हमारे
इनसे एक नाता जरूर है हमारा
ये हैं हमारे ही पुरखे
खून दौड़ रहा है एक ही
उनकी और हमारी शिराओं में
विकास की यात्रा में चलते-चलते
वे खड़े-खड़े सुस्ताते हुए
जम गए जमीन में
रुक गए थककर राह में ही
लेकिन वे रहते हैं तैयार हमेशा
आते-जाते हुए काफिले को
अपना सब कुछ दे देने के लिए
अपनी देह तक।

~अंजना वर्मा 

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