Friday 9 March 2018

उसके जाने के बाद

मैंने वक्त को हाथ में उठाया
इधर उधर से मोड़
नोक निकाल
नाव की शक्ल दे
खोजने लगी पानी की कुछ बूँदें
तिरा जाने के लिये

लेकिन सारा का सारा पानी
ले गई वह अपने साथ
मेरे पास छोड़ गई बाढ़

कुछ पलों को हाथ में लेकर
मैंने कुछ मछली सा सँवारा
कि लय हो गई बाढ़

सो गई है खिड़कियाँ, चुपा गये पंखे
पत्तियाँ टिमटिमाती नहीं
महक गायब हो गई फ्रिज में से
उसके जाने के बाद
जाने से पहले
वह उन सड़कों से मिलीं,
जिन पर रपटे थे उसकी साइकिल के पहिये

गुफ्तगू करती रही देर तलक
पंक्चर ठीक करने वाली दुकान से
कभी की विदा हो गई थी
जो गली के मुहाने से

बदलती इमारतों में से भी
ना जाने कैसे वह खोज लेती
गोली चूरन की दुकान

सड़कों से मिली, बगीचे मेखिली वह
कोने कनोरों से मिली
दीवार से उतारी गई तस्वीरों से मिली

रंगीन धागों में हिलगी,
सूई की नोक में पुर गई वह
पूरी की पूरी निकलने से पहले

काफी कुछ यही रह गई वह
जाने से पहले...

~रति सक्सेना 

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