Saturday 28 April 2018

पागल

पुरुष : "तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुंदर हो जाती है।"

स्त्री : "जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों में पहुँच जाती हूँ!"

पुरुष : "इसे ध्यान नहीं ख्याली पुलाव कहूँगा मैं। आँखें बंद करते ही बेतुके सपने देखने लगती हो तुम।"

स्त्री : "नहीं! मेरा विश्वास करो, साधना से सब कुछ संभव है। मुझे देखो, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे सामने। और इसी समय अपनी साधना के बल पर मैं हरिद्वार के आश्रम में भी उपस्थित हूँ स्वामी जी के चरणों में।"

पुरुष : "उस बुड्ढे की तो..."

स्त्री : "तुम्हें ईर्ष्या हो रही है स्वामी जी से?"

पुरुष : "मुझे ईर्ष्या क्यों कर होने लगी?"

स्त्री : "क्योंकि तुम मर्द बड़े शक्की होते हो। याद रहे, शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।"

पुरुष : "ऐसा क्या कह दिया मैंने?"

स्त्री : "इतना कुछ तो कहते रहते हो हर समय। मैं अपना भला-बुरा नहीं समझती। मेरी साधना झूठी है। योग, ध्यान सब बेमतलब की बातें हैं। स्वामीजी लंपट हैं।"

पुरुष : "सच है इसलिए कहता हूँ। तुम यहाँ साधना के बल पर नहीं हो। तुम यहाँ हो, क्योंकि हम दोनों ने दूतावास जाकर वीसा लिया था। फिर मैंने यहाँ से तुम्हारे लिए टिकट खरीदकर भेजा था। और उसके बाद हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आया था। कल्पना और वास्तविकता में अंतर तो समझना पड़ेगा न!"

स्त्री : "हाँ, सारी समझ तो जैसे भगवान ने तुम्हें ही दे दी है। यह संसार एक सपना है। पता है?"

पुरुष : "सब पता है मुझे। पागल हो गई हो तुम।"

बालक: "यह आदमी कौन है?"

बालिका: "पता नहीं! रोज शाम को इस पार्क में सैर को आता है। हमेशा अपने आप से बातें करता रहता है। पागल है शायद।"

~अनुराग शर्मा 

Friday 27 April 2018

चरसा

दफ्तर से निकलकर वह चौड़ी भीड़ भरी सड़क पर आया तो उसका मन खिन्न था। भीड़ से बचकर वह पैदल चलता हुआ सड़क किनारे की इमारतों को अकारण घूरने लगा। सड़क का रास्ता तय करके वह अपने मुहल्ले की गली में दाखिल हुआ। कुछेक बूढ़े शाम होने से पहले ही ओटलों पर आ बैठे हैं। उसने गरदन झुकाई और आगे बढ़ गया। आभिजात्य मकानों की एक लंबी कतार के बीच से गुजरते हुए उसने सोचा, आज भी केशव का फोन नहीं आया। हालाँकि केशव को उसके दफ्तर का फोन नंबर और घर का पता, दोनों मालूम हैं। केशव इतनी महत्वपूर्ण बात भूल जाए, ऐसा कभी नहीं हो सकता है। गाँव से चलते हुए उसने केशव से कहा था कि सविता की दादी की मौत की खबर उसे तुरंत करना।

कहीं ऐसा तो नहीं डोकरी अभी जिंदा हो? उसने सोचा और झुँझला गया। अकारण। फिलहाल डोकरी की मौत ही एकमात्र वजह है जो सविता को भोपाल बुला सकती है, वर्ना तो सविता से मिलने के दूर-दूर तक कोई अवसर नहीं हैं। पिछले दस-बारह दिनों में कोई सौ बार सोचकर तय किया गया कि गाँव अविलंब जाए, लेकिन हुआ यह कि हर दफा मन मानकर रह जाना पड़ा। अजीब बेकली थी कि दफ्तर में फोन का बेसब्र इंतजार रहता। फिर दफ्तर से लौटते समय रास्ते भर सोचते हुए घर आता कि जाते ही घर पर टेलीग्राम रखा मिलेगा। लेकिन उसके लिए न दफ्तर में फोन आया और न ही घर पर कोई टेलीग्राम। रोज वह अपने दो कमरों के मकान का ताला इसी जख्मी उम्मीद में खोलता है कि अभी अपने घर के दरवाजे की देहरी पर खड़ा मकान-मालिक शायद उसे कहेगा - 'रुकिए, किशन बाबू, आपका टेलीग्राम आया है, ले जाइए।' मगर ऐसा कुछ भी नहीं होता। मकान-मालिक से दुआ-सलाम होती और वह कुछ देर जेब में चाबी टटोलने का अभिनय करता। गालिबन वह एक छोटी-सी जगह बना रहा हो, जहाँ मकान मालिक भूल रहे खयाल को उठाकर रख दे, लेकिन मकान-मालिक उसकी जानिब नीरस मुस्कराहट के साथ देखता रहता। शुरू के दिनों में में तो वह मकान-मालिक से पूछ भी लिया करता था कि कोई तार वगैरा तो नहीं आया? पहली दफा इस सवाल पर मकान-मालिक को अचरज हुआ होगा कि ज्यादातर किराएदार चिट्ठी-पत्री का पूछते हैं, टेलीग्राम का नहीं। फिर भला टेलीग्राम का इस तरह इंतजार कौन करता है? उसने गौर किया कि मकान-मालिक उम्र से पहले बाल सफेद हो जाने वाला बूढ़ा है, जिसे पूरा मोहल्ला गुप्ताजी कहता है। गुप्ताजी ने टेलीग्राम को लेकर उसकी अनपेक्षित प्रतीक्षा के लिए सहसा जिज्ञासा प्रकट की थी लेकिन वह टाल गया था। उसे लगा, उनके पूछने में कोई चतुराई है। इस बीच जाने क्या हुआ कि गुप्ताजी ने उससे पूछना बंद कर दिया था। पर अब गुप्ताजी उसके दफ्तर के लौटने के समय जानबूझकर दरवाजे पर खड़े रहते हैं। शायद वे जेब से चाबी टटोलने के उसके अभिनय को समझने लगे हैं और उसके अभिनय करने की युक्ति का आनंद उठाते हैं और निगाह मिल जाए तो वे मुस्कराने लगते। कभी वे बगैर पूछे ही कह देते कि तार नहीं आया है। फिर अजीब-सी रहस्यमय हँसी हँसते। बहरहाल इसी रहस्यमय हँसी की मार से बचने के लिए अब उसने बूढ़े की ओर देखना भी बंद कर दिया है। फिर भी उसे अपनी पीठ पर बूढ़े की मुस्कराहट धँसती लगती है। जैसे कोई बेनाम-सी - तीखी चीज उसकी पीठ में धीरे-धीरे घोंपी जा रही है।

आज भी ताला खोलकर वह भीतर आया तो बूढ़ा मकान-मालिक दरवाजे से झाँकता हुआ, थोड़ा आगे झुक गया। उसने दरवाजा टिका दिया। पलटकर आया और कमरे के कोने में बिछे पलंग पर पस्त-सा बैठ गया। कुछ पल गुजारने के बाद जूते उतारकर उसने पलंग के नीचे खिसकाए फिर तकिए को पीछे दीवार से टिकाकर वह अधलेटा हो गया।

यह मकान महज उसे इसलिए मिला था कि उसने अपना नाम किशन शर्मा बताया था। हालाँकि वह गाँव से जब चला था तो उसे 'भायजी' (पिताजी) ने कहा था कि मकान हरिजन मोहल्ले में लेना। दुख-सुख में 'अपने लोग' काम आते हैं लेकिन उसने ज्यादा किराया देकर सवर्णो के मुहल्ले में मकान लिया था। वह इस भ्रम को तोड़ना नहीं चाहता था कि उपनाम बदल लेने से या सवर्णो के मुहल्ले में मकान लेने से, वर्ग बदल जाता है।

अब पिछले कई दिनों से वह बहुत आसानी से गुप्ताजी के घर जाकर उठता-बैठता है। खुद एतमादी के साथ नाश्ते की प्लेट उठा लेता है। कभी-कभी उनके आग्रह पर निर्द्वंद्व होकर खाना भी खा लेता है। कई बार जब मकान-मालिक की बैठक में आरक्षण को लेकर बहस होती है तो वह भी बेहिचक राजनीति को कोसने लग जाता है। बल्कि अपनी आलोचनाओं को, स्वर के आरोह-अवरोह से आक्रामक बना देता है। वह कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देता है जिससे उसके सवर्ण होने का प्रमाण प्रकट होता। ऐसे में कई बार स्थिति बहुत अजीब-सी हो जाती थी। एक बार ऐसा अवसर आया था। गुप्ताजी के घर दिल्ली से उनके रिश्तेदार आए थे। उनके साथ खाना-खाते हुए फिल्मों की बात होने लगी।

- 'आपको मालूम है मेरा खास हीरो कौन है?' गुप्ताजी के लड़के ने बहुत उत्साह से पूछा फिर खुद ही जवाब देते हुए बोला, - 'मिथुन चक्रवर्ती!'

- 'कोई नई बात नहीं है।' गुप्ताजी का बड़ा लड़का व्यंग्य से बोला, - 'तेरा ही नहीं, सभी भंळई लोगों को प्रिय हीरो है!'

सभी हँसने लगे छोटा भाई रूठ गया। उसे अपमान महसूस हुआ। चूंकि भंळई चमारों से भी गई-गुजरी जाति मानी जाती है। दिक्कत की बात तो यह रही कि किशन को भी सभी के साथ हँसना पड़ा। बेशक वह खुलकर ही हँसा था, लेकिन उसे भीतर-ही-भीतर लगा था जैसे हँसी लहूलुहान होकर फर्श पर गिर गई है। उस हँसी की छटपटाहट उसने देर तक अनुभव की थी। अलबत्ता उसने स्थिति की इस विद्रूपता पर कचोट भी अनुभव की थी कि उस हीरो को दूसरे या तीसरे दर्जे का सिद्ध करने के लिए उसे 'अपनी जाति' से जोड़ देना पड़ा था, उसे याद आया, उस हीरो को गाँव में भंळई मोहल्ले के सब के सब लोग 'दिलो जान' से चाहते हैं।

- 'आपका प्रिय हीरो कौन-सा है?' अचानक गुप्ताजी के बड़े लड़के ने पूछा था, जो किराने की दुकान चलाता था। वह रोटी का कौर तोड़ते हुए रुक गया था। मिथुन चक्रवर्ती को प्रिय हीरो बताना तो बहुत मूर्खता होती। वह दिलीप कुमार बोलते-बोलते रुक गया। उसने सोचा, दिल्ली से आए इन भगवा बनियों के सामने एक मुसलमान हीरो का नाम बोलना ठीक रहेगा? उसने पानी का गिलास उठाकर पानी पिया और अकारण मुस्कराते हुए बोला था, 'जितेंद्र!' राधेश्याम तो कुछ नही बोला लेकिन दिल्ली से आए उनके रिश्तेदार हँसने लगे थे। उनमें से एक गोरे रंग की मोटी सी महिला बोली, 'ये तो चवन्नी क्लास की पसंद का हीरो है!' कहकर उसे क्षणभर देखा जैसे मन-ही-मन तौलकर देखा और फिर बोली, 'आपको भी पसंद आया तो ये, जितेंद्र!'

उसके स्वर में स्पष्ट रूप से हिकारत थी। उसके लिए या जितेंद्र के लिए या शायद दोनों के लिए। प्रकट में तो वह शालीनता से मुस्करा दिया लेकिन मन-ही-मन उबलकर रह गया। अब अभिनेताओं में भी वर्ग-भेद दाखिल हो गया? सवर्ण जितेंद्र पैसा कमाकर संपन्न हुआ लेकिन खराब फिल्मों ने उसका वर्ग बदल दिया। अब आदमी कैसे उबरे? कैसे आगे बढ़े? उसे प्रोफेसर मुजमेर की बात याद आई कि अब व्यवसाय का ज्वारभाटा ही वर्ग तय करेगा। क्या सचमुच?

उसने मोटी महिला को देखा जो अपने दाएँ हाथ की सोने की चूड़ियों को बाएँ हाथ से पीछे सरकाते हुए उसकी ओर देखते हुए मुस्करा रही थी। कुढ़कर रह गया था वह। स्साली मुटल्ली! आई बड़ी क्लास की बात करने वाली। कम्मर पकड़कर हिलाता या इसका घाघरा खँखोरता तो चवन्नी तो छोड़ो दुअन्नी क्लास के नीचे टपक पड़े। और सभी जितेंद्र क्लास के ही गिरते। पूरा एक खीड़ा भर जाता। लेकिन बोला कुछ नहीं। चुपचाप खाना खाता रहा था। अलबत्ता रोटी के कौर को जबड़े के नीचे कुछ ज्यादा ही ताकत से दबा दिया। एक तल्खी थी जो दाँतों में उतर आई थी। उस शाम वह खाना खाकर गुप्ताजी के घर से बाहर आया तो उसे लगा था कि उल्टी हो जाएगी लेकिन वह वापस निगल गया। ऐसे समय उसे भाबी और भायजी की याद आती है। वह अपनी माँ को भाबी और पिताजी को भायजी कहता है। वह खुद ही क्यों? उसके मुहल्ले में हर कोई अपने माँ-बाप को भाबी और भायजी कहता है। उसने सविता से यह बात एकाध बार कही भी थी कि वह जब से हुस्यार हुआ है इस बात के लिए ललाता ही रहा कि वह भी भाबी-भायजी को मम्मी-पापा कह सके।

सविता ने उसे चेताया था कि अब तो भूल से भी मत कहना, पूरा मोहल्ला बल्कि पूरा गाँव तुम्हारे माँ-बाप को मम्मी-पापा कहकर चिढ़ाएगा। एक बार चिड़ावनी पड़ी तो तुम्हारे माँ-बाप जिंदगी भर तुम्हें कोसेंगे। संबोधन के लिए पूरा माहौल चाहिए। वह बोला तो कुछ नहीं था लेकिन उसे लगा कि शायद सविता की बात में कहीं कुछ छुपा हुआ और क्षीण-सा व्यंग्य है। हालाँकि वह इस व्यंग्य को ताड़ नहीं पाया था। लेकिन उसे लगा कि सविता शायद यह समझ रही है कि संबोधन के चुनाव के बहाने चालाकी के साथ उससे वह छीना जा रहा है, जो उसके लगे हाथ था, जिसे सिर्फ थोड़ी-सी एड़ियाँ ऊँची करके छुआ जा सकता था। लेकिन सविता की हिदायत के बाद लगा, जैसे मम्मी-पापा शब्द नहीं, शाख पर लगे फल हैं जिन्हें अब उचककर छुआ भर जा सकता है, अपने लिए तोड़कर रखे नहीं जा सकते हैं। वह उस समय तो चुप हो गया लेकिन समझ गया कि यह इसकी जात बोल रही है। फिर भी उसने भाबी-भायजी को दुखी करना ठीक नहीं समझा। उसे याद है।

अपना उपनाम उसने शहर की जिला कोर्ट में अर्जी देकर बदलवाया था। यह बी.ए. करने से पहले की बात है। भायजी बहुत गुस्सा हुए थे। कहा था - 'अड़नाम बदली लियो तो काई जात बी बदली गई?' उसके बाद भायजी गुस्से में बहुत देर तक चिल्लाते रहे थे। भायजी के गुस्से में अस्फुट निर्णय के साथ दुख का सार यही निकला था कि क्या अड़नाम बदल लेने से जात बदल जाएगी? मुझे तो जिंदगी भर चरसा का काम करना है। मरे हुए ढोरों की खाल ही खींचना है। और फिर क्या खराबी है अपनी जात में? मैं तो अड़नाम नहीं बदलूँगा। फिर इस तरह तो तू हमको भी बदल देगा? कोरट देगी तेरे को बामण, रजपूत माँ-बाप? उसके भायजी देर तक चिल्लाते रहे थे। फिर आए दिन घर में किच-किच होने लगी। इस दाताकिच्ची से बचने के लिए तब वह एम.ए. करने भोपाल चला गया था। बी.ए. वह अपने नजदीक के शहर के कॉलेज से कर चुका था। भोपाल में वह होस्टल में निःशुल्क रहता था बाकी खर्च के लिए उसने कुछ ट्यूशन की और कुछ भायजी ने कर्जा लेकर पैसा भेजा।

कॉलेज में ही उसकी मुलाकात सविता से हुई। वह भी अपने डिप्टी-कलेक्टर भाई के घर रहकर एम.ए. कर रही थी। उसी की क्लास में थी। डिप्टी-कलेक्टर भाई के बारे में उसे गाँव में ही मालूम पड़ गया था। इस तरह वह सविता के बारे में भी जान गया था कि वह उसी के गाँव की है। वह पढ़ाई में तेज था। उसके नोट्स पूरी क्लास में ईर्ष्या के कारण थे। प्रोफेसर अकसर उसकी तारीफ करते थे। इसी से प्रभावित होकर सविता उससे मिल लिया करती थी। अकसर नोट्स माँगकर ले जाती थी। कभी केंटीन में मुलाकात हो जाती थी लेकिन ये मुलाकातें मामूली ही रहीं। एक बार कॉलेज के वार्षिकोत्सव में जब वह दलित पक्ष को लेकर बोला तो उसे प्रथम पुरस्कार मिला। केंटीन में सविता ने उसे बधाई दी और अचरज प्रकट किया कि वह बावजूद अपर कास्ट होने के, लोअर कास्ट के लोगों के प्रति इतना सिंपैथिक एटीट्यूड रखता है। फिर भी दोनों के बीच सिर्फ एक रस्मी किस्म की बौद्धिक घनिष्ठता ही रही। वह तो यूँ हुआ कि अगले बरस अंतर-विश्वविद्यालयीन वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लेने दोनों रीवा गए। तब उसने मंच पर सविता को दलितों के पक्ष में उनकी सामाजिक स्थिति पर बोलते हुए सुना। सविता उसके बोलने के बाद मंच पर गई थी। तब उसे लगा कि उसके खुद के पास तो महज एक आक्रामक भाषा है जो तर्क के घेरे में कमजोर पड़ती है लेकिन सविता के बोलने से, उसकी समझ और अध्ययन से वह आतंकित हो गया। उसी शाम वे दोनों एक होटल में खाना खाने गए। सविता के साथ अर्थशास्त्र की जो प्रोफेसर रीवा गई थी वह होटल में साथ नहीं जा पाई थी या सविता प्रोफेसर से अनुमति लेकर साथ अकेले गई थी, उसने यह सब नहीं पूछा था। उसने बधाई दी। वह मुस्करा दी थी। फिर बोली थी, 'आपका स्पीच भी अच्छा था लेकिन आप राजनीतिज्ञों की तरह बोलते हैं।'

उसने थोड़े अचरज से उसे देखते हुए पूछा, 'मैं समझा नहीं!'

- 'दरअसल आपकी स्पीच में राजनीतिज्ञों की जुबान मिली हुई है। इसलिए आपके बोलने में बॉडी-लैंग्वेज, जोश, आक्रामकता और उस तरह की नाटकीयता तो खूब रहती है जिस पर ताली पड़े लेकिन कोई निष्कर्ष निकल सके ऐसे बात नजर नहीं आती है।' कहते हुए वह रुककर उसे देखने लगी। फिर उसके चेहरे पर गुस्से की जगह उत्सुकता टिकी हुई देखकर बोली, 'हम एक पूरी सोशलॉजी को समझे बगैर जो गुस्सा करेंगे वो एकतरफा होगा।'

- 'लेकिन आज जब पार्टियाँ...!' उसने कुछ कहना चाहा लेकिन उसकी बात काटकर वह तत्काल बोली, 'आप राजनीति की बात न करें, इट्स जस्ट रबिश! अधिकांश राजनीतिज्ञ लुच्चे हैं, लफंगे हैं और अपढ़ हैं। अधिकांश पार्टियाँ बेईमान है। ये लोग इतिहास के प्रेत इसलिए जगाते रहते हैं कि ये डाउनट्रोडन समाजशास्त्रीय विवेचन या अर्थशास्त्र की ओर न जाएँ।' कहते-कहते वह चुप हो गई।

वेटर टेबल पर खाना लगाने लगा।

- 'तुम्हें बहुत सहानुभूति है इनसे।' वह प्रशंसा-भाव से उसकी ओर देखते हुए बोला, 'नहीं, सहानुभूति नहीं। मैं सच को सच की तरह देखना चाहती हूँ। सहानुभूति में उपकार भाव शामिल रहता है। दरअसल दलितों को इसी से मुक्त होना चाहिए। यू नो आएम एलर्जिक टू दिस एटीट्यूड। मुझे गाँधीजी द्वारा हरिजनोद्धार जैसे शब्द से भी चिढ़ है - उद्धार? क्यों? क्या पापी हैं, पुण्यवान आएँ और जिनका उद्धार करें?' कहकर उसने जब उसकी ओर देखा तो उसको सविता के चेहरे पर गर्व की एक अकड़ती छाया नजर आई। सविता के चेहरे पर कुछ ऐसा भाव था जैसे ऐसा 'सच' तो दलित स्वयं नहीं जानते। उसके पास सच को जान चुके व्यक्ति की-सी तुष्टि और तसल्ली थी। तभी खाना लग गया। वह चुप हो गई। दोनों खाना खाने लगे। वह सोचने लगा आज नहीं तो कल इसे मालूम हो जाएगा कि वह उसके गाँव का रहने वाला है और कौन है?

बहस लगभग खत्म हो चुकी थी। बहस ही नहीं जैसे सारे प्रश्न ही खत्म हो गए हों। दोनों के दरमियान जैसे एक रुका हुआ और बहुप्रतीक्षित फैसला आ जाने के बाद की खामोशी थी। उसने सोचा, कैसा फैसला? दरअसल फैसला तो उसके भीतर हो गया था, कि सविता से ज्यादा देर और दूर तक अपनी जात छिपाई नहीं जा सकेगी।

- 'आप कुछ कहना चाह रहे थे?' सविता ने बेसाख्ता पूछा। जैसे उसने उसकी संवादोत्सुक मुद्रा को पहले पहचान लिया हो।

- 'कहना यही चाहता था, सविता, जब तुम समाज के वर्ग भेद को लेकर इतनी 'इनडेप्थ' सोचती हो, तो फिर तुमने अपने नाम के पीछे यह शास्त्री सरनेम कैसा लगा रखा है?'

- 'ठीक वैसे ही लगा रखा है जैसे तुमने शर्मा लगा रखा है!' सविता ने कहा और जोर से हँसी - इस उम्मीद मे भी कि उसके इस कथन के साथ उसकी भी हँसी फूट पड़ेगी। लेकिन उसका चेहरा ऐसा हो आया, जैसे अचानक किसी अदृश्य शक्ति ने उसके भीतर की सारी हँसी एकाएक छीन ली हो! उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। सविता ने उसकी इस अनपेक्षित मुद्रा को देखकर जैसे पूछना चाहा कि उसे एकाएक यह क्या हो गया?

उसे लगा, वह बहुप्रतीक्षित घड़ी आ गई है - जब उसे फलाँग लगानी है। एक दीवार के पार। फिर वह गिरकर इस पार रह जाए या उस पार चला जाए। उसने एक लंबी साँस ली, फिर सविता की आँखों में सीधी आँखे डालकर देखते हुए बोला, 'सविता' उसने जब सविता संबोधन किया तो लगा, जैसे फेफड़े में भरी सारी साँस ही इस एक संबोधन में डाल दी हो। फिर आगे बोलने के लिए दूसरी साँस लेते हुए कहा, - 'मैंने अपने नाम के पीछे शर्मा ऐसे ही नहीं लगाया बल्कि कोर्ट में एफिडेविट देकर लगाया है।'

- 'क्या मतलब?' सविता की आँखों में अचरज था।

- 'ऐसा इसलिए, सविता कि भंळई मोहल्ले में पैदा होने से जो सरनेम मुझसे चिपक गया था, मैं उससे तंग आ चुका था। उसने मेरा जीना मुहाल कर दिया था, इसलिए मैंने उसे अपने से नोचकर कोर्ट के पास बहते नाले में फेंक दिया। मैं तुम्हारे गाँव के मंगत भंळई का लड़का किसन्या हूँ।' कहते-कहते उसके स्वर की तल्खी धीरे-धीरे मुलायम होकर दुख के पास ठहर गई। इस बीच छोटे-छोटे पलों में एक घमासान गुजर गया। आकाश को छूता एक बवंडर निकल गया और वे दोनों उसके गुजर चुकने के बाद के सन्नाटे में बैठे हैं - धूल और मिट्टी से सने।

- 'सुनो किशन! 'संभवतः वह पहली बार उसका नाम लेकर बोली, - 'तुम अपने पुराने सरनेम के साथ या यूँ कहें, अपनी ऑरिजिनल आइडेंटिटी के साथ प्रतिष्ठा हासिल करो। बार-बार वहीं जाकर पहचान क्यों तलाश करते हो, जो इन सारी स्थितियों के लिए जिम्मेदार हैं।' कहकर वह कुछ पल रुकी और उसकी ओर देखने लगी थी। फिर सविता ने अपना हाथ बढ़ाकर उसके हाथ पर हाथ रख दिया और बहुत कोमल स्वर में बोली, - 'यह छल है। मेरे साथ नहीं। खुद अपने साथ भी। कम-से-कम तुम्हें तो ऐसी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का शिकार नहीं बनना चाहिए।'

वह कुछ नहीं बोला था। खाना वह समाप्त कर चुका था। और पेपर-नैपकिन से हाथ पोंछ रहा था। वह पहले ही खाना खत्म करके, कुर्सी से टेक लगाए उसे देख रही थी।

कुछ देर तक वह सोचती रही और फिर इतना बोली, - 'खैर! छोड़ो।' इसके बाद उसने पर्स से कुछ नोट निकाले और लापरवाही से उस प्लेट में डाल दिए जिसे बिल के साथ वेटर अभी कुछ देर पहले रख गया था।

वह कुर्सी खींचकर उठ गई। दोनों चुपचाप होटल से बाहर आ गए।

इसके बाद पूरे रास्ते वह चुप रही। वह भी कुछ बोल नहीं पाया।

इसके बाद वह कई दिनों तक उससे नहीं मिली। आखिर उसी ने हिम्मत करके सविता को अंग्रेजी में एक पत्र लिखा। उसी पत्र में उसने संकोच के साथ प्रेम निवेदन की पंक्तियाँ लिखीं तो तत्काल उसे थोड़ा भय लगा। अपने भय को सांत्वना देने के लिए उसने पत्र में यह भी जोड़ दिया कि कोई भूल या गलती हुई हो तो क्षमा चाहता हूँ।

बहुत दिनों तक वह पत्र के जवाब का इंतजार करता रहा। कोई जवाब नहीं आया। क्लास में भी कोई बात नहीं हो पाई। खुद उसकी हिम्मत नहीं हुई बात करने की। आखिर एक दिन वह केंटीन में आई और उसे एक लिफाफा थमाकर चली गई। उसने जल्दी से लिफाफा खोला। लिखा था, 'पत्र पढ़कर अच्छा लगा। लेकिन यह बात खुद भी कह सकते थे और गलती तो कोई पत्र में है नहीं। ग्रामर की कुछेक गलतियाँ हैं। अगली बार ठीक कर लेना।' अपने स्वभाव के चलते पहले तो उसे यह बात थोड़ी बुरी लगी कि पत्र में ग्रामर की गलतियों का उल्लेख किया गया। लेकिन अगली मुलाकात के बाद यह दुख जाता रहा।

इसके बाद मुलाकातें बढ़ती गईं। एम.ए. करके वह घर वापस आ गया था। सविता भी गाँव वापस आ गई थी। फिर गाँव में भी मुलाकातें होने लगीं। केशव को तो उसने पहले ही बता दिया था। केशव की याद आते ही जैसे वह अतीत से बाहर आ गया।

केशव ने तार क्यों नहीं भेजा?

गाँव में केशव उसका सबसे करीबी दोस्त है। गाँव में वही दोस्त बचा है। शेष तो इधर-उधर नौकरी की तलाश में निकल गए हैं। केशव नाम गाँव के स्कूल के गुरुजी ने रखा था। लेकिन वह नाम घर और मुहल्ले में कोई नहीं बोल पाया इसलिए जैसा आम होता है, नाम को जुबान पर आसानी से चढ़ाने के लिऐ केशव से केसू और केस्या कर दिया। लेकिन वह हमेशा उसे केशव नाम से पुकारता है।

उसका बिगड़ा नाम उसने कम ही पुकारा। इस तरह उसने यह जता दिया कि उसे भी किशन कहकर बुलाया जाए। किसन्या या किसनू उसे पसंद नहीं है। अब बहुत कम लोग उसे केशव के नाम से पुकारते हैं। केशव की याद आते ही उसे फिर याद आया कि केशव ने उसे खबर क्यों नहीं दी?

वह उठा और कमीज उतारकर कुर्सी पर डाल दी। एक डावाँडोल मेज पर रखे गैस-चूल्हे पर उसने चाय बनाई और प्याला लेकर बंद खिड़की के सामने बैठ गया। खिड़की उसने जान-बूझकर नहीं खोली। खिड़की खुलते ही उसे गली से गुजरते हुए किसी-न-किसी व्यक्ति से निरर्थक बातचीत में शामिल होना पड़ेगा।

उसने चाय का घूँट गले से नीचे उतारा तो जैसे घूँट का सहारा लेकर वह उदासी के इस ठंडेपन से बच निकला। इसका मतलब है कि डोकरी अभी जिंदा है! गाँव से चलते हुए उसने केशव से कह दिया था कि सविता की दादी के मरने की खबर उसे तुरंत करना। फोन करके। तार भेजकर। दोनों माध्यम से। सविता की बीमार दादी को देखने और मिलने के लिए वह उसके घर चाहकर भी नहीं जा पाया था। एक बूढ़ी बीमार औरत से मिलने या हालचाल जानने के लिए गाँव की औरतें जाती हैं। बूढ़े मर्द जाते हैं। उसकी उम्र के युवकों की वहाँ एक बार की उपस्थिति भी थोड़ा खलने वाली बात थी, खासकर उसकी जाति के लोग तो नहीं जाते हैं।

सविता के छोटे भाई से उसकी मामूली-सी जान-पहचान है। जो किसी गली के कोने पर मिलने पर, कब आए? कब तक हो? से आगे नहीं जाती थी। इस तिनके के बराबर दोस्ती के सहारे उस घर कैसे जाया जा सकता है?

वह प्याले को मेज पर रखकर, मेज का कोना खुरचने लगा। फिर उसे लगा कि यह आदत उसे सविता से मिली है। वह भी बात करते हुए इसी तरह गोबर लीपी हुई दीवार को लकड़ी के टुकड़े से खुरचती रहती है। उसके जाने के बाद केशव की माँ देर तक बड़बड़ाती रहती कि इतनी मेहनत से उसने दीवार लीपकर तैयार की थी और यह छोरी खुरचकर चली गई।

केशव के पिता गाँव के इकलौते दर्जी हैं। इसी बलिराम दर्जी के पास गाँव की औरतों के पोलके, ठंड के दिनों की पूरी आस्तीन की बंडी, मर्दों के कमीज और जेब वाली बनियान से लेकर बच्चों के कुरते-पाजामें तक सिलते हैं। बलि काका के यहाँ सविता अपनी दादी और माँ के पोलके और बंडी सिलवाने या उधड़ी सिलाई ठीक कराने आती रहती है। वही घर उनके मिलने और बात करने का ठिया है। आगे के कमरे में काका सिलाई करते हैं। पिछले कमरे के बाद खपरैल की ढलवाँ छत एक ओर दीवार पर टिकी है तथा खुले हिस्से की तरफ कोई दीवार नहीं है। सिर्फ लकड़ी के खंभों पर टिकी है। यानी दीवार न होने से उस तरफ खुला हिस्सा है और बरसात के दिनों में पानी की आछट भीतर उस ढलवाँ छत के नीचे तक आती है। वहीं कोने में उनका चूल्हा जलता है उसके बाद खुली जगह है जिसे मिट्टी की दीवार से घेरकर सुरक्षित कर दिया हे। एक बड़े आँगन जैसा, इसी घर से सटा हुआ, इसी ढंग से बना हुआ बाजू में उसका मकान था। दोनों मकानों के पिछले खुले हिस्से में, बीच में मिट्टी की एक कॉमन दीवार है। उसी दीवार में एक आल्या यानी ताक था, जिसकी मिट्टी सविता ने खुरच दी थी। और आल्या तोड़कर दीवार में आर-पार बड़ा सुराख कर दिया था। यह कहते हुए कि बात करते हुए कम से कम चेहरा तो दिखता रहे। वह आगे के कमरे में काका को कपड़े थमा देती और काकी से बात करने के बहाने पीछे आ जाती। काकी से बातें करते हुए वह बीच-बीच में उससे भी बात कर लेती। वह दीवार के दूसरी तरफ खड़ा रहता। और फिर कुछ देर बाद काकी सिर्फ चूल्हा फूँकते रह जाती और बहुत स्वाभाविक ढंग से बातचीत उसके और सविता के बीच होने लगती और काकी को पता भी नहीं लगता कि स्वाभाविकता बहुत श्रम से पैदा हुई है। और वह अनजाने में नहीं बल्कि यत्नपूर्वक वार्तालाप से बाहर कर दी गई है।

एक दीवार के दोनों तरफ खड़े होकर दोनों बातें करते। कुछ दिनों बाद यह स्थिति असुविधाजनक हो गई। बावजूद आल्या तोड़ देने से। यह मुश्किल आसान हुई बरसात में जब दीवार का कुछ हिस्सा गिर पड़ा। दीवार फिर से बनाने के लिए पीली पाँढर मिट्टी की जरूरत थी। काकी ने कई बार कोशिश की कि गाँव के बाहर आम-बैड़ी से मिट्टी ले आए लेकिन केशव ने हर बार यह कहकर रोक दिया कि मैं ले आऊँगा। लेकिन वह खुद कभी लाया नहीं, माँ को लाने दिया नहीं। बस इस नाटी दीवार पर सविता कुहनियाँ टिकाए बात करती है या फिर कभी-कभी मौज में आकर उछलकर दीवार पर बैठ भी जाती है। हालाँकि इस दीवार के टूटने के बाद उसका घर नंगा हो गया था। इस सुविधा के बावजूद कि दोनों अब बहुत करीब खड़े होकर, एक-दूसरे को देखते हुए बातें कर सकते हैं, उसे यह संकोच और शर्म बनी रहती थी कि वह उसके घर की असलियत देख रही है। पिछवाड़े बाँस पर फटी हुई गोदड़ियाँ टँगी रहतीं, कभी-कभी गोदड़ियों को धोकर बाँस पर डाल दिया जाता जिनमें से पानी टपकता रहता और तेज दुर्गंध खुले पिछवाड़े में फैलती रहती। उसको लगता जैसे उसका बाप मरे हुए जानवरों की खाल खींचकर लाया है वह चमार कुंड में डालने के बजाए घर लाकर बाँस पर लटका दी है जिसमें से पानी टपक रहा है और दुर्गंध चारों तरफ न फैलकर खास उस दीवार की तरफ फैलती है जहाँ वह खड़ा होकर सविता से बातें करता है। मरे हुए जानवर की खाल-सी उन गीली गोदड़ियों की दुर्गंध सचमुच इतनी तेज रहती कि जिसे दबाने में सविता पर छिड़का हुआ वह आयातित परफ्यूम भी नाकाम रहता जो निश्चित ही उसका डिप्टी-कलेक्टर भाई भेजता है। उसको तो संदेह है कि वह परफ्यूम का इस्तेमाल इसी दुर्गंध के कारण करती है। उससे मिलने यहाँ आती तब विशेष रूप से परफ्यूम स्प्रे करके आती है। वर्ना और मौकों पर परफ्यूम इस्तेमाल क्यों नहीं करती है? यह बात अलादी है कि उसने खुद से यह कभी नहीं पूछा कि इस गाँव में और किस अवसर पर वह सविता के साथ था?

वह मरे हुए जानवरों की खाल खींचने की छुरी भी सविता के आने पर भीतर कमरे में रख आता, लेकिन इस संपूर्ण दृश्य के स्क्रीन पर कोई एक सुराख हो तो वह थेगला लगा दे। यहाँ तो अनगिनत सुराख हैं।

छोटे भाई-बहन जो पिछवाड़े का दरवाजा खोलकर दूसरी ओर के खलिहानों की तरफ टट्टी बैठने नहीं जा पाते हैं, वे पिछवाड़े के इसी हिस्से में टट्टी बैठ लेते हैं। जिसे भाबी घर का सारा काम निबटाने के बाद टीन के पुराने डिब्बे से बने खापरे से निकालकर फेंक आती है। ऐसी स्थितियाँ रोज बनती हैं। कभी रात को बच्चा अँधेरे में डर के कारण बाहर खलिहानों की तरफ नहीं जाता। कभी सबसे छोटा भाई जोर से टट्टी लगने पर जल्दी में वहीं बैठ जाता है। काम में व्यस्त भाबी इतना भर करती कि गूँ के इन ढेरों पर, जिसे झल्लाहट में वह 'कुयड़ा' कहती है, राख डाल देती है। हालाँकि राख डाल देने से टट्टी साफ दिखाई नहीं देती लेकिन राख डालने की इस लोकप्रिय विधि को गाँव में हर कोई जानता है। राख के ऐसे कुयड़े को देखकर कोई भी बेहिचक कह सकता है कि इसके नीचे गू का ढेर है।

सविता के आने की संभावना पर वह उन कुयड़ों पर घर में रखी बाँस की टोपलियाँ औंधी रख देता। कई बार कुयड़ों की संख्या ज्यादा होती तो वह भाबी की आँख बचाकर खापरे से गूँ के कुयड़े साफ करके पीछे फेंक आता। भाबी देख लेती तो निश्चय ही उसे अचरज होता कि उसे यह सब करने की क्या जरूरत है? किस बात की चिंता है और किस बात की लाज? और किससे? फिर क्या बताता वह?

दीवार से टिककर वह सविता से बात करता तब भी उसे हमेशा इस बात का अंदेशा रहता कि सविता दीवार के पार ये औंधी पड़ी टोपलियों को न देखे, जो कि नामुमकिन था। लेकिन ऐसा अवसर एक बार भी नहीं आया कि उसने इस औंधी पड़ी टोपलियों के बारे में कुछ पूछा हो। वह बात करते हुए जरूर इस चिंता में रहता कि सविता बस अब अचरज प्रकट करके पूछने ही वाली है। उसका आधा ध्यान सविता पर रहता तो आधा ध्यान टोपलियों के नीचे गू के कुयड़ों पर। इसी भटकाव में वह कई बार सविता की ड्रेस या बुंदे या चूड़ियों की तारीफ करना भूल जाता। जब वह खुद कहकर इस तरफ ध्यान आकर्षित करती तो वह शर्मिंदा हो जाता और जरूरत से ज्यादा तारीफ पर उतावला हो जाता। शुरू में तो वह सविता के आने से पहले ही पिछवाड़े में पड़ी ऐसी तमाम आपत्तिजनक और शर्म देने वाली चीजें और सामान हटा देता था लेकिन ऐसा वह बार-बार नहीं कर पाया। उसने फिर भाबी के लुगड़े का पर्दा बनाकर दीवार के पास टाँग दिया जिसे हटाकर वह तो दीवार के पास आ जाता लेकिन सविता पर्दे के पार नहीं देख पाती है अलबत्ता केशव को यह नागवार गुजरा था। उसने कहा भी कि अकेले इस दीवार के गिरने से काम नहीं चलेगा। एक दीवार जो तेरे भीतर है, जिसे इस लुगड़े के पर्दे से ढाँक रहा है, गिरना चाहिए। बात सच थी इसलिए आसानी से अमल में नहीं लाई जा सकती थी। वह टाल गया। अब होता यह कि दीवार के दूसरी तरफ सविता, इस तरफ वह खुद और उसके पीछे परदा। लेकिन मिलने का यह अवसर कभी-कभार ही आता था। अब कोई रोज-रोज तो सविता की माँ या दादी पोलके या बंडी सिलवाती नहीं थी। पोलके या बंडी की सिलाई उधड़ती भी कम ही थी, जो उधड़ती उसमें भी सविता का कौशल शामिल रहता था।

इसी बीच उसकी नौकरी लग गई। नौकरी यानी कृषि विभाग में मामूली सी क्लर्की। घर में तो ऐसी खुशी समाई कि उसे भाबी-भायजी की इस खुशी की रक्षा के लिए ही नौकरी पर जाना जरूरी लगा। फिर नौकरी के लिए कोई ज्यादा दूर भी नहीं जाना था। गाँव से मुश्किल से चार घंटे की यात्रा थी। सविता की स्मृतियाँ, थोड़ा-सा सामान और कपड़े-लत्ते एक पुराने बैग में भरकर वह शहर आ गया। शहर आने से पहले वह सविता को मिला था। वह दीवार के दूसरी तरफ खड़ी चुपचाप अपने हेयर-क्लिप से गोबर लीपी दीवार को खुरच रही थी। वह उदास थी। उसने उसे समझाया कि वह कोई ज्यादा दूर नहीं जा रहा है। अकसर गाँव आता रहेगा। सविता ने चुपचाप गरदन हिलाई। फिर वह धीरे-धीरे बोलने लगी। तब उसे मालूम हुआ कि सविता की उदासी की वजह सिर्फ उसका शहर जाना ही नहीं है। वह इसलिए भी उदास है कि उसकी दादी बीमार है और उसे बीमार दादी को छोड़कर भाई के पास भोपाल जाना है। पी.एस.सी. की तैयारी के लिए कोचिंग-क्लास में एडमिशन ले लिया है। उसकी जाने की इच्छा बिल्कुल नहीं थी लेकिन परिवार का और खासकर डिप्टी-कलेक्टर भाई का दबाव था। उसे जाना पड़ेगा। वह जाने की बात पर फिर उदास हो गई। उसे अचरज हुआ! अस्सी बरस की बीमार स्त्री से इतनी मोह-माया कि रोने की हद तक उदास है। उसके शहर जाने की या उसके दूर जाने के दुख को भी इस दुख ने पीछे धकेल दिया। उसका अचरज भी स्वाभाविक था। गाँव में इस उम्र के बीमार का लोग इलाज नहीं कराते हैं, उसके हाथों दान-पुण्य शुरू करा देते हैं। गाँव में इस उम्र के बीमार व्यक्ति का उपचार पैसों का अपव्यय माना जाता है। ऐसे बीमार के लिए कोई दुखी नहीं होता है। गरीब हुआ तो चिंतित हो जाएगा। कि तेरहवीं की पंगत के लिए पैसों का इंतजाम करना है और संपन्न हुआ तो खुश हो जाता है कि पूरे गाँव को जिमाकर धाक जमाने का अवसर आया। फिर भी उसने अपना अचरज प्रकट नहीं किया। सविता ही बताने लगी कि उसे सबसे ज्यादा लाड़-प्यार दादी से ही मिला है। यूँ समझो कि माँ ने नहीं, दादी ने पाल-पोसकर बड़ा किया है। फिर वह दादी की बारे में बोलती रही, बताती रही। वह कुढ़ता रहा। कल उसे शहर जाना है और यह दादी-पुराण लेकर बैठी है। उसे दादी से ईर्ष्या होने लगी। ऐसे नाजुक समय में यह बीमार बुढ़िया उनके बीच आ गई थी। उसकी खिन्नता से बेखबर वह फिर दीवार खुरचने लगी थी।

शहर लौटते समय उसने बस-स्टैंड पर केशव से कहा था कि सविता की दादी के मरने की खबर उसे तुरंत करना। दादी के मरते ही वह भोपाल से हर-हालत में वापस आएगी। वह इस बार बात का कोई निकाल लगाना चाहता है। सविता वापस भोपाल चली गई तो मुश्किल हो जाएगी और दीवार फिर ऊँची मत बनाना। वह गाँव से इतनी दूर नहीं जा रहा है कि दीवार फिर से ऊँची कर देने का कारण समझ में आने लगे। ऐसा कहकर वो हँसने लगा था। वह जानता था कि उसके सविता से मिलने-जुलने को लेकर केशव कोई खास खुश नहीं है। हालाँकि केशव ने कभी अपना एतराज जाहिर भी नहीं किया लेकिन वह उसकी चुप्पी में छुपा एतराज समझता है। वह कभी भी इस चर्चा को गंभीरता की ओर नहीं जाने देता है। उसे मालूम है कि गंभीरता के रास्ते में केशव को अपने एतराज जाहिर करने के ज्यादा अवसर हैं। वह ऐसा मौका नहीं आने देता था इसलिए आज भी वह इतना कहकर हँसने लगा। उसे लगता है उसकी हँसी चर्चा के गंभीर रास्ते बंद कर देती है। जब वह बस पर चढ़ा और बस चलने लगी तो केशव ने उसका हाथ पकड़कर सिर्फ इतना कहा, 'यह तुम्हारी खुशफहमी है कि हँसी हमेशा तुम्हारी मददगार होगी। मेरे साथ बात करते हुए जो हँसी तुम्हारी मदद करती है, देखना, जिस रास्ते पर तुम जा रहे हो, वहाँ दुख के दरवाजे यही हँसी खोलेगी।'

तभी बस चल पड़ी थी। उसने जाहिर किया जैसे आखिरी बात वह सुन नहीं पाया। केशव हँस पड़ा था।

इन तमाम बातों के बावजूद उसको लगता है कि केशव उसे खबर जरूर करेगा। केशव उससे असहमत है, नाराज नहीं। केशव की असहमति में भय शामिल है। इस भय को वह भी समझता है लेकिन याद नहीं रखना चाहता है। भय की गठरी बनाकर सिर पर नहीं रखना चाहता है।

उसने उठकर दरवाजे को हल्का-सा खोल दिया जैसे तार या टेलीफोन न आए तो खबर खुद ही हवा पर सवार होकर दरवाजे की सँकरी दरार से भीतर आ जाएगी। उसे मालूम था कि फोन तो केशव गाँव के बनिये की दुकान से कर देगा लेकिन टेलीग्राम के लिए उसे पास के कस्बे में तार-घर तक जाना पड़ेगा।

पास का कस्बा मानपुर कौन दूर है? चला जाएगा। पैरों में कोई मेहँदी नहीं लगी है कि मिट जाएगी। उसने हल्के से रोष को जगह देकर केशव के उपकार की जगी तंग की। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि वह किस पर गुस्सा करे? केशव पर गुस्से की कोई वजह नहीं है। केशव तो तभी खबर करेगा जब दादी मरेगी। अब उसे दादी पर गुस्सा आने लगा। फिर लगा, दादी मृत्यु के आगे विवश है। मृत्यु पर गुस्सा करने पर उसे डर लगने लगा। उसे लगा मृत्यु ब्राह्मणों की तरफदारी करती है। अकारण दादी का समय बढ़ा रही है। उसे लगा, जरूर सविता अपनी दादी के लिए प्रार्थना कर रही होगी। बाकी घर के लोग तो दान-पुण्य कर रहे होंगे, प्रार्थना नहीं। दान-पुण्य से मुत्यु आने का रास्ता सुगम होता है। उम्र नहीं बढ़ती है। यह जरूर सविता की प्रार्थना का असर ही है। प्रेम करने वालों की प्रार्थना में असर होता है। इतना निश्छल मन और किसका हो सकता है? ऐसे ही लोग प्रार्थना को बहुत ऊपर या दूर तक भेजने की ताकत और सहजता रखते हैं।

वह सोचकर आश्वस्त हुआ और फिर पलंग पर जाकर लेट गया। खाना वह रात को बनाएगा। इतने दिनों में उसने घर पर खाना बनाने की व्यवस्था कर ली थी। जबकि वह गाँव से आया था तो सोचा था कि यह नौकरी कोई ज्यादा समय तक नहीं करूँगा। शहर आने में यह बात भी सुविधाजनक लग रही थी कि वह पी.एस.सी. की तैयारी कर लेगा। किसी कोचिंग-क्लास में प्रवेश ले लेगा। इस बरस तो वह फार्म नहीं भर रहा है। लेकिन इस बरस तैयारी करके अगली बार एग्जाम जरूर देगा। उसने तय किया कि यदि वह पी.एस.सी. कर लेता है तो कहीं भी डिप्टी-कलेक्टर हो जाएगा। सविता के बड़े भाई की तरह। केशव तो कई बार उससे मजाक में कह चुका है कि तेरी और सविता के भाई की हेला-आटी सिर्फ इसलिए है कि वह डिप्टी-कलेक्टर है। वह उसकी बात काट देता कि दुश्मनी जैसी कोई बात नहीं है। वह तो सोचता है कि भंळई मोहल्ले से बामण-सेरी तक, यही एक नौकरी उसका हाथ पकड़कर, बगैर किसी अवरोध के ले जा सकती है। हालाँकि मन के किसी कोने में यह बात थी कि एक भोला भ्रम वह अरसे से पोस रहा है। सविता के भाई की डिप्टी-कलेक्टरी उसे हमेशा आर लगाती है। हमेशा चुनौती देती है। लेकिन इधर जब उसने खाने की व्यवस्था घर पर की तो उसे लगा इससे थोड़ा पैसा जरूर बचेगा लेकिन समय ज्यादा खर्च होगा। लेकिन क्या किया जाए? यदि नौकरी करते हुए थोड़ा पैसा भी घर नहीं भेज पाया तो माँ-बाप दुखी हो जाएँगे। उसे केशव ने भी याद दिलाया था। मोहल्ले वाले तो ऐसी बात का रास्ता ही देखते हैं। आते-जाते भाबी-भायजी को टोला मारेंगे। वह कहना चाहता था कि ऐसे उलाहनों और तानों की वह परवाह नहीं करता है। लेकिन वह बोल नहीं पाया। वह जानता है, भाबी-भायजी परवाह करते हैं और भाबी-भायजी तो ऐसे खिसाणे पड़ेंगे जैसे गाँव की बीच हतई पर धोती का कस्टा खुल गया हो। इस तरह न चाहते हुए भी वह इस मामूली सी अनचाही नौकरी की व्यस्तता में फँसने लगा है। फिर भी उसके भीतर यह भोली-सी उम्मीद है कि व्यस्तताएँ और परेशानियाँ क्षणिक हैं और वह अपनी तयशुदा राह पर चल देगा। सोच के इस रास्ते में भी जो चिंता और तर्क के दरवाजे हैं, वह उस तरफ पीठ करके बैठना चाहता है। वह पलंग पर उठ बैठा और हँसने लगा। हालाँकि केशव यहाँ नहीं है। शायद यह हँसी खुद उसके लिए है।

कमरे में अँधेरा फैला है। इसी अँधेरे में उसकी हँसी घुली हुई है। उसने पलंग पर बैठे-बैठे ही हाथ बढ़ाकर ट्यूब-लाईट जला दी। पलक झपकते ही रोशनी कमरे का अँधेरा निगल गई। साथ ही उसकी हँसी भी।

वह पलंग से नीचे उतरा और रोटी बनाने के लिए टीन के डिब्बे से आटा निकालने लगा। सुबह लौकी खरीदी थी लेकिन सब्जी बनाने का विचार छोड़ दिया। रोटी को अचार के साथ खा लेने का निर्णय लेकर उसे थोड़ी राहत मिली। अब रात के खाने से वह जल्दी निबट जाएगा। कल तो वह शाम के लिए रोटियाँ सुबह ही बनाकर दफ्तर जाएगा ताकि लौटने पर एक काम कम हो जाए।

लेकिन यदि कल दफ्तर में केशव का फोन आ गया तो? फिर तो शाम होने से पहले ही गाँव चल देगा। रोटी यूँ ही रखी रह जाएगी। उसने कल सुबह ज्यादा रोटियाँ बनाने का निर्णय निरस्त कर दिया। खाना खाकर उसने सोचा, चौक तक घूमकर आए। फिर यह विचार भी छोड़ दिया। यदि बाहर जाते ही अभी यहाँ तार आ जाएगा, तब? शहरों में तो शाम को या रात को भी तार वितरित होते हैं। वह वापस कुर्सी पर बैठ गया। रिकामा क्या करें? उसने सोचा, अगले महीने वह किश्तों पर एक रेडियो जरूर ले आएगा। समय कट जाया करेगा। उसने उठकर दरवाजा बंद किया और सोचा निरात से पलंग पर लेटकर सविता से बात की जाए। अकेले में, सविता की अनुपस्थिति में वह जितनी बातें सविता से कर लेता था कभी सविता के सामने आने पर भी नहीं कर पाता है। ऐसा, गाँव में भी कई बार हुआ है। उससे बातें करते हुए एक किस्म का संकोच हमेशा आड़े आ जाता, जबकि अपने मुहल्ले की लड़कियों से वह बेझिझक बातें कर लेता है। मजाक कर लेता है। उसे लगता है उनके बीच एक अकेली वह मिट्टी की दीवार नहीं है।

वह बहुत देर तक सोचता रहा कि नींद ने उसे दबोचा और सपनों में धकेल दिया। जैसा कि वह तय करके सोया था कि सविता के साथ बहुत सारा वक्त गुजारेगा, ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसने पी.एस.सी. के फार्म भर दिए बल्कि अगले ही पल वह परीक्षा हॉल में बैठा है। घबराया-सा। एकाएक होने जा रही परीक्षा में कुछ भी तैयारी करके नही आया है। परीक्षा हॉल में चलते हुए पंखों के बावजूद वह पसीने से तर-ब-तर है। परीक्षा हॉल में घूमते हुए प्राध्यापक को देखकर वह हतप्रभ रह गया। सविता का डिप्टी-कलेक्टर भाई है। और उसके हाथ में कागजों को रोल किया हुआ पुलिंदा है। फिर उसे एकाएक लगा कि कागजों का रोल नहीं, उसके हाथ में खाल खींचने की छुरी है।

घबराहट में वह उठ बैठा। टेबल के नीचे कोने में मटके से पानी निकालकर पिया, रस्सी पर टँगे पंचे को खींचकर उसने पसीना पोंछा। सूती, लाल पंचा जब उसने वापस रस्सी पर टाँगा तो उसकी चड्डी-बनियान भी अँधेरे में गाढ़ी परछाई की तरह डोलने लगे। उसने घड़ी देखी। भोर का सपना था।

सुबह जब तैयार होकर वह दफ्तर जाने लगा तो रात के सपने की थकान उस पर थी। वह ताला लगाकर गली में पलटा तो गुप्ताजी के मकान की ओर देखा। वह दरवाजे पर नजर नहीं आए। वह तेजी से गली पार कर गया। वह अकारण मकान-मालिक को किसी संदेह में नहीं डालना चाहता है। बूढ़ा सनकी है। इस मकान से निकाल देगा तो फिर कहीं किसी और मुहल्ले में जगह खोजनी होगी जो एक मुश्किल काम है। ऐसे व्यस्त समय में वह टाइम खोटी नहीं करना चाहता है। मकान खोजने में जाति को लेकर मकान-मालिक के जिन प्रश्नों से गुजरना पड़ता है वह अलग से एक तनाव झेलने वाला काम है। यह समय अभी ऐसे तनाव को नहीं सौंपना चाहता है। दफ्तर पहुँचकर वह कुर्सी पर बैठ गया। दफ्तर के लोगों से मामूली-सा परिचय हुआ था। उन्हीं से दुआ-सलाम होने लगी। नौकरी पर आए अभी उसे दिन ही कितने हुए हैं? कोई काम उसे अभी तक बताया नहीं गया है। वह पूरे दिना लगभग फालतू रहता था। आज भी यही उम्मीद कर रहा था लेकिन आज उसकी टेबल पर काम आया। बल्कि उसे काम समझाया गया। बीज के लिए किसानों के जो आवेदन आए थे उसकी समरी बनाने का काम उसे सौंपा गया। वह बहुत रुचि लेकर काम समझने लगा। उसे लगा, फोन के इंतजार और समय काटने के लिए यह काम भी बुरा नहीं है।

शाम हो गई लेकिन फोन नहीं आया। बहुत हताशा के साथ वह उठा और सहकर्मियों से औपचारिक विदाई लेने लगा। तभी पास के कमरे में बैठने वाली लेखापाल मिसेज राय को चलते-चलते जैसे कुछ याद आया। वह ठिठककर बोली, 'सुबह आपको कोई पूछ रहा था।'

- 'कौन? कब आया था? आपको कब मिला?' उसने आतुरता से कई सवाल किए और मिसेज राव का लगभग रास्ता रोककर खड़ा हो गया।

- 'कोई आया नहीं था, सिर्फ फोन आया था।' वह अपना हैंड-बैग खोलकर रूमाल निकालते हुए बोली।

- 'फोन आया था?' अचरज और आवेश में लगभग उसकी चीख निकल गई, 'मुझे किसी ने बताया क्यों नहीं? और फिर मैं तो यहीं था। कब आया फोन?' वह अपने पर नियंत्रण रखने की नाकाम कोशिश करता हुआ बोला।

- 'भई, फोन सुबह आया था। लगभग दस बजे। आप आए नहीं थे। फिर मैं भूल गई।' वह आवेश में थर-थर काँपती हुई उसकी देह को अचरज से देखते हुए बोली, 'और फिर फोन करने वाले ने सिर्फ आपका नाम पूछा। यह सुनते ही कि आप नहीं आए फोन रख दिया।' मिसेज राव ने सफाई-सी दी।

'थारी गोर खोदूँ! तुख सपाटो आव ऽ ! थारी माय ख बैड़ी प का वांदरा लइ जाय, रांड!' वह गुस्से में मन-ही-मन अपने गाँव की और खासकर अपने मुहल्ले की झगड़ालू औरतों की भाँति गालियाँ देने लगा। फिर कुढ़ते-कलपते हुए छुट्टी की अर्जी लिखकर दी और घर की ओर चल दिया। गुस्सा केशव पर भी कम नहीं आ रहा है। स्साला... दर्जी...! दो रूपट्टी लेकर कोई सामने खड़ा हो गया होगा तो उसका पेंट या पजामा रफू करने रुक गया होगा। मेरी 'तयमल' को, मेरे धीरज को स्साला दो रूपए की सिलाई करने के वास्ते उधेड़कर रख देगा। इसी 'माजने' का है। वर्ना क्या दुबारा फोन नहीं कर सकता था। गुस्से का रेला केशव की तरफ रलकने लगा। सुबह फोन मिल जाता तो छुट्टी लेकर उसी समय गाँव चल देता। अब यदि घर जाकर बैग तैयार करके बस-स्टैंड जाऊँगा तब तक आखिरी बस भी निकल चुकी होगी। फिर भी वह तेज-तेज कदमों से, लगभग दौड़ते हुए घर पहुँचा। ताला खोलकर घर में दाखिल हुआ ही था कि मकान-मालिक पुकार लगाता हुआ आया कि 'तुम्हारा तार आया है।' वह बैग तलाश करके अपने कपड़े उसमें रखने ही वाला था तार का नाम सुनकर ठिठक गया। अब उसे पक्का यकीन हो गया कि बात वही है। सुबह भी फोन निश्चय ही केशव ने किया होगा और कोई तो तार करने से रहा। और किस बात के लिए? नाते-रिश्तेदारों में तो मरने के बाद तार करने की सजगता और आधुनिकता आई नहीं है और फिर खबर करेंगे भी तो वहाँ गाँव में करेंगे। यहाँ कोई खबर नहीं करेगा। अनसुने फोन के बावजूद उसकी खुशी के पंख कटे नहीं थे। वह पलटकर दरवाजे तक आ गया। उसने देखा मकान मालिक के चेहरे पर आज कोई मुस्कान नहीं है।

- 'तुम्हारा तार है! कोई मर गया है।' कहते हुए बूढ़ा इस उम्मीद में खड़ा रह गया कि अभी इस रो देने वाले लड़के को सांत्वना और बुजुर्ग दिलासे की जरूरत पड़ेगी। हाथ में तार लेने के बाद उसने तार पढ़ा। 'शी इज नो मोर' बस इतना लिखा था। जो उसके लिए पर्याप्त है। न चाहते हुए भी उसके रोम-रोम से प्रसन्नता के फव्वारे छूटना चाहते हैं जिसे वह जबरन दबा रहा है और इस नाकाम कोशिश में खुशी रिस-रिस कर उसकी आँखों से बाहर आ रही है। चेहरे पर खुशी दबाने के बावजूद मुस्कान बार-बार फिसलकर चेहरे पर फैल रही है। बूढ़ा अचरज से उसे देख रहा है। उसने जल्दी से बूढ़े को विदा किया वर्ना उसे लगा कि वह अभी खुशी के मारे घर में नाचने लगेगा और बूढ़ा मुहल्ले में तरह-तरह की बातें करेगा।

उसने जल्दी-जल्दी कपड़े समेटे और बैग तैयार करके बस स्टैंड तक लगभग दौड़ता आया। जैसे कि उसे शक था। बस निकल चुकी थी। वह थके कदमों से वापस घर आया। ताला खोलकर भीतर आया और बैग कुर्सी पर रखकर पलंग पर बैठ गया। अब इत्मीनान से बैठने पर जब उसने सोचा तो उसे उपनी खुशी पर लज्जा भी आई। वह मृत्यु पर प्रसन्नता प्रकट कर रहा है। उसने सिर झुका लिया। हालाँकि यहाँ इस शर्म को कौन देखने वाला है? फिर उसने खुद को समझाया कि बूढ़े-आड़े की मौत का क्या शोक? बुढ़िया बहुत बीमार थी। तकलीफ से छुटकारा मिला। सविता के पिता दीनानाथ शास्त्री खुद भी गाँव में किसी की मौत पर घर तक बैठने जाते हैं तो इसी तरह समझाते हैं। मृत्यु तो एक तरह से छुटकारा है। पुरानी और जर्जर देह से। पुराना और जर्जर मकान छोड़ने जैसा। हम लोग इधर शोक मना रहे हैं, उधर आत्मा नया चोला धारण कर रही है। आत्मा पुराना चोला छोड़कर, नया चोला धारण करती है। यह तो जैसे कायांतरण है। तुम व्यर्थ शोक मना रहे हो। आत्मा को देह छोड़ते हुए कोई शोक नहीं था। इतनी उमर तो नसीब वालों को मिलती है। ईश्वर का आभार मानो, भरा-पूरा परिवार, नाती-पोते छोड़कर गया, जाने वाला... वगैरह... वगैरह जाने कितनी बातें होती है, समझाने के लिए। बामणदाजी दीनानाथ शास्त्री तो इसके सिद्धहस्त हैं। हालाँकि गिने-चुने घर हैं जहाँ बामणदाजी जाते हैं। कुछेक अहीरों, और कुछेक राजपूतों के घर जाते हैं। बाकी छोटी जात के किसानों के घर इस तरह गमी में या कथा-पूजा के लिए उनका बेटा हरिप्रसाद जाता है। चमार टोले और भंळई मुहल्ले की तरफ तो मुँह करके बामणदाजी पानी भी नहीं पीते हैं। भंळई लोगों का तो खैर अलग से पंडित है लेकिन चमार टोले में भी बामणदाजी अपने लड़के को पूजा-पाठ के लिए नहीं भेजते हैं। चमार अपने आप को भंळई से ऊपर समझते हैं इसलिए वे भंळई लोगों के पंडित को नहीं बुलाते हैं।

चमार टोले में बामणदाजी के छोटे भाई जो कुछेक साल पहले ही बामणदाजी से जमीन-जायदाद में हिस्सा लेकर अलग हो गए थे, पूजा-पाठ के लिए आते हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे कोई चमारों को अपने सामने पाट पर बैठकर पूजा करने देते हैं या कराते हैं। पहले किसी सवर्ण मजदूर को भेजकर एक कमरे को गोबर से लिपाते हैं। फिर दूर एक कोने में चमार दंपत्ति नहा धोकर बैठ जाता है। चमार दंपत्ति अपने सामने पलास के पत्तों का दोना रख लेता है। और तांबे के एक लोटे में पानी और पूजा का सामान। दूर दूसरे कोने में बामणदाजी के छोटे भाई पंडित सिरजू महाराज बैठते हैं। वे साथ में अपने छोटे बेटे को लाते हैं जो ठीक उनके सामने बैठकर पूजा की विधि पूरी करता है। यानी परात में रखे गणेशजी पर जल चढ़ाना हो या कुंकू-चावल चढ़ाना हो, चमार दंपत्ति की ओर से सिरजू महाराज का बेटा जल चढ़ाता है या कुंकू-चावल चढ़ाता है। दूर कोने में बैठे चमार दंपत्ति हाथ जोड़ लेते या फिर अपने सामने दोने में जल चढ़ाने की विधि दोहराते हैं। चमार दंपत्ति न तो महाराजजी को छू सकता है और न ही पास में फटक सकता है। पूजा में जो सिक्कों की चढ़ोत्री रहती है उसे भी सिरजू महाराज अलग रखते है। और गंगा जल से धोकर घर लाते हैं। इस तरह चमार दंपति की इस पूजा की विधि में सिर्फ दर्शक की-सी उपस्थिति रहती या फिर दूर कोने में बैठकर सिरजू महाराज के लड़के द्वारा की जा रही पूजा विधि को सामने रखे दोने में दोहराते रहने का काम रहता है। वे इसी में प्रसन्न रहते हैं। वे इसी को पूजा-पाठ मानते हैं। न तो भगवान को छूकर पूजा कर पाते हैं और पंडित को छूना तो दूर, सामने भी नहीं बैठ सकते हैं। ऐसा हर चमार को करना होता है। क्योंकि यही उसके भाग्य में लिखा है। 'पूरबला जनम' के पाप हैं जो उसे इस तरह दिन देखने पड़ रहे हैं। ऐसा उसे पंडितजी समझाते हैं। उनके बाप-दादों को भी यही समझाया था। ऐसा बरसों से होता आया है। आज भी हो रहा है। भंळई लोगों के भाग तो अभी चमारों जैसे भी नहीं जागे हैं। उनके घर तो कोई ब्राह्मण इस तरह दूर बैठकर भी पूजा कराने नहीं आता है। सोचता हुआ वह आटे से भरे टीन के कंसरे पर रखी इतिहास की किताब को उठाकर उस पर लगा आटा झाड़ने लगा। यह किताब वह पी.एस.सी. की तैयारी के लिए लाया है। एक बार गाँव से वापस आ जाऊँ फिर पढ़ाई की तैयारी जोरों से करूँगा। ऐसा सोचते हुए किताब उसने वापस कंसरे पर पटक दी। अब उसका अपराध-बोध थोड़ा कम हुआ। अपनी प्रसन्नता के पक्ष में तर्क और निरर्थक स्मृतियाँ जुटाकर उसके मन का संकोच थोड़ा जाता रहा।

अब कठिन काम है, रात बिताना। वह जानता है, कितनी भी कोशिश कर ले रात को नींद नहीं आएगी। एक बार तो उसका मन हुआ कोने की कलाली से थोड़ी शराब ले आए। नींद जल्दी आ जाएगी। फिर सोचा यदि नशे में सुबह नींद जल्दी न खुली तो? उसने मदिरापान का विचार त्याग दिया। सुबह तो हर हाल में उसे पहली बस पकड़नी है।

उसे खुद याद नहीं रहा कि रात कितनी देर तक वह कमरे के चक्कर काटता रहा फिर सोया! सुबह नींद बस के जाने से काफी पहले खुली। तैयार होकर वह बस-स्टैंड पहुँचा तो देखा, बस अब उसकी आँखों के सामने है। इतनी सुबह भी बस-स्टैंड पर दुकानें खुल गई हैं। खासकर चाय की दुकानें। अलसाए और उनींदे से मैले-कुचैले लड़के चाय के भगोने धो रहे हैं। कोने की गैस-भट्टी पर सफेद बालों वाला बूढ़ा चाय उबाल रहा है। दो कुत्ते पास ही मँडरा रहे हैं। एक सफेद कुरता-पाजामे वाला आदमी छींट के कपड़े का झोला टाँगे बेंच पर बैठा चाय की चुस्कियाँ ले रहा है। एक किसान ढीली-सी पगड़ी बाँधे बूढ़े को भट्टी पर चाय का पतीला हिलाते हुए देख रहा है। वह शायद चाय पी चुका है। तभी बस ने हॉर्न दिया। सुबह की खामोशी में हॉर्न इतनी तेज आवाज में बजा कि अलसाया-सा कुत्ता और ढीली पगड़ी वाला किसान एक साथ चौंक गए। किसान धीरे से उठ खड़ा हुआ।

जिस समय वह गाँव जाने वाली सड़क पर बस से उतरा तो मुश्किल से दस बजे थे। बस चली गई तब उसने गाँव जाने वाली सड़क पर नजर डाली। दूर एक बैलगाड़ी जा रही है। बस से इस जगह उतरने वाला वह अकेला था। चुपचाप रास्ते पर उतर गया। थोड़ी दूर जाने पर देखा, आम के पेड़ के नीचे, चरवाहे ताश खेल रहे हैं। वह ठिठककर देखने लगा। वे खेल में मस्त हैं। उसने देखा पैसे किसी के पास नहीं हैं। वे लोग बगैर पैसे के ताश खेल रहे हैं। वह तुरंत आगे बढ़ गया। उसे मालूम है बगैर रुपए-पैसे के खेल में हारने वालों को खड़ा करके बाकी जीतने वाले तीन-चार बार जोर से भंळई... भंळई... भंळई... कहते हैं। यह खेल वह बचपन से देख रहा है। हारने वाला भी जानता है कि भंळई कह भर देने से उसकी जात नहीं बदलेगी। लेकिन कोई ऐसा न कह पाए इस कारण सभी जी-जान से जीत के लिए खेलते हैं। बेईमानी तक करते हैं। हार-जीत के लिए लड़ाई-झगड़े तक होते हैं कि कोई उसको भंळई न बोल पाए। कितनी अजीब बात थी कि हारनेवाला इस संबोधन के अपमान को रुपए-पैसे की हार से भी बड़ा मानता है। एक जाति का संबोधन हारने वाले के लिए एक बड़ी सजा की तरह है।

गाँव के करीब जब वह तलाव-बैड़ी से नीचे उतर रहा था उसने देखा, तालाब का पानी बिल्कुल सूख गया है। बैड़ी से नीचे उतरते ही गाँव के बाहर फैले टपरे शुरू हो जाते हैं। यहाँ से गाँव के लिए दो रास्ते हैं। बाईं ओर के अर्धवृत्ताकार रास्ते से पहले आदिवासियों के कुछ टपरे पड़ते हैं फिर राजपूतों के मकान हैं। फिर वही रास्ता दाईं ओर पलटता है। तो बामण-सेरी आ जाती है। आगे जाने पर हतई और फिर मंदिर के पास गाँव का दूसरा सिरा जहाँ नाले के पास पनघटिया कुआँ है। इसी तरह दाईं ओर से जाने पर सबसे पहले भंळई मुहल्ला फिर चमार मुहल्ला फिर काछियों के मकान। कुछ अहीरों के और बाईं ओर घूमते ही फिर बामण-सेरी आ जाती है। बामण-सेरी की ओर न पलटते हुए दाईं ओर चले जाओ तो फिर वही हतई वाला रास्ता मिल जाता है।

ठीक इसी जगह पर जहाँ से दो रास्ते अलग होते हैं। गाँव के इस किनारे पर एक कुआँ है। जो गाँव में किसी समय रहनेवाले महाजन परिवार का था। जिनका खंडहर हो रहा मकान अभी भी है, जिसमें कुत्ते और सूअरों ने अस्थाई निवास बना लिया है। इस कुएँ में कभी पानी था जो राजपूतों के काम आता था। हालाँकि भंळई मुहल्ले के ज्यादा नजदीक था लेकिन महाजनों के कुएँ में तो वे मरने की इच्छा के लए भी नहीं झाँक सकते थे। इसलिए बाईं ओर से फिर राजपूतों के लिए स्वतः ही उपयोगी हो गया। अब तो पिछले दो बरसों से सूखे ने इस कुएँ पर कब्जा जमा रखा है।

पहले तो उसने सोचा कि बाईं ओर वाले रास्ते से चला जाए जहाँ से बामण-सेरी होता हुआ आखिर में उसका मुहल्ला आ जाएगा। लेकिन उधर से जाने में एतराज उठेगा। ब्राह्मणों को ही नहीं, बाकी गाँव वालों को भी एतराज होगा कि बिना कारण भंळई का छोरा बामण-सेरी से क्यों निकला? कोई भी बामण दो बात सुनाकर माजना उतार देगा और एक बार इज्जत गई तो जिंदगी भर गाँव में ऐसी किसी घटना पर लोग उसी का उदाहरण देंगे। मन मारकर वह दूसरे रास्ते से घर की ओर चल दिया।

भाबी घर के छान की झाड़ू निकाल रही है। भायजी घर नहीं है। चार छोटे भाई-बहन भाबी के आस-पास दौड़ रहे हैं। उसने भाबी का उघड़ा पेट देखा। उभरा हुआ है। उसका मन गुस्से और शर्म से भर गया। उसके बाप को और कोई काम नहीं जैसे। जब चाहे चढ़ बैठता है। भाबी तो जैसे कुत्ते, बिल्लियों की तरह बच्चे पैदा कर रही है। और एक भाई, एक बहन अभी घर में है। बल्कि कहें भाबी की गोद में ही है। स्साला बच्चा गोद से नीचे उतरा नहीं कि अगला बच्चा गोद में तैयार। कैसी औरत है यह? कंडे थापने और बच्चे पैदा करने में कोई फर्क नहीं समझती है। फिर असली दुश्मन तो बाप है। दारू पीकर आएगा और ऊपर चढ़ जाएगा तो कैसे उतार पाए भला। भाबी हाथ की झाड़ू नीचे रखकर खुशी और अचरज से उसे देखने लगी।

- 'इत्ती जल्दी वापस आयो, पछो पाँय? असो काई करत?' भाबी ने उसके हाथ से बैग लेकर खूँटी पर टाँग दिया।

- 'हओ, ...अभी थोड़ा दिन छुट्टी छे!' उसने टालते हुए कहा, 'चलो, अच्छो हुयो!' भाबी खुश होकर बोली फिर पलटते हुए पूछा, 'चाय लाऊँ?' और जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर पीछे एक-ढाली में चाय बनाने चली गई। वह भी भाबी के पीछे एक ढाली में आया तो देखा, छत के आड़े को टेका देने के लिए लकड़ी की मोटी बल्ली का खंभा लगाया है। जिस पर कील ठोक कर एक तस्वीर लटका दी है मिथुन चक्रवर्ती की। तस्वीर जिस फ्रेम में लगी है वह टूटे हुए आईने की है। टूटा हुआ शीशा फेंककर खाली फ्रेम में मिथुन चक्रवर्ती की तस्वीर किसी अखबार से काटकर चिपका दी गई है। वह आगे बढ़ा और गुस्से में तस्वीर उतारी और पीछे का दरवाजा खोलकर बाहर रूखड़े पर फेंक दी। दरवाजा बंद करके वापस लौटने लगा तो उसने केशव के घर की ओर देखा। वह पीछे दीवार के पास आकर पड़ोस में केशव के घर झाँकने लगा। कोई नजर नहीं आया तो उसने जोर से आवाज लगाई, 'केशव-ओ-केशव...!' कोई प्रत्युत्तर नहीं आया तो वह भाबी से पूछने के लिए पलटा तो भाबी ने चूल्हे को फूँक मारते हुए जानकारी दी, केस्या तो नाई के छोरे के साथ महुए के पत्ते लेने गया है। पत्तलें बनानी हैं। तूझे शायद मालूम नहीं। बामणदाजी की डोकरी खुटी गई! चार गाँव की पंगत है। खूब पत्तलें लगेंगी। वह कुछ नहीं बोला। चाय पीकर वह फिर आगे मुख्य दरवाजे की तरफ न जाते हुए इसी पिछवाड़े का दरवाजा खोलकर बाहर खलिहानों की ओर निकल गया। उसे मालूम था, केशव महुए के पत्ते लेने किस जंगल की तरफ गया होगा। घाट के ऊपर पटेल के खेत के पास महुए के बहुत सारे पेड़ हैं।

उसने देखा, केशव पेड़ पर चढ़ा है और पेड़ के ऊपर से पत्ते नीचे फेंक रहा है, कालू नाई का लड़का राजू, नीचे खड़ा पत्ते इकट्ठा कर रहा है। पहले केशव ने उसे दूर से देखा और कुर्राटी मारकर खुशी से चिल्लाया फिर राजू ने देखा तो उसने आवाज देकर बुलाया। वह करीब पहुँचा तब तक केशव नीचे उतर आया था। पहले तो उसने भी चाहा कि पत्ते समेटने में मदद कर दे लेकिन फिर झिझककर रुक गया। फिर राजू से पूछा, 'पलास के पत्ते क्यों नहीं लाया! गाँव के पास बहुत मिल जाते। आजकल तो पत्तलें पलास के पत्तों की भी बनाते हैं!'

राजू हँसने लगा। उसकी हँसी में अजीब-सा व्यंग्य था। बोला, 'चार दिन शहर क्या हो आया। गाँव की रीत भूल गया। तुझे मालूम तो है ना, पंगत किसके यहाँ है?' कहकर वह कुछ क्षण रुका फिर खुद ही जवाब दिया, 'बामणदाजी के घर। चार गाँव की पंगत है, लायण देंगे। पहले ही बोल दिया कि बामण के घर की पंगत में पलास के पत्ते की पत्तल नहीं चलेगी।' कहकर वह पत्तों को टाट के बोरे में भरने लगा। केशव ने राजू के पास एक ही थैला देखा तो पूछने लगा कि इतने सारे पत्ते एक ही थैले में कैसे जाएँगे, घर से दो थैले लाना चाहिए था। इस बात पर राजू सिर हिलाकर बड़बड़ाने लगा। फिर उसने बताया कि घर पर थैले तो दो हैं लेकिन कल थैला बद्रीभाई ले गए थे। सुकला लाने के लिए। कहने लगे, ढोर भूखे हैं। किरसाण के लिए ढोर तो देवता हैं। वो जो थैला ले गए, आज तक वापस नहीं किया। घर पर डोकरा अलग गुस्सा कर रहा है कि वे लोग किरसाणी करते हैं तो क्या हम भंळईपणा करते हैं? आगे केशव ने उसकी बड़बड़ाहट नही सुनी। वह चौंककर उसको देखने लगा। हालाँकि इस तरह जाति को लेकर की गई टिप्पणियों का गाँव में कोई बुरा नहीं मानता है। यह गाँव की बोली में घुली-मिली चीज है लेकिन केशव यह भी जानता है कि किशन को ऐसी बातें जल्दी चिपक जाती हैं। जैसे किसी ने डाव लगा दिया हो। गरम-गरम चिमटा चोटा दिया हो! उसका ध्यान बँटाने के लिए केशव उसके करीब आ गया। उसने किशन के कंधे पर हाथ धरा और लाड़ में आकर उसकी कमर में हाथ डाल दिया। राजू ने थैले का मुँह बाँधा और पीठ पर रख चल दिया। दोनों ने उसको चलते रहने का संकेत किया कि चलते रहो, हम लोग आराम से आएँगे।

सहसा उसको याद आया।

- 'केशव तूने सुबह दफ्तर में फोन किया। फिर बाद में क्यों नहीं किया?' वह चलते-चलते ठिठक गया।

- 'मुझे लगा तू इतने में समझ जाएगा। घड़ी-घड़ी बनिए की दुकान पर जाने से क्या मतलब?' केशव ने उसके कंधे को हल्के से धक्का देकर चलते रहने का संकेत किया। दोनों फिर चलने लगे। वह सिर्फ सिर हिलाकर रह गया। फिर चलते हुए वह रुका और नीचे झुककर उसने महुआ का फूल उठाकर मुँह में रख लिया। फूल की मिठास जुबान से फिसलकर गले की तरफ रेंग गई। उसने केशव के कंधे पर फिर से हाथ धर दिया। जिसके हाथों में अभी भी महुए का पत्ता है।

- 'डोकरी कल कब मरी?' सहसा उसने केशव से पूछा।

- 'तुझे किसने कहा कि कल मरी?' केशव ने सिर को थोड़ा तिरछा करके उसकी ओर देखते हुए पूछा।

- 'तेरा फोन और तार कल ही तो आया!' उसने केशव के कंधे से हाथ हटाते हुए जवाब दिया।

- 'फोन से क्या होता है? डोकरी तो तेरे जाते ही निपट गई थी। और सविता उसी दिन दाह-संस्कार से पहले आ गई थी। कल तो तेरहवीं है।' केशव सपाट स्वर में बोला, - 'वर्ना पत्तल-दोने बनाने के लिए इतने दिन पहले पत्ते लेने आ जाते?'

- 'क्या?' वह सहसा चीख पड़ा, 'तूने मुझो इतने दिनों बाद खबर की? तू जानता है मैंने एक-एक दिन कैसे काटा है? किस तरह तेरे फोन का, तेरे तार का रास्ता देखा है? मैं तो तभी आ जाता!' आवेश में वह चलते-चलते रुक गया। केशव दो कदम आगे चलकर रुक गया। फिर बहुत इत्मीनान से उसकी तरफ देखते हुए बोला, 'जल्दी आकर तू यहाँ क्या उखाड़ लेता?'

- 'मिलता उससे और क्या?' अब उसके स्वर में कुढ़न आ गई थी।

- 'कैसे मिलता? तू इस गाँव में नवादा है क्या? अभी राजू ने क्या गलत कहा कि चार दिन शहर में रहा तो गाँव की रीत भूल गया।' केशव थोड़े रोष में उलाहने के स्वर में बोला, 'तुझे मालूम तो है ना किस घर में सोग है?' फिर खुद ही जवाब दिया, 'पंडित दीनानाथ शास्त्री के घर। पूरे गाँव को सोग मनाने का हुकुम है। उसके घर से तो दसा तक कोई औरत घर के बाहर क्या, बैठक में भी नहीं आ सकती है। मिलना तो दूर, देखना मुश्किल है। गाँव में रेडियो-टेप सब बंद है। उनके घर के आगे तो चिड़िया भी चहचहाकर नहीं निकल सकती है।'

- 'लेकिन खबर तो करता!' वह फिर उसी टेक पर आ गया।

- 'इसीलिए नहीं की। आठ-दस दिन गाँव में फालतू पड़ा रहता। उधर नई नौकरी से इतनी छुट्टी मिलती क्या?' फिर वह सहसा मुस्कराने लगा और बोला, 'धेला का चरसा और उसके लिए तू सौ रुपए की भैंस मारेगा?'

- 'मैं कहाँ नौकरी छोड़ रहा हूँ?' उसने प्रतिवाद किया फिर बोला, 'और तू सविता को चरसा मत बोल।'

- 'क्यों उसकी देह पर चमड़े की जगह प्लास्टिक है क्या?' केशव हँसकर बोला।

- 'कम-से-कम धेले का चरसा मत बोल।' उसने फिर प्रतिवाद किया।

- 'धेले का नहीं तो फिर कितना? तू ही बता दे?' केशव उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला।

- 'स्साले दर्जी... धेले-कौड़ी से भी आगे सोचेगा?' थोड़े गुस्से के बाद वह मुग्ध भाव से बोला, 'अनमोल है वह!'

- 'क्या अनमोल है उसमें?' केशव मुँह बिचकाकर बोला।

- 'बामण का चमड़ा है। यही अनमोल है।' अब उसके चेहरे से मुग्धभाव नदारद था और उसकी बोली में थोर के काँटे जैसा पैनापन आ गया था। वह रुक गया। केशव ने देखा, उसके चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान है। तत्काल वह सहज भी हो गया। बोला, 'कुछ जुगाड़ कर, मिला दे उससे!' केशव पलटकर रुक गया था। उसकी ओर देखते हुए बोला, 'आज बारहवाँ है। शायद तेरहवीं तक कभी उसको घर से निकलने का मौका मिल जाए!' कहकर बिना यह देखे कि वह आ रहा है या नहीं, केशव पलटकर चल दिया। कुछ देर वह चुपचाप खड़ा रहा फिर वह भी उसके पीछे-पीछे चल दिया। केशव की बात बहुत व्यावहारिक और उचित थी लेकिन भावुकता ऐसी बातों के पास कहाँ ठहरती है?

घर तक दोनों चुपचाप आए। घर के निकट आकर केशव घर में दाखिल होने से पहले उसकी ओर पलटकर बोला, 'शाम तक उसका रास्ता देख मैं उसको खबर भेजने की जुगत करता हूँ। शाम को मिलेंगे।' कहकर वह अपने घर में चला गया। वह घर के भीतर आया। पीछे की एक ढाली में जहाँ कोने में चूल्हा है और दूसरे कोने में एक खटिया बिछी है जिस पर गोदड़ी पड़ी है, उसने गोदड़ी को लपेटकर एक ओर सरका दिया और नंगी खटिया पर लेट गया।

पता नहीं केशव उसे कैसे खबर करेगा? और वह कब आएगी? भाबी की पुकार पर उसकी निंद्रा टूटी। रोटी खाने के लिए बुला रही है। टीन के पतीले से दाल निकालकर कटोरी में डाली और टीन की तश्तरी में रोटी रख दी। बहुत अनिच्छा से खाकर वह उठा। इसी बीच भाबी ने उससे बात करने की कोशिश की जिसे वह बस हुंकारा देकर सुनता रहा। भाबी कुछ देर तक अपनी कमर पर हाथ धरकर उसे देखती रही फिर तनिक रोष और व्यस्तता के साथ आगे कमरे में चली गई। वह वापस नंगी खटिया पर आकर सो गया। इस बार नींद ने मुरव्वत नहीं की।

अँधेरा होने को आया तब उसकी नींद खुली। वह घबराकर उठा। उसे खुद पर गुस्सा भी आया। कैसे सो गया भला वह? वह आकर चली तो नहीं गई? लेकिन वह आती तो दीवार के दूसरी तरफ से हमेशा की भाँति कोई बर्तन बजाती। इसका मतलब है कि वह नहीं आई। वह उठकर दीवार तक आया और केशव को आवाज लगाई। केशव आगे के कमरे से निकलकर पिछवाड़े आ गया। उसके पूछने से पहले ही इनकार में गरदन हिलाने लगा। बोला, 'कोई जुगत नहीं बैठी। रात को राजू के साथ जाऊँगा। सामने पड़ी तो इशारा कर दूँगा।' कहकर उसने लोटा उठाकर पानी भरा और उससे बोला, 'चल, टट्टी बैठने चलते हैं, वहीं बैड़ी पर बातें करेंगे। उसने सिर हिलाया और पास पड़े टीन के टामलोट में पानी भरकर हाथ में थामा और पिछवाड़े के दरवाजे से बाहर आ गया।'

उसको केशव का साथ हमेशा अच्छा लगता है। दोनों ने साथ ही बी.ए. किया था। फिर केशव ने पढ़ाई छोड़ दी। और उसने एम.ए. किया। दोस्ती पर जुड़ाव की ऐसी सिलाई लगी कि कोई भी राँपी इसे काट नहीं पाई। उसने केशव से कई बार कहा कि पी.एस.सी. करे तो डिप्टी-कलेक्टर आराम से बन जाए। वह पढ़ाई में उससे भी तेज था।

सहसा चलते हुए उसने केशव से कहा, 'मैं सोचता हूँ पिछवाड़े इतना लंबा-चौड़ा हिस्सा खाली है। वहाँ एक छोटा-सा लेट्रीन-रूम बना लिया जाए।' फिर एतराज में केशव का मुँह खुलता देख तुरंत बोल उठा, अब तू फिर से मेरे शहर जाने को मत कोसना। यार, हम लोग शहरी चोंचलों के नाम पर कब तक हर सुविधा से परहेज पालते रहेंगे?' केशव ने क्षण भर उसकी ओर देखा फिर मुस्करा कर बोला, 'अपने बाप से पूछ लेना। हाँ कर दे तो मुझे भला क्या एतराज होगा?'

- 'दुनिया बदल रही है केशव, छोटी हो रही है।' उसने उसकी मुस्कराहट पर कुढ़ते हुए कहा।

- 'किधर बदल गई है भाई? मेरा बाप कल भी दर्जी था, आज भी है। तेरा बाप कल भी चरसा का काम करता था, आज भी करता है।' केशव ने हँसकर कहा। कुछ क्षण चुप रहकर किशन की ओर बगैर देखे फिर कहा, 'तुझे याद है किशन एक बार गाँव में बीमारी फैली थी। भंळई मुहल्ले से लेकर चमार टोले और फिर अहीर मुहल्ले तक गई थी। लेकिन बामण-सेरी और राजपूत मुहल्ले बचे रह गए थे। इस बार लगता है बीमारी उधर के मुहल्ले से अंदर आई है।' कहकर वह हँसने लगा फिर अँधेरे में पानी के डबरे से बचते हुए आगे बढ़ा और बोला, 'बामणदाजी का घर तो छोड़, वह तो बड़ा घर है लेकिन रामेसर दादाजी मंदिर के पुजारी न होते तो भीख माँगने की नौबत थी। न गाँव में घर न जंगल में खेत। उनकी औलाद को भी नहाने के लिए साबुन चाहिए।'

- 'यार तू साबुन में से कुछ ज्यादा ही झाग निकाल रहा है।' वह हँसकर बोला।

- 'लेकिन तू ये बता' चलते हुए वह टामलोट को इस हाथ से उस हाथ में लेते हुए बोला, 'तुझे ये अचरज नहीं होता कि इस गाँव में साबुन मिलने लगा है? इस बात का अचरज नहीं होता कि गणेश उत्सव पर भुसावल से रांडें बुलाने के लिए न केवल जवान छोरे बल्कि कई बूढ़े भी इनकार कर गए थे कि ये राँडें पुराने गानों पर पुरानी चाल से नाचती हैं। सनीमा जैसा नहीं नाचती हैं।'

बैड़ी आ गई थी। केशव उभरी हुई चट्टानों पर ऐसी जगह बैठ गया जहाँ से किशन उसे धुँधला-सा नजर आता लेकिन आवाज साफ सुनाई देती रहे। नंगे दिखने का संकोच भी न रहे और बातों की सुविधा रहे।

- 'बीमारियाँ घर देखकर नहीं आती हैं। अब इस भ्रम में मत रहना।' उसने चट्टान के पीछे से ऊँची आवाज में कहा, 'मोट, रेहट को पुराना कहकर डीजल पंप आए फिर वो भी पुराने पड़े और बिजली पंप आए तो डीजल पंप कचरे में चले गए। अब बिजली कब तक टिकती है देखना? नहीं तो भूखे मरने की नौबत है! क्या करोगे तब?'

- 'केक खाकर दिन काटेंगे!' केशव उधर से हँसकर बोला। दोनों हँसने लगे।

रात के करीब पहुँच चुकी शाम के अँधेरे में दोनों की हँसी चट्टानों से फूटती हुई लग रही है। कुछ देर चुप रहकर वह गरदन घुमाकर केशव की ओर अँधेरे में घूरता हुआ बोला, 'रात को कब जाएगा बामणदाजी के घर?'

- 'तू धीरज रख। मैंने राजू को बोल रखा है। मेरे बगैर नहीं जाएगा।' केशव की आवाज आई।

- 'तू जानता है कितने दिन हो गए। उसको देखा भी नहीं।' उसने उदास आवाज में कहा।

कुछ देर चुप्पी रही। फिर जब केशव बोला तो उसकी आवाज एकदम बदली हुई थी।

- 'किशन कभी-कभी मुझे बहुत डर लगता है! पता नहीं क्या होगा?'

- 'क्या होगा? क्या कर लेंगे वो लोग?' अँधेरे का लाभ उठाकर बहुत साहस के साथ बोला।

कुछ देर तक खामोशी रही। उसे केशव के पोंद धोने की आवाज साफ सुनाई दे रही थी। कुछ देर बाद वह पाजामे का नाड़ा बाँधते हुए उसके पास आ गया। तब तक वह भी निवृत्त होकर उठ खड़ा हुआ था। कुछ देर तक केशव खड़ा उसे घूरता रहा फिर बोला, - 'तेरा बाप भी ऐसी सफाई से जानवरों की खाल नहीं खींचता होगा। ऐसी सफाई से तेरी खाल खींचकर वे लोग, तेरे बाप के हाथ में दे देंगे।' कहकर कुछ क्षण वह रुका रहा फिर चल पड़ा।

- 'तुझे मालूम है देश आजाद हुए कितने साल हो गए हैं?' वह व्यंग्य से बोला।

- 'मालूम है, तीस साल से ज्यादा हो गए।' केशव भी वैसे ही व्यंग्य से बोला, 'लेकिन उधर दिल्ली में आजाद हुआ है, इधर अपने गाँव में नहीं।' फिर उसे समझाते हुए ऐसे बोला जैसे धमका रहा हो, 'मिर्ची की ऐसी धूणी देंगे कि तेरा ये इश्क का भूत घड़ेक में उतर जाएगा। जामली का पाँच आकड्या बड़वा दाजी भी भूत नहीं उतार पाए। ऐसा शर्तिया उतारेंगे।' कहकर वह हँसने लगा।

वह कुछ नहीं बोला। झुँझलाकर पैर की ठोकर से जमीन पर पड़े पत्थर को दूर उछालने की कोशिश की। पत्थर थोड़ी दूर लुढ़ककर रह गया। फिर जैसे केशव उसके नजदीक आकर उसे समझाने वाले ढंग से, बुजुर्गों की तरह बोला, 'किशन! छोटो दग्गड़ गाँड पोछण्यो!' फिर लोकोक्ति का विस्तार करते हुए बोला, 'लोगों की निगाहों में छोटे पत्थर की बस यही बखत है। पोंछकर फेंक दिया।' कहते हुए उसने अपना पैर डबरे में पड़ने से बचाया लेकिन खुद को खिन्नता के रुखड़े पर गिरने से नहीं बचा पाया। दोनों चुप हो गए।

चाँद दूर महुए के पेड़ों के पीछे से निकलकर अब बैड़ी के ऊपर आ गया। बैड़ी पर पूरे चाँद की रोशनी फैल गई। दोनों नीचे उतरने लगे। नीचे रास्ते के पहले दाईं ढलान पर बैल का कटा हुआ सिर पड़ा है। निश्चित ही इस बैल की खाल उतरी हुई देह का पिंजर भी कहीं पड़ा होगा उसे मालूम है, खाल खींचने से पहले जानवर का सिर काटकर अलग कर देते हैं। बैल का मुँह खुला हुआ है। दाँत बाहर नजर आ रहे हैं। उसने पलटकर केशव से कहा, 'इस बैल को देख, खुला मुँह कैसा लगता है? जैसे हँस रहा हो। जानवर हँसते हैं क्या?'

- 'नहीं यार, मरते समय दर्द या चीख के मारे मुँह खुला रह गया होगा।' केशव ने एक नजर बैल के कटे हुए सिर पर डाली और कहा।

- 'तो क्या पीड़ा की बढ़त में चेहरा हँसता हुआ हो जाता है?' अचरज से उसने कहा और चुप हो गया। केशव ने भी कोई जवाब नहीं दिया। बैड़ी से नीचे उतरते ही, गाँव के रास्ते पर दोनों ओर रुखड़ों की कतार शुरू हो जाती है। गाँव के अधिकतर लोगों के घर का गोबर-पूँजा और कचरा वे अपने-अपने रुखड़ों पर डालते हैं। बाद में यही कचरा खाद की तरह खेतों में चला जाता है। इन्हीं रुखड़ों के किनारों पर कुछ औरतें टट्टी बैठ रही थीं, जो इन दोनों को देखते ही खड़ी हो गई। इन दोनों ने भी उन औरतों की ओर नहीं देखा और न औरतों ने इनकी ओर नजरें उठाई। यह गाँव का अलिखित और अघोषित कायदा है। दोनों खामोशी से इतने निस्पृह होकर चलते रहे जैसे औरतों की वहाँ उपस्थिति की उन्हें खबर ही न हो। ऐसी तल्लीनता और निस्पृहता बताना भी जरूरी है। वे दोनों निकले जब तक औरतें अपने-अपने लोटे को घूरती रहीं। उन दोनों के थोड़ा आगे निकलते ही औरतें फिर नीचे बैठ गईं।

फिर घर तक दोनों चुपचाप आए। पिछवाड़े से घर में दाखिल होकर वह कोने में रखे तपेले से पानी निकालकर राख से हाथ धोने लगा। फिर पैरों पर पानी डालकर वह भीतर कमरे में आया तो देखा, भायजी खटिया पर बैठा है और हाथ में एल्युमिनियम का मैला-सा गिलास है जिसमें निश्चित ही महुए की शराब है। वह फिर उस कमरे से निकलकर पिछवाड़े आ गया। चूल्हा लगभग ठंडा पड़ा है। यानी भाबी खाना देर से बनाएगी। उसने टीन के पतीलों और तश्तरियों को देखा तो तय किया कि अगली बार शहर से स्टील के कुछ ढंग के बरतन ले आएगा। फिर वह खुद ही बुझ रहे चूल्हे को लकड़ी से खखोड़ने लगा और चाय बनाने के लिए पतीली में पानी डाला। तभी भाबी भीतर आ गई। भाबी ने उसके हाथ से पतीली लेकर उसे झिड़कने लगी कि, क्या मुझे नहीं कह सकता था? वह कुछ नहीं बोला, वहाँ से उठकर फिर से खटिया पर आ बैठा। भाबी ने चाय बनाकर दी तो चाय पीते हुए उसने सोचा कि भाबी के लिए अगली बार एकाध लुगड़ा ले आएगा।

चाय पीकर वह उठा और उसी पिछवाड़े के हिस्से में आ गया। बिखरे कुयड़ों से बचते हुए वह दीवार के करीब आकर दूसरी तरफ केशव के घर में झाँकने लगा। केशव पिछवाड़े ही था। अपनी भाबी से चाय बनाने के लिए गरज कर रहा है। उसकी भाबी उसे चाय की अपेक्षा दूध पीने का आग्रह कर रही है।

- 'चाय पीकर क्यों कलेजा जलाता है? दूध पी ले।' कहकर केशव की भाबी पतीली धोने खुले में आ गई। केशव भी उसके पीछे आया और उसको देखकर दीवार के करीब आ गया।

- 'दूध ही बनाऊँगी उसमें बोर और विटा डाल दूँगी, बदन को ताकत मिलेगी।' केशव की भाबी ने इकतरफा निर्णय के साथ लालच भी दिया। उसे बोर और विटा पर आश्चर्य नहीं हुआ। निमाड़ी में और के लिए न का उच्चारण है। जैसे चाय और दूध के लिए चाय न दूध इसी तर्ज पर उसकी भाबी बोर्नविटा को बोर न विटा और फिर बोर और विटा के संशोधन तक ले आई थी।

उसने तो केशव के कंधे पर हाथ मारा कि आखिर बोर्नविटा इस टपरे में दाखिल हो ही गया। केशव हँसने लगा। उसकी हँसी जैसे हँसी। केशव की भाबी ने दूध का कप लाकर केशव को थमा दिया। यह गाँव का एक अघोषित और अलिखित शिष्टाचार है, जो जातीय सूत्रों से मिलता है। केशव की भाबी ने उससे की पूछने की जरूरत भी नहीं समझी। केशव ने हाथ में कप ले लिया। लेकिन दूध पीने की अपेक्षा उसे दीवार पर रख दिया। केशव अपनी भाबी की तरह मुरव्वत नहीं तोड़ पाया। - 'तू घर ही रहना। मैं अभी आकर बताता हूँ।' कहकर केशव ने कप उठा लिया। वह वापस पलट गया। केशव पलटकर भीतर चला गया। वह भी पलटकर भीतर जाने लगा तो बेखयाली में उसका पैर राख ढँके गूँ के कुयड़े पर पड़ ही गया। झल्लाकर वह वहीं खड़ा हो गया। फिर लँगड़ाता हुआ वह पीछे दरवाजे के पास रखे मटके से पानी निकालकर पैर पर डालने लगा। साथ ही पैर को पत्थर पर रगड़ता भी जा रहा था। पैर धोकर वह सावधानी से भीतर आया।

भाबी खाना बनाने की तैयारी कर रही है। वह खटिया पर लेट गया। पता नहीं कितनी देर इस तरह लेटा रहा जब भाबी ने उसे खाने के लिए उठाया। तब उसे मालूम हुआ वह लेटे-लेटे एक झपकी ले चुका है। भाबी ने काँच की एक बोतल में घासलेट भरकर ढक्कन में छेद करके एक बत्ती खोंस दी थी। वही जल रही है।

दाल-रोटी और प्याज के टुकड़े। ऐसा नहीं कि खाने में स्वाद नहीं है लेकिन उसका मन उचट रहा है। जल्दी से खाना खाकर उठा फिर खटिया पर आकर बैठ गया। पता नहीं कब केशव आवाज दे ! उसने सोचा खटिया इस ढलवाँ छत से बाहर निकालकर पिछवाड़े की खुली चार-दीवारी में डाल दे वहाँ से केशव की आवाज साफ सुनाई दे जाएगी। फिर उसे अपनी नासमझी पर हँसी आई। पिछवाड़े में और इस ढलवाँ छत वाले बगैर दरवाजे के हिस्से में दूरी ही कितनी है? यहाँ भी आसानी से आवाज सुनाई दे जाएगी।

भाबी और बच्चों ने खाना खाया और भीतर चले गए। भायजी अभी खाना खाने की स्थिति में नहीं थे। वह पीछे अकेला रह गया। इतनी देर हो गई अभी तक आया नहीं? उसे केशव पर गुस्सा आने लगा। स्साला पायड़ा कहीं दारू पीने न बैठ गया हो। किसी ने हाथ पकड़ा कि बैठ, 'नाख ले' जरा सी तो 'नाखने' बैठ गया होगा। वह कुढ़ने लगा। तभी दीवार के पास आहट हुई। वह दौड़कर दीवार के करीब पहुँचा। केशव था। उसने धीरे से कहा, - 'डोकरी को लेकर डोकरा पटेलदाजी के घर गया है। जल्दी से बात कर ले।' इतना कहकर आगे के कमरे में चला गया। वह धीरे से चलती हुई दीवार के करीब आई। चाँद की रोशनी में उसने देखा, बगैर बिंदिया और श्रृंगार के सादी-सी सूती साड़ी में उसका लावण्य चाँदनी का मोहताज नहीं था। उसे मालूम है कि गमी के घर में स्त्रियाँ श्रृंगार नहीं करती हैं। बिंदिया नहीं लगाती हैं और साधारण साड़ी पहनती हैं। लेकिन यह अनिवार्यता विवाहित स्त्रियों के लिए है। सविता को यह सब करने की क्या जरूरत है? हालाँकि उसके पतले और गोरे हाथ चूड़ियों के बगैर भी बहुत मोहक लग रहे हैं। एक हाथ उसने दीवार पर रख दिया। लंबे बालों को खींचकर उसने जूड़े की शक्ल में बाँध लिया था। हीरे की एक लौंग उसकी नाक पर चमक रहीं है। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में डर तो नहीं लेकिन एक किस्म की जल्दी और आकुलता है। उसके गोरे चेहरे से दुख का पीलापन अब झरने लगा है।

सविता ने हाथ दीवार पर रखा है। जहाँ पहले ही चाँदनी रखी थी। सविता का हाथ जैसे अब चाँदनी पर रखा था। लेकिन चाँदनी सविता के हाथ पर है। उसने अपना हाथ सविता के हाथ पर धर दिया।

उसने जब दीवार पर अपना हाथ रखा तो लगा, दीवार की छाबन गीले और गर्म हाथ में बदल गई है। बेसाख्ता उसने अपना हाथ खींच लिया। पलभर के लिए बेसाख्ता खींच लिए हाथ को लेकर उसे लगा, जैसे दिमाग के बजाए स्वयं हाथ ने निर्णय ले लिया हो, वहाँ से हटने का। दिमाग द्वारा सोचे जाने से पहले हाथ द्वारा स्वयं हटने का सोचना याद करते हुए वह बचपन के उस गोशे में चला गया, जहाँ ब्राह्मण सेरी की सुंदर और सजी-धजी लड़कियाँ सिर पर जवारे लिए नदी में खमाने के लिए समूह में जा रहीं थीं। वे गणगौर पूजा के दिन थे। गणगौर की पूजा के दिनों में जवारे बोने के बाद पूर्णिमा को कुँआरी लड़कियाँ उन्हें नदी के पानी में सिराने के लिए जाया करती हैं।

उन जाती हुई लड़कियों के पीछे तमाशाई बच्चों के झुंड में वह भी शामिल था। पता नहीं क्या था उनके पास कि उनके झुंड से एक आलौकिक-सी गंध पीछे छूटती जा रही थी, जो पीछे चल रहे भंळई मुहल्ले के बच्चों को खींचती जा रही थी। उसे लगा, वह उनके ब्राह्मण होने की गन्ध है। रंग-बिरंगे रेशमी कपड़ों में लिपटी ब्राह्मण-लड़कियों की देह से ऐसी गंध हमेशा फैलती रहती है। बौरा देने वाली गंध, भरमाने वाली गंध। जो उन लड़कियों के ब्राह्मण होने के कारण ही उसे खींचती रहती है। ब्राह्मण-लड़कियों को देखकर वह अकसर सोचता था, इन लड़कियों को कौन बनाता है? यदि इन्हें भगवान बनाता है तो भंळई लड़कियों को कौन बनाता है? अचानक जाने क्या हुआ कि एक लड़की उसकी तरफ देखकर मुस्काई तो वह मन्त्र मुग्ध-सा उसके पीछे लगभग हाथ भर की दूरी पर चलने लगा। चलते हुए जैसे उसने सैकड़ों फूलों के भीतर अपनी नाक उतार दी हो। पूरे शरीर को पार करती वह बेकाबू इच्छा उसके हाथ में उतर आई कि वह उसे छू दे और, उसने हाथ भर का फासला तेजी से पूरा करते हुए उसके हाथ को छू दिया।

बस छूना भर था कि वह चीखी और फिर तो तहोबाल मच गया। उसके साथ की लड़की ने इतनी बेकदरी से दुत्कारा, जैसे कि लोग गीदे हुए कुत्तों को दुतकारते हैं।

उसके बाद वह लड़कियों के झुंड से ही नहीं, गणगौर के लिए नदी किनारे आई भीड़ से ही अलग हो गया था। लड़कियाँ नदी में जवारे खमा रही थीं और वह उस वेगवती नदी के बहते पानी को किनारे से टकराता देखता रहा था।

बाद इसके दूसरे दिन स्कूल में ब्राह्मण सेरी के लड़कों ने उसको जमकर पीटा था। उस दिन की पिटाई ही थी कि उसने उसके भीतर ऐसा भय भर दिया था कि वह ब्राह्मण लड़की की तो छोड़िए, उसके घर की दीवार की छाँह तक को छूने में डरने लगा था। या कहें, बामणों की 'छावळी भी नहीं दाबी' बल्कि उस छाया से डरने लगा, यों तो कॉलेज में, एकाध दफा ऐसा क्षण उपस्थित भी हुआ कि वह सविता के हाथ को छू दे, लेकिन तुरंत उसके भीतर वह पुरानी और भूली हुई दुत्कार जाने कहाँ से उठकर गूँज गई थी।

अभी भी, सविता के हाथ पर विसर-भूले में रख दिए गए अपने हाथ के साथ वहीं अनुगूँज फिर से शरीर के कतरे-कतरे में गूँज उठी।

- 'बहुत मुश्किल से समय निकालकर आई हूँ ! चाँदनी की सतह पर उसका चेहरा थरथरा रहा है।

- 'मैं मुश्किल से तो नहीं लेकिन दूर से आया हूँ।' वह धीरे से बोला, - 'दादी की मौत का जानकर बड़ा दुख हुआ !'

- 'ओ हाँ...!' वह इस तरह चौंकी जैसे उसे याद आया हो कि उनके बीच यह औपचरिकता तो बाकी थी। - 'बहुत याद आती है !' अनायास वह बोली।

- 'किसकी?' वह चौंक पड़ा।

वह चुप रही। वह समझ नहीं पाया कि यह बात उसने दादी के बारे में कही या उसको कह रही है।

- 'और सुनाओ, पढ़ाई शुरू कर दी?' वह औपचारिक जिज्ञासा से सहसा पूछने लगी।

- 'नहीं अभी शुरू नहीं की है। मैं अगली बार फॉर्म भरूँगा।' उसने उस जिज्ञासा की उँगली पकड़कर आगे बढ़ते हुए कहा,

- 'तुम सुनाओ, फॉर्म तो भर दिया होगा। पढ़ाई शुरू की या नहीं?'

- 'फॉर्म तो भर दिया है, बस, पढ़ाई शुरू नहीं की है। किताबें जरूर खरीद ली हैं। वैसे सुना है इस बार सिलेबस थोड़ा कम कर दिया है। बहुत-सा कोर्स संक्षिप्त किया है।' वह उसी तरह भटकी हुई आवाज में खुरदरी दीवार को घूरते हुए बोली।

- 'यह तो अच्छी बात है !' वह उसको खुश करने के लिए मुस्कराते हुए बोला।

- 'हाँ अच्छा तो है। जितने भंळई मरे, उतनी छीत टली !' वह खोए हुए स्वर में बोली, वह सकते में आ गया। उसने देखा, सविता के चेहरे पर यह खबर कहीं नहीं थी कि वह क्या बोल गई है। उसके मन में यह विचार फिर मजबूत होने लगा कि, सवर्णों के सिर्फ विचार बदलते हैं, संस्कार नहीं। कुछ चीजें तो इनके खून में घुल-मिल गई हैं।

- 'क्या करते हो वहाँ दिनभर !' वह अचानक सिर उठाकर उसकी ओर देखने लगी।

- 'तुमको याद करता हूँ दिन-रात।' वह हँसकर बोला, हालाँकि यह सच है लेकिन उसकी हँसी ने उसे मजाक की तरफ मोड़ दिया।

- 'रात को सोते नहीं हो?' सविता के चेहरे पर मुस्कान आते-आते रह गई।

- 'सोते हुए तो तुमसे मिलता हूँ। कल भी सपने में आई थीं !'

वह उसकी नेल-पॉलिश पर उँगली फिराता हुआ बोला। उसकी उँगली हल्के से काँपी।

- 'क्या था सपना?' उसके चेहरे पर एक ठंडी उत्सुकता थी। वह चुप हो गया। फिर उसकी नेल-पॉलिश को सहलाना बंद करते हुए बोला, - 'बहुत भयानक सपना था ! मुझे खुद पर अचरज हो रहा था। मैं सपने में भी अचरज में था।'

- 'अच्छा ! क्या हुआ सपने में, बताओ?' उसके स्वर का ठंडापन पिघला। उसने बता दिया।

क्षणभर के लिए जैसे वह स्थिर हो गई। फिर हँस पड़ी।

- 'तुम पी.एस.सी. में इतिहास लेकर बैठ रहे हो ना?' वह हँसते हुए बोली, - 'यही तुम्हें तंग कर रहा है।'

- 'तो तुम बचाओ मुझे इतिहास से!' वह मुस्कराकर बोला।

- 'सच पूछा जाए तो मैं ही बचा सकती हूँ तुम्हें!' सविता भी अजीब अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कराकर बोली।

फिर सहसा जैसे वह चौंक गई, 'मैं चलूँ। बहुत समय हो गया। घर पर मेरी खोज शुरू हो जाएगी।'

- 'लेकिन इतनी जल्दी?' वह किंचित घबराहट में बोला, 'बड़ी मुश्किल से तो तुम आई हो। तुम्हें क्या पता तुमसे मिलने के लिए कितने जतन करने पड़ते हैं? अब मैं तो तुम्हारे घर नहीं आ सकता हूँ। तुम तो रुको कुछ देर...!'

- 'क्यों नहीं आ सकते?' उसकी बड़ी-बड़ी आँखें और फैल गईं!

उसे सविता के प्रश्न पर अचरज हुआ। इस प्रश्न के जवाब में उसके लिए अपमान छिपा है। सविता जानती है कि वह क्यों नहीं आ सकता है।

- 'क्यों नहीं आ सकते?' उसने प्रश्न दोहराया फिर बोली, 'तुम्हें आना चाहिए।'

अब तक वह सँभल गया था। मजाक का सहारा लेकर बोला, 'आ जाऊँगा लेकिन खाली हाथ नहीं लौटूँगा।'

सविता के चेहरे पर तनाव दरक गया वह भी मुस्कराकर बोली, 'हमारे घर से आज तक कोई खाली हाथ नहीं लौटा है।' वह सहसा सविता को ध्यान से देखने लगा। उसके स्वर में दर्प नहीं था और चेहरा भी देवताओं की मूर्तियों की भाँति निर्विकार है। जहाँ से कुछ भी पढ़ना असंभव है। वहाँ सिर्फ मनचाहे अर्थ निकालने की मोहलत है। फिर वह मुस्कराई और बोली, 'अधिकार के लिए सबसे पहले याचना को खारिज करना पड़ता है। वर्ना दूरियाँ अनंत लगती हैं।'

- 'तो मैं आज आऊँ?' उसने याचना को खारिज करने का मन बनाया तो संदेह को सवाल में उतार दिया।

- 'आज नहीं कल! कल तक मेहमानों की भीड़ खत्म हो जाएगी।' अब सविता को चेहरा आमंत्रण देती गंभीरता से भरा लगा। वह चुप रहा तो वह फिर बोली, 'यह मत समझो कि मेरा यहाँ आना भी कोई आसान है। लेकिन मुश्किलें बताना भी मुझे उपकार जताने की तरह लगता है। भय और खतरा कम-ज्यादा करके मत देखो। यह दोनों जगह है।' कहकर वह चुप हो गई।

- 'तो मैं कल आऊँगा।' उसने अपनी हिचक को निर्णय की तरह सुनाया। लेकिन आवाज ने आशंका को पकड़े रखा।

- 'तुम चिंता मत करो।' सविता ने उसकी आशंका को दुत्कारा। सहसा वह हँसने लगी ऐसा कमाल वह नहीं दिखा पाया। वह चुप रहा तो सविता बोली, 'कल तेरहवीं की पंगत दस या ग्यारह बजे तक निबट जाएगी। तुम तब आना। मैं छत पर रहूँगी। तब तक सभी सो जाते हैं।' उसने इस बार बहुत सावधानी से बात सुनी और चेहरा पढ़ा लेकिन इस बार भी उसे असफलता हाथ लगी। वह समझ नहीं पाया कि यह आश्वासन है या सूचना भर। सविता की हँसी उसे हमेशा भ्रमित करती है। फिर भी उसने तय किया कि वह इस हँसी की चुनौती स्वीकार करेगा और जाएगा।

उसने देखा, सविता का चेहरा फिर भावहीन है। कुछ देर पहले की हँसी भी उसके चेहरे से उखड़ गई है। वहाँ हँसी नहीं है तो कोई दुख या खिन्नता भी नहीं है।

तभी कोई आहट हुई।

- 'मैं चलती हूँ। कल रात आना!' कहकर वह, पीछे के दरवाजे से यह-जा, वह-जा। वह दीवार के पास चुपचाप खड़ा रह गया। चाँदनी वह दीवार पर ही छोड़ गई थी। अब उसका हाथ खुरदरी दीवार पर रखा है। खाली-खाली सा। चाँदनी अब उसके हाथ पर है। चाँदनी को किसी के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन उसका हाथ वैसा नहीं दमक रहा है। जैसा सविता का हाथ दमक रहा था। तभी चाँदनी में केशव प्रकट हुआ। एकाएक।

- 'गई क्या? डोकरी आने वाली है।' कहते हुए यह देखकर वह आश्वस्त हो गया कि वह चली गई है।

वह दीवार से हटकर एक-ढाली में आकर खड़ा हो गया। फिर खटिया पर बगैर कपड़े बदले लेट गया। वह जानता है। कितनी भी कोशिश कर ले, नींद नहीं आएगी। नींद की कोशिश में वह उठकर टहलने लगा। फिर सहसा वह रुक गया और खटिया के पास की दीवार के ताक में रखी महुए के शराब की मटमैली-सी बोतल निकाल लाया। चूल्हे के पास से एक कप उठाकर उसने एक कप शराब पी और बोतल वापस रख दी। जब वह खटिया पर लेटा तो उसे लगा कि महुए की तरलता ने उसका काम आसान कर दिया?

सुबह जब नींद खुली तो धूप खटिया पर चढ़ने की कोशिश में थी। भाबी ने उसे उठाया भी नहीं था। नौकरी-पेशा बेटे के प्रति इस तरह का लाड़ अकसर जताया जाता है। वह काफी देर तक अलसाया-सा लेटा रहा। भाबी ने बताया कि पतीले में पानी निकाल दिया है चाहे तो नहा ले। उसने छुटके को कहा कि टामलोट में पानी भर दे वह टट्टी जाएगा।

बैड़ी से लौटकर आया तो उसने राख से हाथ धोए। भाबी से कहा कि बैग से उसके कपड़े निकाल दे। वह नहाएगा। नहाकर कपड़े बदले और वह निरुद्देश्य-सा बाहर निकल पड़ा। मुहल्ले में सभी परिचितों के घर से मिलकर वापस लौटा तो दो बज रहे थे। खाना खाकर वह केशव को आवाज देने दीवार के करीब चला आया।

केशव नहीं मिला तो वह अकेला ही गाँव से बाहर निकल आया। इतनी तेज दोपहरी में वह कहाँ जाएगा, उसे खुद नहीं मालूम है। वह महुए के जंगल में निकल आया। यहाँ चारों तरफ छाया है। वह पेड़ से नीचे गिरे हुए पत्तों पर बैठ गया। एक अजीब-सी थकान वह महसूस कर रहा है। बहुत ही परिचित-सी मादक और मीठी खुशबू पेड़ों से उतर रही है। अधलेटा हुआ तो उसकी आँखें बंद हो गई। काफी देर तक वह लेटा रहा फिर उठा और थके कदमों से घर की ओर चल दिया।

घर आकर फिर खटिया पर लेट गया। करवट लेकर भाबी से कहा कि चाय पिएगा। भाबी ने चाय बनाई तो उसने उठकर हाथ-मुँह धोया और चाय पीने लगा।

हालाँकि सविता के जाने के बाद उसने सोचा था कि कल सविता के आमंत्रण में औपचारिक तसल्ली थी या चुनौती? या फिर महज मजाक? लेकिन वहाँ जाने की बेचैनी अब उसके भीतर इतनी ज्यादा है कि किसी भी आशंका और तर्क उसे दबा नहीं सकता है।

शाम हो रही है। उसे रात की प्रतीक्षा है।

पूरा गाँव बामणदाजी के घर जीमने के लिए इकट्ठा हो रहा है। दोपहर से पंगतें जीम रही हैं। रात तक क्रम जारी रहेगा। वह खटिया पर फिर से लेट गया। उसने लाख सिर पटका। करवटें बदलीं। मिन्नतें कीं लेकिन रात अपने समय पर ही आई। रात ग्यारह बजे तक पंगतें खत्म हो गई लेकिन सविता के घर में जाग है। वह बारह बजे के बाद घर से निकला। अब गाँव में सन्नाटा है। उसे खुद अपने घर से तो कोई दिक्कत नहीं है। वह पिछवाड़े का किवाड़ खोलकर बाहर आ गया। आज पता नहीं क्यों मन में आतुरता, उत्सुकता और रोमांच के साथ संशय भी है। बामण-सेरी में पैर रखा तो दिल जोर से धड़कने लगा। किवाड़ की कुंडी भीतर से खुली है। उसने निःशब्द भीतर पैर रखा। अजीब-सी सिहरन दौड़ी भीतर। अँधेरे में भी उसे मालूम है कि ऊपर जाने की सीढ़ियाँ किधर हैं। सविता ने कई बार घर का भूगोल बताया है। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा। सीढ़ियों पर जूठी पत्तलों का ढेर है। शायद बामण परिवार की औरतों की पंगत छत पर बैठी होगी। ऐसा आम होता है। फिर पत्तलें इकट्ठी करके इधर बाहर छत की आखिरी सीढ़ी पर डाल दी होंगी।

वह कोने में खड़ी है, छत पर बनी छोटी-सी, लगभग तीन फीट ऊँची पेरापेट दीवार के पास। वह थोड़ा करीब गया तो हतप्रभ रह गया। वह लाल साड़ी पहने हुए है। माथे पर बिंदिया। पैरों में पाजेब। हाथों में ढेर सारी चूड़ियाँ। उसे लगा छत पर चाँद की नहीं, उसी के सौंदर्य की चाँदनी बिखरी है। आज उसके गोरे चेहरे पर एक मोहक और मादक गुलाबी आभा है। उसे लगा जैसे वह फिर महुए के जंगल में आ गया है।

वह उस दीवार पर हाथ टेककर जोर-जोर से साँसें लेने लगा। छत पर चारों तरफ जूठन फैली है। जिस जगह वे लोग खड़े हैं। अपेक्षाकृत कम है लेकिन फिर भी चावल, दाल और मिठाई की जूठन फैली हुई है। सफाई तो सुबह ही होगी। सविता ने आगे बढ़कर उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया। वह पलटा तो उसका चेहरा उसके चेहरे के बेहद करीब हो गया। उसकी साँसें उसके चेहरे पर लपट सी टकरा रही हैं।

बाहर दूर-दूर तक रात की साँय-साँय है। फिर उसे लगा रात की नहीं शायद उसके भीतर की साँय-साँय है, जो खून में खलल पैदा होने से उठ रही है।

छत के दाएँ हिस्से में आँगन के पेड़ की छाँह है। जिससे अँधेरा नीला हो आया है। उसने एक लपक-सी अनुभव की और सविता को अपनी गिरफ्त में ले लिया। और धीरे-धीरे छत पर गिरती पेड़ की छाँह में ले आया। छाँह के नीचे आते ही उसे लगा, जैसे पूरे संसार की आँखों से ओझल कर लिया है। यह छाँह की वजह थी या खुद सविता के व्यवहार की कि वह खुद को अधिक सुरक्षित और साहसी की तरह अनुभव करने लगा। वह तेजी से अपना दाहिना हाथ निकालकर उसके ब्लाऊज के बटनों को खोलने को उद्धत हुआ तो हाथ साड़ी में उलझ गया। उसे यह सोचकर झुँझलाहट-सी अनुभव हुई कि बाहर से लड़की के देह से सरल ढंग से लिपटी लगने वाली दो-चार मीटर की साड़ी दरअसल कितनी-कितनी पर्तों और तहों में उलझी हुई रहती है। उसे यकायक सविता की देह को निरावृत्त करना मुश्किल लगा।

पलभर के भीतर यह भी लगा कि उसमें सभ्य और सुंदर लड़कियों को साहस के साथ निरावृत्त करने की सूझबूझ नहीं है। और सविता उसकी इस असफलता पर मन में उपहास कर रही होगी। 'रुको!' सविता ने कहा तो वह डर-सा गया। जैसे वह आग्रह नही आदेश हो। फिर हुआ यह कि सविता ने क्षण भर में बाएँ हाथ से साड़ी का कोई सिरा और पल्लू कुछ ऐसी युक्ति से इधर-उधर किया कि उसके उरोज ठीक सामने आ गए। भीतर की धक-धक अचानक दोगुनी हो गई। उँगलियों के पोरों तक में जैसे उसके भय की सूचना पहुँच रही है। उसने मार्क किया कि उस नीले अँधेरे को चाँदनी थोड़ा-थोड़ा पारदर्शी बना रही है। उसी में उसने देखना चाहा कि सविता की आँखों में आमंत्रण की तीव्रता कहाँ तक है, पर वहाँ उसकी मुँदी पलकों के भीतर झाँकने की कोई सहूलियत नहीं है। बल्कि उसकी मुँदी आँखों का यह अर्थ था कि जैसे वह उसे पर्त-दर-पर्त निशंक होकर खोलने का मौका उपलब्ध करा रही है।

उसने ब्लाऊज के बटन खोलने की सोची, पर वहाँ बटन नहीं, कुछ और ही था, जिसे खोलने में उसे दिक्कत आ रही है। शायद उल्टी-सुल्टी दिशा के हुक हैं, जो भूल भूलैया का खेल रचकर उसमें पराजय की फीलिंग पैदा कर रहे हैं। अचानक उसके हाथों की व्यस्त उँगलियों को सविता की उँगलियों के गर्म पोरों ने टोका। अपनी भीतर एक आभिजात्य स्त्री के रहस्य को न समझ पाने की अनगढ़ता चुभने लगी।

क्षण भर बाद ही उसने पाया कि सविता ने जादू की तरह उसकी उँगलियों का उपयोग किया और अब पिस्सी गेहूँ के आटे के पींड के रंग की त्वचा वाले वक्ष उसके सामने हैं, जिसके बीच भूरे अँधेरे के दो गोल धब्बे हैं। उसने ज्यों ही अपना थरथराया दायाँ हाथ वहाँ रखा - सविता का मुँह खुल गया। जैसे उसने बाहर रात की ठंडी हवा को भीतर लेना चाहा हो। आँखों पर ढँकी पलकें आधी खुल आई हैं। उसने उसे खींचकर अपनी सुविधा के लिए थोड़ा तिरछा किया तो चेहरा पेड़ की छाँह से बाहर निकलकर चाँदनी में आ गया। वह चेहरे की तरफ देखता हुआ ठिठक-सा गया, गोरे रंग के चेहरे को घने और काले बालों के ओरा ने घेरकर उसे बहुत अलौकिक और अप्रतिम बना दिया है। त्वचा चाँदनी सोखकर जैसे और गौरवर्णी हो गई हो।

उसे लगा, छत पर चाँदनी से नहीं, जैसे सविता की देह से रोशनी फैली है। जैसे स्वप्नलोक का दरवाजा धीरे-धीरे खुल रहा हो।

उसने सोचा, सचमुच ब्राह्मण-त्वचा ही असली त्वचा है। अकल्पनीय, और यह अलौकिक, परंपरा से रक्षित और वर्जित देह उसकी देह में पिघल रही है। उसे लगा, वह एक पवित्रता को कुचलते हुए अपनी कई पीढ़ियों को पवित्र कर रहा है। सार रहा है।

उसने एक बनैली लपक के साथ उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिए। रखते ही नाभि के नीचे से गर्म पानी की एक लकीर बिजली की सी गति से कौंधती हुई पूरे शरीर में फैल गई, धीरे-धीरे वह शरीर से उठकर होंठों में सिमट आई। वह सविता के होंठों को बेतरह चूमने लगा। चूमते हुए उसे लगा जैसे वह उसका चुंबन नहीं ले रहा है, बल्कि उसकी अभी तक की उम्र की पवित्रता को सोखकर अपने भीतर जमा कर रहा है-उसके सालों की भी नहीं, शताब्दियों से संचित पवित्रता को, जो उसकी त्वचा के रेशे-रेशे में जमा थी।

वह और तेजी से होंठों का इस्तेमाल इस तरह कर रहा है, गालिबन उसकी देह ही नहीं, उसके देह के नीचे उसके घर और जमीन के नीचे पाताल तक पहुँची पवित्रता को उलीचकर अपने अंदर कर लेगा। इसी बीच अचानक उसे लगा कि वह भीतर से इतना अधिक भर आया है कि वह उलीचा हुआ अपनी तरलता के साथ बाहर उफनने वाला है। उसकी साँस फूल आई और वह सविता की बगल में ढुलक आया। सविता ने बाएँ हाथ से उसकी पीठ पर उँगलियों की भाषा में ऐसी कुछ इबारत लिखी, जिसका अर्थ था कि उसमें अभी ऐसा कुछ है, अर्थात जो होंठों से उलीचने के लिए शेष और प्रतीक्षित है। फिर शाइस्तगी से सविता का हाथ उसकी पीठ से सरकते हुए देह के नीचे जाने लगा।

वह तृप्ति के किनारे लेटा हुआ था और भीतर की वेगवती बाढ़ किनारों को छूकर मंथर हो गई थी। तभी अचानक जाने ऐसा क्या हुआ कि सविता ने अपनी देह की मुद्रा बदली और पिंडलियों से कुछ इस तरह हरकत की कि उसकी साड़ी का हिस्सा अलग हुआ और उसने पाया, उसकी शेष देह बिल्कुल निर्वस्त्र है। बाद उसके गोरे और कोमल हाथ अचानक उसकी देह में सृष्टि के सुख का छोर तलाशते हुए उस ओर जाने लगे, जहाँ से गर्म लहर उठने के बाद एक गुजर चुका सन्नाटा भर शेष था। फिर सविता के होंठ एक बेकली से जैसे उसके शरीर के चप्पे-चप्पे की तफ्तीश कर रहे हों।

उसने सविता के वक्ष से हाथ उठाकर कमर की तरफ नाभि से काफी नीचे रखा तो बिजली की गति से सविता ने उसके हाथ को झटककर दूर कर दिया। उसके ऐसे हाथ झटकते ही यक-ब-यक उसके तमाम रोओं की जड़ों के भीतर से एक दुत्कार सी उठी। जो बचपन की उस दुत्कार की तरह ही है जो उसने नदी में जवारे सिराने जाने वाली लड़की के स्पर्श पर अनुभव की थी। उसे लगा जैसे सविता ने उसे उसकी ब्राह्मणी पवित्रता से धकेलकर बाहर कर दिया हो। वह समझ नहीं पा रहा है कि एकाएक सविता के भीतर क्या जाग गया था? जाने कैसा-कैसा तो भी भय भीतर घिरा और उसने पाया कि किनारों पर उफनती नदी एकाएक रेत की नदी हो गई है। बाहर छत की चाँदनी फीकी पजमुर्दा लगने लगी। उसने आँखें मूँद लीं, जैसे अब सविता की तरफ देखने का हौंसला हाथ से फिसल गया है और उसके आभिजात्य ने बहुत चालाकी से कुचल दिया है। उसके भीतर एक हिकारत और गुस्सा एकत्र होने लगा। उसे लगा, उसके भीतर गुजर रहे इस अप्रत्याशित क्षणों को शायद सविता ने भाँप लिया है और करवट बदलकर अब उसने उसकी पूरी देह को ढाँप लिया, उसकी देह पर झुकी सविता की आँखों में असीम अनुराग है। गोया वे आँखें पूछ रही हों कि अचानक तुम्हें क्या हो गया था? फिर सविता ने बहुत आहिस्ता से बगल से उसका हाथ खींचकर अपने वक्ष पर धर दिया। तब उसे लगा, सविता की ब्राह्मणी पवित्रता ने नहीं, बल्कि एक दग्ध और प्रतीक्षित कामिनी ने उसकी अनगढ़ दैहिक समझ को दुत्कारा था।

सविता के होंठ उसके होंठ पर इस तरह और इतनी तत्परता से आ जुड़े जैसे वे उसके द्वारा पी गई पवित्रता को फिर से अपने अंदर सोखकर उसे खाली कर देगी। लेकिन, उसकी काया का करिश्मा ही कुछ अलग था कि उसमें सतह से ऊपर उठने का साहस भर आया।

अब की बार जब सविता ने उसको अपनी ओर खींचा तो उसके होंठों को अपने होंठ के भीतर लेते हुए उसे ऐसी फीलिंग हुई जैसे वह किसी निषिद्ध की कठोर लक्ष्मण रेखाओं को तोड़कर उसके भीतर दाखिल हो गया हो। उसे सविता की देह में पुरानी परिचित ब्राह्मण गंध आने लगी, जिसे वह पसीने की गंध से कुचलने की कोशिश कर रहा है। वह उसे आपादमस्तक चूम रहा है और उसके थूक की जूठन सविता की समूची देह पर फैलने लगी।

बाद इसके उसके खून में एक तट को तोड़ती-सी लहर उठती अनुभव की। फिर तट टूटा और चट्टानें चटकीं और जैसे गुनगुनी नदी का स्त्रोत फूट पड़ा हो। सविता की साँसों का अंधड़ उस नदी का अंधड़ बन गया।

सविता के कपड़े अस्त-व्यस्त हैं। छत पर बरसती चाँदनी में खून से भीगी उसकी साड़ी का ढरका हुआ पल्ला उधड़ी हुई रक्तरंजित खाल की तरह फैला हुआ है। उसे पहली बार मूर्च्छित-सी पड़ी सविता को देखकर एक तसल्ली हुई जैसे उसने ब्राह्मणी पवित्रता के कवच को उसकी देह से छीलकर हमेशा-हमेशा के लिए अलग कर दिया हो।

वह थके कदमों से सीढ़ियों की ओर बढ़ गया। कुछ सीढ़ियाँ ही उतरा था कि सीढ़ियों पर रखी पत्तलों पर पैर फिसला। तमाम पत्तलों की जूठन में लिथड़ता, फिसलता नीचे आँगन में जाकर गिरा। उसने खुद पर निगाह डाली। सारे कपड़े जूठन से तर-ब-तर हैं। कमीज से दाल टपककर फर्श पर गिर रही है। उसने अपनी कमीज उतार दी। उसका काला नंगा जिस्म आँगन में चाँद की रोशनी में अंजन की काली लाट की तरह खड़ा है।

सहसा दाएँ किनारे का कमरा खुला और सविता का डिप्टी-कलेक्टर भाई बाहर आया। पीछे के कमरे से सविता के पिता बामणदाजी की घबराई आवाज आई, 'क्या हुआ? कौन है?'

तब तक उसने अपनी देह पर आ गिरी जूठी पत्तलों को उठाकर एक तरफ ढेर लगाना शुरू कर दिया। डिप्टी कलेक्टर ने एक नजर उसे देखा फिर भीतर की ओर गरदन घुमाकर जोर से कहा, 'कुछ नहीं हुआ। मंगत भंळई का छोरा है। जूठन उठाने आया है। आप सो जाइए।'

- 'अरे, तो उसे कहो सुबह आ जाए। जूठन किसी दूसरे को थोड़े ही देंगे।' बामणदाजी की आवाज एक अजीब-सी लापरवाही में डूबती हुई मंद पड़ गई।

उसे लगा जैसे उसने कमीज नहीं उतारी है। इस चाँदनी भरे आँगन में उसकी खींची हुई खाल उसके हाथ में झूल रही है। पीड़ा के अतिरेक में उसने चीखना चाहा लेकिन चीख नहीं निकली मुँह खुला-का-खुला रह गया।

तभी डिप्टी-कलेक्टर भाई अपने नाइट गाउन की रस्सियाँ कसते हुए उसके करीब आया और आश्चर्य से देखने लगा और बोला, 'हँस क्यों रहा है?' वह कुछ नहीं बोला। यह सुनकर वह जूठन से लथपथ पत्तलों को वहीं छोड़कर सीधा खड़ा हो गया। और खुद एतमादी के साथ लंबे-लंबे डग भरता हुआ उनके घर के अहाते से बाहर निकल गया।

अब उसकी इच्छा खूब जोर से ठहाका लगाने की हुई। वह कहना चाहता था कि अब जूठन को लेने के लिए वह लौटेगा नही! बामण सेरी को पार करते हए उसे लगा, जूठी पत्तलें घर के आँगन में छूटी हुई हैं और जूठी देह छत पर। दूर निकल जाने के बाद उसने मुड़कर बामणदाजी के घर की ओर देखा। पजमुर्दा चाँदनी में वह बेरौनक लग रहा है। छत के पीछे सिर झुकाए पेड़ खड़ा है, जो अपनी छाँह को बढ़ाकर सविता की तरफ करने की कोशिश में लगा है। उसे तसल्ली हुई कि ठंडी चाँदनी के बाद सिर्फ गूँगा पेड़ ही तो है, जो गवाह बना रह सकता है।

~भालचंद्र जोशी 

Saturday 14 April 2018

माँ थी तो

माँ थी तो अपना घर मुझको
सबसे अच्छा घर लगता था।

आस लिए आँखों में हरदम
खुलता था घर का दरवाजा
माँ के मुख से मौलसिरी-सा
स्वर झरता था ताजा-ताजा,
जहाँ चाहता खेला करता
नहीं किसी से डर लगता था।

कुशल क्षेम सब पूछ पाँछकर
बचपन के दिन याद दिलाती
जो मुझको अच्छा लगता था
अपने हाथों स्वयं खिलाती,
माँ के ममतामय अंतस से
छोटा हर सागर लगता था

उनकी बातें थीं चंपा की
खुशबू से भी ज्यादा मोहक
कभी मुझे कालिंदी लगती
कभी बनारस का गंगोदक,
आशीषों के अक्षत का-सा
हर अक्षर-अक्षर लगता था।

जब भी वह खत लिखवाती थी
मेरा अंतर अकुलाता था
सब कुछ छोड़-छाड़ कर सीधे
माँ के पास पहुँच जाता था,
अश्रु-कणों से भीगा अक्षर
मुझे बहुत कातर लगता था।


~मधुसूदन साहा 

Wednesday 11 April 2018

व्यथा का सरगम

है। गहरी। काली। नीरव। नि:स्तब्ध। केवल दूर पर कुत्तों के भूँकने की आवांज और कुछ गीदड़ों की। मनुष्य की आवांज तो गाने की एकाध कड़ी के रूप में कभी-कभी सुनाई पड़ जाती है, किसी रिक्शेवाले के किसी रोमांटिक फिल्मी गाने की एक कड़ी; वर्ना सन्नाटा।

पास के ही किसी घर से शहनाई का व्याकुल स्वर आ रहा है। शहनाई भी अजब बाजा है जो दुख-सुख दोनों में समान रूप से आदमी का साथ देता है। आज न जाने क्यों सुरेश्वर...

...मगर आप उसे क्या जानें। आपने शायद कभी उसे बीन बजाते नहीं सुना। जब वह आँख बन्द करके बीन के तारों पर अपनी उँगलियाँ दौड़ाने लगता है तो विश्वास ही नहीं होता कि यह सुरेश्वर जो सामने बैठा है, उसकी अभी उठान पर की उम्र है, उसने अभी कुल तीस बसन्त देखे हैं। उसके स्वरों से प्रवाहित होनेवाली व्यथा की उस सरिता में जिसने भी एक बार नहाया उसका रोम-रोम जैसे काँप उठा और उसे लगा मानो अनेक पतझर और शिशिर बजानेवाले की अस्थि और मज्जा में जाकर बस गये हों।

सुरेश्वर रेलवे के एक आफिस में क्लर्क है। रेलों की घड़घड़ाहट और फाइलों की थकान को अपनी बीन के स्वरों में बाँधकर उसने उन्हें नया ही रूप दे दिया है। दिन-भर की दौड़-धूप के बाद रात को यही उसकी शान्ति का निर्झर है, यही उसका सहारा है, कवच है, मानो यह न हो तो दफ्तर की फाइलें उसे खा जाएँगी। रात को अपना कमरा बन्द करके (जिसमें पड़ोसियों की नींद न खराब हो!) वह अकसर बड़ी देर तक बजाता रहता है। रात को इन घड़ियों का एकान्त उसे बहुत प्रिय है। वह चाहता है कि जल्दी ही सो जाएे जिसमें दूसरे रोंज तक अपनी बीन में खोया रहता है और समझता रहता है कि किसी बिन्दु पर पहुँचकर घड़ी की सुइयाँ अचल हो गयी हैं।....

सो, आज न जाने क्यों सुरेश्वर का मन उदास है। शहनाई का वह पतला स्वर खंजर की तरह उसके दिल के अन्दर उतरता चला जा रहा है। एक अजीब-सी वेदना, एक अजीब-सा दर्द उसे अपने अन्दर समो रहा है। उसकी बीन आज खामोश है। आज तो वह बस सुन रहा है। शहनाई के स्वर की वह बंकिम कटार उसके अन्दर उतरती ही चली जा रही है। सुरेश्वर जानना चाहता है कि अपने उतार और चढ़ाव में वह उससे क्या कहना चाहती है, पीड़ा की वह कौन-सी अतल गहराई है जिसे छू लेने का उसने संकल्प किया है। शहनाई का स्वर उसके गहरे से गहरे मन में एक अत्यन्त सुन्दरी पार्वत्य युवती का आकार ग्रहण कर रहा है। यह युवती किसी क्रूर दैत्य द्वारा शापित है, उसका सखा खो गया है, उसके परिजनों ने उसे छोड़ दिया है और उसे अकेले ही अपनी व्यथाओं का पर्वत ढोना है। उसकी मुखश्री तुहिनस्नात मटर के फूल के समान है, उसके कपड़े हिम के सदृश धवल हैं। पर उसकी मुखमुद्रा को जैसे किसी गहरी उदासी का धुआँ लग गया हो।

...शहनाई के स्वर को इस मानव-चित्र में बदलकर सुरेश्वर उसी को देखता हुआ खोया-सा, ठगा-सा बैठा था। हठात् जैसे किसी ने उसके कन्धे पकड़कर उसे झ्रझोड़ा और होश में ला दिया। और तब उसे पता चला कि वह अपने-आपको छल रहा था। जो मानस-चित्र उसकी आँखों के आगे आ रहा है वह शहनाई के स्वर का चित्र नहीं है, मांस-मज्जा की एक वास्तविक तरुणी का चित्र है जिसे उसने आज ही शरणार्थियों की गाड़ी से उतरते देखा है। वह हजारा जिले की एक सीमान्तदेशीय हिन्दू पठान तरुणी का चित्र है...जब शहनाई ने किसी भयानक दर्द को अपने स्वरों में बाँधने की कोशिश की तो वह व्यथा-सुन्दरी आपसे-आप उसकी आँखों के आगे आ गयी, समुद्र के फेन से निकलती हुई वीनस के समान...

...हाँ, सचमुच वीनस...उर्वशी...तक्षशिला की सुन्दरी...सरो के पेड़ की-सी सुघड़ लम्बाई, स्वस्थ यौवन से भरपूर छरहरा शरीर, सीमांत के कागजी बादाम जैसी ही आँखें, चन्दन-सा गौर, सुसंस्कृत मुखमंडल, लम्बी-सी वेणी। मगर सबके ऊपर अंगराग के स्थान पर उदासी का एक गहरा लेप जो चेहरे के भाव को आमूल बदल देता है। उसे देखकर कोई उच्छृंखल भाव जैसे पास पर भी नहीं मार सकता; देखने के साथ ही उसे लगातार देखते रहने की इच्छा होती है, एकटक, मगर उसके साथ ही साथ पूरे वक्त जैसे कोई भीतर बैठा एक बड़ी तकलींफदेह कड़ी गुन-गुनाता रहता है...


सुरेश्वर ने आज ही तो उनके रहने की जगह देखी। धन्य भाग जो दूसरा महायुद्ध हुआ, वर्ना न लड़ाई होती, न मिलिटरी की बारकें बनतीं और न आज मनुष्य की पशुता से भागकर शरण माँगनेवालों को टिकने का कहीं कोई ठिकाना होता! शरणार्थियों को ये बनी-बनायी बारकें यों मिल गयी गोया इन्हीं के लिए बनाई गयी हों। इन्हीं बारकों में अपने घरबार, खेती-किसानी, दुकानदारी से उखड़े हुए लोग अपना सारा सामान लिये-दिये पड़े थे। टीन के बड़े बक्स, मँझोले बक्स, छोटे बक्स, खाटों के पाये-पाटियाँ, सुतली या बाध, सब अलग-अलग मोड़कर रखी हुईं; चटाइयाँ, एकाध बाल्टी, लोटा, थाली, कनस्तरकिसी-किसी के पास अपना हु€का भी। यही उनकी सारी गिरस्ती थी। इसी गिरस्ती के घिरे-बँधे वे इस नई दुनिया में अपने लिए जगह बना रहे थे। बीविया कुएँ से पानी ला रही थीं या रोटी पका रही थीं और बच्चे धूल में सने, कुछ सहमे-सहमे-से खेल रहे थे, लोहता की खाक का मिलान हजारा की खाक से करके यह पता लगा रहे थे कि पशुता के कीटाणु कहाँ ज्यादा हैं और अपने जेहन से उन डरावनी शक्लों को निकालने की कोशिश कर रहे थे जिन्होंने उनकी नादान जिन्दगी को भी चारों तरफ से डर की रस्सियों से कस दिया था।

यहीं इसी नई दुनिया में उस शाम को सुरेश्वर ने उस व्यथा-सुन्दरी को हलके-हलके रोटी सेंकते देखा था...

...और उसकी विपत्ति की कहानी सुनी थी एक ऐसे आदमी से जो बन्नो की पुरानी दुनिया में भी उसका पड़ोसी था और आज इस नई दुनिया में भी, जिसकी दीवार उठ ही न पाती थी, क्योंकि वह आदम के बच्चे को हाड़तोड़ ईमानदार मेहनत की पुंख्ता नींव पर नहीं बल्कि पब्लिक की दया की थोथी भुस-भुसी नींव पर आधारित थी। सुरेश्वर के यह पूछने पर कि उन्हें यहाँ कैसा लगता है, जिला हजारा की रहनेवाली उस व्यथा-सुन्दरी बन्नो के पड़ोसी उस अधेड़ आदमी ने जो बात कही थी वह सुरेश्वर को भूलती नहीं 'किसी की भीख के टुकड़े पर जिन्दा रहने से ज्यादा लानत की बात दूसरी नहीं होती, बाबूजी!' उसी से सुरेश्वर को यह भी पता लगा था कि बन्नो की शादी हाल ही में हुई थी, उसी गाँव में, जब कि मारकाट शुरू हुई। उसके आदमी को कातिलों ने नेजा भोंककर मार डाला और इसे उठाकर ले गये। फिर बन्नो ने वहाँ क्या देखा और कैसे एक रात जान पर खेलकर वह भाग निकली और छुपते-छुपते दूसरे भागनेवालों के संग जा मिली, इसकी एक काफी साहसिक कहानी थी।

वह अधेड़ आदमी जब शाम के धुँधलके में एक छोटी-सी चारपाई पर बैठा वह किस्सा सुना रहा था, उस वक्त उसकी नायिका बन्नो इतने भयानक अनुभवों, पीड़ाओं और साहस को अपने उस नाजुक शरीर में समेटे खामोशी के संग रोटियाँ सेंक रही थी। उसी खामोशी से अपनी तकलींफों को सहते-सहते वह कुछ-कुछ विक्षिप्त-सी हो गयी थी, बोलने या हँसने में भी अब शायद उसे तकलीफ होती थी। उस दुनिया की तमाम और चीजों के संग जिनमें उसकी असमत और उसका पहरेदार भी था, उसका बोलना और हँसना भी जलकर राख हो गया था। पाँच हंजार या पचास हंजार साल पहले आये भूडोल में उसकी जिन्दगी के बिना पलस्तर के, टूटे हुए मकान में (अभी उसकी शादी को हुए ही कै दिन हुए थे!) उसकी उमंगों के पंछी भी जहाँ-तहाँ मरे पड़े थे; जो कभी सर्द लाशें थीं वही अब ठठरियाँ हो गयी थीं और शीशे की तरह चमकीले किसी पत्थर में गोया हँसी बीच में ही रुक गयी थी, मुँह खुला का खुला ही रह गया था।

बारक के पास ही कुआँ था। कुएँ के पास ही एक कोठरी-सी थी। पता नहीं, लड़ाई के दिनों में वह किस काम में आती थी, अब तो वह खाली पड़ी रहती है, लड़के दिन के वं€त उसमें लुकते-छिपते हैं।

आज शाम के साढ़े सात बजे उसमें अचानक बड़ी जान आ गयी थी। बन्नो पानी भरने गयी तो थोड़ी दूर पर ही उस कोठरी से उसे किसी के चीखने या चीख के जबर्दस्ती रूँध दिये जाने की हलकी-सी आवांज आयी, हलकी मगर पैनी। कुछ मर्द आवांजों की फुसफुसाहट भी उसके कानों में पड़ी। उसने तय किया कि पता लगाना चाहिए। पानी लेकर लौटी। पानी रखा। एक ताक पर से अपना खंजर उठाया और चली।

वह कोई दस गज की दूरी पर रही होगी जबकि कोठरी में से किसी आदमी ने कुछ खोजने के लिए एक दिया-सलाई जलायी जो भक् से बुझ भी गयी।

बन्नो ने देखा कि चार-पाँच आदमियों ने एक नौजवान लड़की को ंजमीन पर दाब रखा है, लड़की चित लेटी हुई है या लिटायी हुई है, उसके तन पर एक भी कपड़ा नहीं है, दो-तीन जवान उसके हाथ-पाँव कसे हुए हैं और वह मादरजाद नंगी लड़की छटपटा रही है...


कुछ खास जोशीले 'शरणार्थी' नौजवानों के एक गिरोह ने आज शिकार किया था। उनका ंखून भी खून है, पानी नहीं, उन्हें बदला लेना आता है, वह अपनी जिल्लत का बदला लेंगे, अपने धर्म की किसी लड़की की लुटी हुई अस्मत का बदला वो दुश्मन की लड़की की अस्मत लूटकर चुकाएँगे।

पास के एक गाँव से पाँच-छ: नौजवान कुछ चोरी और कुछ सीना-जोरी (यानी एक-दो आदमियों को घायल करके) एक लड़की को उठा लाये थे और इस वं€त बारी-बारी से उसकी अस्मत लूटकर न सिर्फ अपने वहशीपन को खुराक पहुँचा रहे थे बल्कि उसके साथ-ही-साथ अपनी कौम की खिदमत भी कर रहे थे।

एक लमहे को जो दियासलाई जली थी उसमें बन्नो ने इन कौम के खादिमों को अपने कर्तव्य में रत देख लिया।

उसे बात समझने में जरा भी देर नहीं लगी। एक तो स्थिति यों ही दियासलाई की लाल-सी रोशनी में इनसान की हैवानियत की तरह स्पष्ट थी, दूसरे बन्नो...उसे भी €या कुछ बतलाने की जरूरत थी। वह जो कि खुद ऐसे ही एक नाटक की नायिका रह चुकी थी!

बन्नो के भीतर बैठे हुए पशु की आत्मा को गम्भीर सन्तोष मिला, गहरी तृप्ति का सुख...इसे ऐसे ही चीर डालना चाहिए...इसी का खुदा उन जानवरों का भी खुदा है...इसे यों ही चीर डालना चाहिए...


बन्नो के भीतर ही भीतर पैशाचिक उल्लास की लहर दौड़ गयी।

मगर कोई डेढ़-दो मिनट के अन्दर ही एक विचित्र मरोड़ के साथ एक दूसरी लहर उठी .साँप काटने पर आदमी को जो लहर आती है वह लहर, उसमें झाग निकलती है!

बन्नो को लगा कि जैसे वह एक बड़े आईने के सामने हो। जो लड़की जमीन पर मादरजाद नंगी, चित लेटी है वो वही है, बन्नो, उसी को आधी दर्जन बाँहें जमीन से चिपकाये हुए हैं और भेड़ियों जैसी भूखी-भूखी ये आँखें वही हैं जो पहले भी उसे यों ही घूर चुकी हैं...

'कौन है, कौन है, यहाँ €या हो रहा है?' चिल्लाती हुई वह खंजर हाथ में लिए तेजी से कोठरी में दांखिल हुई। अन्दर खलबली मच गयी। एक-दो ने पहले भागने की कोशिश की, मगर फिर सबने यही तय किया कि देखना चाहिए मांजरा €या है, हमारे काम में खलल डालनेवाला यह कौन-सा शैतान जमीन पर उतर आया।

बन्नो ने एक-दो जवानों पर हमला किया, मगर वे सधे हुए खिलाड़ी थे, बच गये और बन्नो की तरफ लपके कि उसके हाथ से खंजर छीन लें, मगर इसके पहले कि वे ऐसा कर पाएँ, बन्नों ने बिजली की तेजी से दौड़कर उस लड़की के पेट में खंजर भोंक दिया था और वही खंजर अपने सीने में चुभा लिया था।

~अमृत राय 

Wednesday 4 April 2018

मकान

चाभी ताले में फँसा कर उसने उसे घुमाया तो उसने घूमने से कतई इनकार कर दिया। उसने दुबारा जोर लगाया परंतु कोई परिणाम नहीं निकला। अपनी जेबें टटोलना शुरू कर दीं। ऊपर वाली जेब में उसे स्टील का बाल प्वाइंट पेन मिल गया। उसने उसे जेब से निकाल कर चाभी के माथे में बने सूराख में डाल कर, मुट्ठी की मजबूत पकड़ में लेकर पेंचकस की तरह जोर से घुमाया। खटाक की एक आवाज के साथ ताला खुल गया। कुंडी खोलने में भी उसे काफी परेशानी हुई। जिन दिनों वह यहाँ रहता था शायद ही कभी यह कुंडी बंद हुई हो। इसीलिए उसे हमेशा ही बंद करने और खोलने, दोनों में ही, परेशानी होती थी। कुंडी खोल कर उसने दरवाजे में जोर का धक्का दिया। दरवाजे के पल्ले काफी मोटे और भारी थे। उनमें पीतल के छोटे-छोटे फूल जड़े थे, जिनमें छोटे-छोटे कड़े लगे थे, जो दरवाजा खुलने-बंद होने में एक अजीब जलतरंगनुमा आवाज करते थे। दरवाजा खोल कर वह दहलीज में आ गया। घुसते ही उसने देखा, फर्श पर कुछ कागज आदि पड़े थे। उसने झुक कर उन्हें उठा लिया। दो लिफाफे, एक पोस्ट कार्ड और एक तह किया हुआ कागज था। शायद पोस्टमैन डाल गया हो, उसने सोचा, उसने उनके भेजने वालों के नाम पढ़ने चाहे परंतु वहाँ प्रकाश बिल्कुल नहीं था और कुछ भी पढ़ सकना असंभव था।

उसने आगे बढ़ कर जीने के पास का स्विच टटोला। अँधेरे में स्विच ढूँढ़ने में उसे कुछ कठिनाई हुई। वैसे जब वह यहाँ रहता था तब कितना ही अँधेरा क्यों न हो कभी ऐसा नहीं हुआ कि पहली बार में ही उँगली अपने आप स्विच पर न पहुँच गयी हो, उसे आश्चर्य हुआ कि स्विच ऑन करने पर भी प्रकाश नहीं हुआ। हो सकता है जीने का बल्ब फ्यूज हो गया हो, उसने सोचा। तभी उसने गौर किया कि नीचे का पाइप जोरों से बह रहा है। लगभग एक वर्ष से मकान बंद था। इसके मायने इतने दिनों से यह पाइप लगातार बह रहा है। उसने अंदर वाले दरवाजे की कुंडी टटोली। उसमें ताला नहीं था। अटैची उसने वहीं दहलीज में रखी रहने दी और कुंडी खोल कर अंदर आ गया। अंदर का स्विच दबाने से भी रोशनी नहीं हुई। केवल आँगन में हल्की चाँदनी की बर्फियाँ कटी हुई थीं जो ऊपर लोहे के जंगले से छन कर आ रही थीं।

वह वापस दहलीज में आ गया जहाँ मेन स्विच लगा था। हो सकता है वही ऑफ हो, उसने सोचा और जेब से माचिस निकाल कर उसके प्रकाश में उसे देखा। परंतु मेन स्विच ऑन था। जीने का बल्ब भी ठीक ही लगा, तभी उसे ध्यान आया कि किसी के भी न रहने पर बिजली का बिल इतने दिनों से अदा नहीं हुआ होगा, अतः हो सकता है बिजली कंपनी वालों ने कनेक्शन ही काट दिया हो। तब क्या होगा? वह रात कैसे काटेगा? देखा जायेगा, उसने सोचा और दुबारा माचिस जला कर अंदर आ गया ताकि कम-से-कम पाइप तो बंद कर दे। परंतु पाइप में टोंटी ही नहीं थी। उसमें दाना निकले हुए मकई के गुट्टे का टुकड़ा खोंस कर उसे कपड़े से बाँधा गया था। कपड़ा सड़ कर फट गया था जिससे पानी बहने लगा था। उसने उसे वैसे ही पड़ा रहने दिया और अटैची हाथ में लेकर सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर के खंड में आ गया।

ऊपर छत पर काफी चाँदनी थी। छल्ले से चाभी खोज कर उसने कमरे का ताला खोला और अंदर कमरे में आ गया। यहाँ का स्विच भी उसने ऑन कर के देखा परंतु कोई नतीजा नहीं निकला। अटैची एक किनारे रख कर माचिस जला कर वह इधर-उधर देखने लगा। तभी उसे अल्मारी में एक मोमबत्ती दिखाई दे गयी जिसे पहले किसी ने जलाया था। उसने उसे जला कर वहीं दीवाल में बने हुए ताक में चिपका दिया।

दीवाल से लगे पलँग पर बैठ कर उसने सिगरेट जला ली और नीचे से उठा कर लाये हुए पत्र देखने लगा। पहले उसने तह किये हुए कागज को देखा। वह बिजली के बिल की फाइनल नोटिस थी। कोई दस महीने पुरानी। तब उसने पोस्टकार्ड देखा। उसका एक कोना फटा हुआ था। उसने जल्दी-जल्दी उसे पढ़ा। पत्र उसके ननिहाल से आया था, जिसमें उसे उसके मामा के मरने की सूचना दी गयी थी। वह मामा के वजूद को भी भूल चुका था। ननिहाल गये हुए भी उसे आठ-दस वर्ष हो चुके थे। कार्ड वहीं खाट पर डाल कर वह लिफाफे खोलने लगा। एक किसी शादी का निमंत्रण था। उसने उसे ही पहले खोला। किसी 'राजकुमार' की शादी पर उसे बुलाया गया था। उसने अपनी स्मरण शक्ति पर बहुत जोर दिया परंतु उसे लगा कि न तो वह किसी राजकुमार से परिचित है और न ही कार्ड पर छपे किसी अन्य नाम से। पता सीतापुर का था। उसे ध्यान आया कि सीतापुर में उसके पिता की बुआ के कोई संबंधी रहते हैं। कौन, यह वह नहीं जानता था। परंतु वे लोग जरूर उससे परिचित होंगे क्योंकि निमंत्रण उसी के नाम से आया था। आज से कोई आठ वर्ष पहले पिता की पहली बरसी पर माँ के कहने पर उसने अपने सभी रिश्तेदारों को बुलाया था। उनके पते उसने ताऊ के लड़के से, जो उससे उम्र के काफी बड़ा था, लिये थे, उसके बाद से आज तक वह उन लोगों से नहीं मिला था। माँ के मरने की उसने किसी को भी सूचना नहीं दी थी। इस प्रकार पते तो अलग, उन लोगों के चेहरे भी वह अब तक भूल चुका था। उसने कार्ड पर छपी तारीख देखी। वह कोई तीन महीने पुरानी थी।

उसने दूसरा लिफाफा खोला। वह उसके अपने मित्र विपिन का था जो पिछले दिनों इंग्लैंड चला गया था और वहीं किसी अंग्रेज लड़की से शादी कर ली थी। उसने लिखा था कि कुछ दिनों के लिए बहन की शादी पर वह स्वदेश लौट रहा है, वह उससे जरूर मिल ले। यह पत्र भी तीन-चार महीने पुराना था। विपिन उसका बचपन का मित्र और सहपाठी था। उसे अफसोस हुआ कि वह उससे मिलने से वंचित रह गया। गलती उसकी अपनी थी। अपने ट्रांस्फर के बारे में उसने विपिन को कोई सूचना नहीं दी थी। हो सकता है विपिन यहाँ आया भी हो और घर में ताला लगा देख कर लौट गया हो।

गली की ओर का दरवाजा खोलकर वह बालकनी पर आ गया। एक कोने में घर की बेकार चीजों, जैसे खाली बोतलों, टूटी अँगीठियों और कनस्तरों आदि का ढेर लगा था। उसके बगल में एक पुरानी बाल्टी में लगा तुलसी का एक सूखा पेड़ रखा था जो शायद इतने दिनों तक पानी न मिलने से सूख गया था। यह पेड़ उसकी माँ ने लगाया था। जब तक वह जिंदा थीं वह रोज इसमें पानी देती थीं। माँ की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी और उसके ट्रांस्फर के बाद छोटे भाई की पत्नी यह काम करती थीं। अब छोटे भाई का ट्रांस्फर हुए भी एक वर्ष होने आ रहा था। और इस प्रकार खाली घर में पड़ा हुआ यह पेड़ पानी के अभाव में सूख गया था।

वह बालकनी की दीवार पर थोड़ा झुक कर सिगरेट पीने लगा। गली में बिजली का सरकारी बल्ब जल रहा था। परंतु काफी सन्नाटा था। उसने कलाई पर बँधी हुई घड़ी देखी। पौने नौ हुए थे। अभी से इतना सन्नाटा! उसे आश्चर्य हुआ। जब वह यहाँ था तो रात देर तक गली में रौनक रहती थी। मुरली बाबू के दरवाजे की शतरंज तो बारह बजे और कभी-कभी उसके बाद तक चलती थी। पता नहीं मुरली बाबू अभी जीवित हैं या नहीं। उनके घर के सामने बिल्कुल सन्नाटा था। तभी उसने देखा, कोई आदमी साइकिल लिये हुए गली में आ रहा था। वह गौर से देखने लगा। गली के एक-एक व्यक्ति को वह पहचानता था। जन्म से लेकर तीस-बत्तीस वर्ष तक वह इसी मकान में रहा था। परंतु वह कोई अजनबी व्यक्ति निकला, जिसे वह पहली बार देख रहा था। वह उसके मकान से आगे जा कर बच्चू बाबू के मकान के सामने रुक गया। साइकिल गली में खड़ी कर के उसने दरवाजे की कुंडी खटखटायी। गोद में बच्चा लिये हुए किसी महिला ने दरवाजा खोला और वह व्यक्ति साइकिल उठा कर अंदर चला गया। शायद कोई किरायेदार हो, उसने सोचा।

वह दुबारा अंदर आ गया। खाना वह स्टेशन में आते समय होटल में खा आया था। रात उसे मकान में काटनी थी। बारिश के दिन आ गये थे। भाई ने मकान छोड़ते समय उसे बेच देने का सुझाव रखा था क्योंकि वह तो मुस्तकिल तौर से दूसरे शहर का हो गया था, भाई के भी वापस इस शहर में ट्रांस्फर होने की कोई उम्मीद नहीं थी। और फिर मकान की हालत दिन-ब-दिन खराब होती जा रही थी। ऊपर के कमरों की छतें चूने लगी थीं। परंतु उसने भाई का सुझाव नामंजूर कर दिया था। उसे उसने लिख दिया था कि मकान खाली करके चाभी वह उसे भिजवा दे। अगली बरसात से पहले आकर वह उसकी मरम्मत करा देगा। इसी उद्देश्य से वह वहाँ आया था।

उसने देखा, कमरे की दो ओर की दीवारों पर पानी बहने के निशान बने थे जो शायद अभी तक नम थे। इसके मायने दो-एक बारिशें यहाँ हो चुकी हैं। दीवार में एक जगह क्रैक भी आ गया था।

उसने छत पर निकल कर मौसम का जायजा लिया। आसमान साफ था और हवा में कोई खास ठंडक नहीं थी। उसने चारपाई बाहर छत पर निकाल ली और अटैची से दरी, चादर और तकिया निकाल कर बिस्तर लगा लिया। परंतु उसे नींद नहीं आ रही थी। न ही लेटने की इच्छा हो रही थी। वैसे उसके पास अटैची में दो-एक पुस्तकें थीं, जिनमें से एक को उसने लगभग आधा सफर में पढ़ा भी था और वह उसे आगे पढ़ना चाहता था। परंतु बिजली न होने के कारण दिक्कत थी। मोमबत्ती का प्रकाश काफी नहीं था। अतः उसने बिस्तर लगा कर कपड़े बदल लिये और पाजामा बनियान पहन कर बिस्तर पर लेट गया। थोड़ी देर लेटने पर उसे लगा कि उसे सफर की कुछ थकान है। लेटे-लेटे ही उसने हाथ-पैरों को इधर-उधर झटका और तब सिगरेट सुलगा कर पीने लगा।

पिता ने जब यह मकान खरीदा था तब वह पैदा भी नहीं हुआ था। उस समय वह कच्चा था। बाद में पिता ने उसे तुड़वा कर नये सिरे से पक्का बनवाया था। उस समय वह कोई पाँच-छह वर्ष का रहा होगा। कच्चे मकान की उसे बिल्कुल भी याद नहीं है। परंतु जब कच्चा मकान टूट कर नया बन रहा था, उस समय की कुछ-कुछ याद उसको है। सामने गली में ईंटों के ढेर लगे रहते थे। वह उन पर चढ़कर खेला करता। एक बार गिर भी गया था और उसके सिर में काफी चोट आ गयी थी, जिसका निशान आज तक उसके सिर में है। खच्चरों पर लदकर बालू, सीमेंट, मौरंग आदि आया करती और वह वहीं खड़ा-खड़ा खच्चरों को गिना करता और तब जा कर माँ को बताया करता कि कितने खच्चर आज आये हालाँकि खच्चरों को वह घोड़े कहा करता था। उस समय घोड़े और खच्चर में फर्क करने की तमीज उसके पास नहीं थी।

एक बार, उसे याद है, दीवार या छत का कोई हिस्सा अपने आप टूट गया था या तोड़ दिया गया था और उसने दौड़ कर माँ से कहा था कि नया मकान गिर पड़ा है। माँ ने उसकी बात सच मान ली थी और हड़बड़ाहट में गली से बाहर निकल आयी थीं, उन दिनों पिता ने उसी गली में एक अन्य मकान किराये पर ले लिया था और सब लोग वहीं शिफ्ट कर गये थे। आफिस से शायद उन्होंने छुट्टी ले रखी थी और नंगे बदन धोती पहने सारा दिन गली में खड़े मजदूरों और कारीगरों को आदेश देते रहते या फिर बड़े-बड़े रजिस्टरों में गुम्मे सीमेंट या मजदूरों की मजदूरी का हिसाब लिखते रहते।

पूरी गली में उसका मकान अपने ढंग का एक बना था। अंदर दालान में खंभों के ऊपर दीवार में फूल-पत्तियों की जालियाँ बनायी गयी थीं। दरवाजों के ऊपर मेहराबों तथा रोशनदानों में भी जालियाँ काटी गयी थीं। हालाँकि जब वह बड़ा हुआ तो उसने अपने कमरे के रोशनदानों की इन जालियों को दफ्ती से ढक दिया था क्योंकि उनसे धूल अंदर भर जाती थी। बारिश में पानी की बौछार से उन पर रख सामान, पुस्तकें आदि भीग जाती थीं। इसके अलावा उन्हें साफ करने में भी बड़ी कठिनाई होती थी। बाहर से सदर दरवाजे में तो न जाने कितनी कारीगरी की गयी थी। पुराने जमाने में मंदिरों जैसी मेहराब बनी थी। उसके अंदर दोनों ओर अर्ध-गोलाकार शक्ल में बड़ी-बड़ी मछलियाँ बनी थीं, जिनके बीच एक बड़े-से ताक में गणेशजी की मूर्ति बनी थी। बाद में उसी गणेशजी की मूर्ति के ऊपर गौरैयाँ अपने घोंसले बनाने लगी थीं। पिता जब तक जीवित रहे, उन्होंने यह घोंसले कभी नहीं बनने दिये। जब भी उनकी निगाह जाती, वे घोंसला उखाड़ कर फेंक देते। परंतु उनकी मृत्यु के बाद तो चिड़ियाँ उनमें अंडे-बच्चे भी देने लगीं। दरवाजे के दोनों ओर खंभे बनाये गये थे, जिनमें फूल-पत्तियाँ, देव और किन्नरियों की मूर्तियाँ आदि काटी गयी थीं। दरवाजे की चौखट में भी, जो खासी चौड़ी थी, काफी कारीगरी की गयी थी। दरवाजे पर गणेशजी की मूति के नीचे पिता ने उसका नाम लिखवा दिया था - 'शंकर निवास'। ऐसा शायद उन्होंने इसलिए किया कि उस समय उसके और छोटे भाई नहीं थे। अंदर दहलीज में सीमेंट के फर्श पर सोरही बनी थी। इस बात को लेकर पिताजी के मित्र अकसर आपस में मजाक किया करते थे कि जगत बाबू ने सोरही इसलिए बनवायी कि मियाँ-बीवी बैठ कर आपस में खेला करेंगे। उसके बाद माँ-बाप ने कभी खेला या नहीं, वह नहीं जानता, परंतु वह जरूर छुटपन में अपने दोस्तों के साथ वहाँ बैठ की सोरही खेला करता था।

यह सब तो बना था, परंतु उस समय मकान कई मामलों में अधूरा रह गया था। ऊपर के किसी भी हिस्से में प्लास्टर नहीं हुआ था। एक छोटे कमरे की छत भी नहीं पड़ी थी। आँगन में जँगला नहीं लगा था। बाहर सदर दरवाजे में पल्ले नहीं लगे थे। ऊपर तिमंजिले पर जाने के लिए सीढ़ी नहीं बनी थी। सामने बाल्कनी की दीवार नहीं बनी थी। छत से आने वाली किसी भी नाली में पाइप नही लगा था। यह सब शायद इसलिए रह गया था, क्योंकि पिता के पास पैसों की कमी पड़ गयी थी। काफी दिनों तक यह इसी तरह पड़ा रहा। फिर कुछ पिता जी के रि़टायर होने पर पूरा हुआ और कुछ उसकी नौकरी लग जाने के बाद। वैसे कुछ चीजें आज भी अधूरी ही पड़ी हैं।

एकाएक वह डर गया। विचित्र-से कोई दो पक्षी कहीं से आ कर उसकी खाट के ऊपर मँडराने लगे थे। और तब वे सामने वाली दुछत्ती की छत के पटरों के बीच किसी सूराख के घुस गये। उसे समझने में कुछ देर लगी कि वे चमगादड़ थे। उसका दिल अचानक तेजी से धड़कने लगा। वह उठकर बैठ गया और उसने नयी सिगरेट जला ली। पहली बार ये चमगादड़ जब पिताजी जीवित थे, तब आये थे और इन्हीं धन्नियों में कहीं घुसे थे। पिता ने दूसरे दिन ही धन्नियों के नीचे नीम की ढेर सारी पत्तियाँ जला कर धुआँ किया था और तब सीमेंट मौरंग से उनमें बने हुए सारे सूराख बंद कर दिये थे। माँ ने शायद उसके अगले इतवार को सत्यनारायण की कथा भी करवायी थी। उसके बाद चमगादड़ दुबारा नहीं दिखाई दिये थे। अब शायद वे स्थायी रूप से यहाँ रहने लगे थे। तभी वे फिर निकल आये। इस बार चार थे। काफी देर वे आँगन में ही इधर-उधर उड़ते रहे। फिर छत के ऊपर आकाश में कही चले गये।

उसने गौर किया, नीचे का पाइप अभी बह रहा था। बाहर के दरवाजे भी, उसे ध्यान आया, उसने बंद नहीं किये थे। अंदर कमरे में जा कर उसने दुबारा मोमबत्ती जलायी और जलती मोमबत्ती लेकर वह नीचे उतर आया। बाहर के दरवाजे खुले हुए थे। उसने उन्हें भेड़ कर अंदर से कुंडी लगा दी। तब अंदर का दरवाजा खोल कर मोमबत्ती पाइप के पास बनी छोटी-सी दीवार पर रख कर इधर-उधर कोई कपड़ा खोजने लगा। एक कोने में उसे फटा हुआ कोई कपड़ा मिल गाया। शायद कोई पुरानी बनियान थी। उसी से उसने एक लंबी पट्टी-सी निकाली और मुद्दे की खुखरी को पाइप में खोंस कर उसे कपड़े से कसने लगा। पानी गिरना बिल्कुल बंद तो नहीं हुआ, परंतु काफी कम हो गया।

वह वापस ऊपर आने लगा, तभी ध्यान आया कि बाहर का दरवाजा इतनी देर खुला पड़ा रहा है, हो सकता है, कोई अंदर घुस कर बैठ गया हो। वह एक बार फिर डर गया। परंतु उसने यह सोच कर अपने मन को तसल्ली दी कि इस वीरान घर में कोई क्यों घुसेगा। फिर भी उसने तय किया कि वह एक बार सारे घर को देख आयेगा। मोमबत्ती अभी काफी शेष थी। कम-से-कम आधेक घंटे वह जल सकती थी, उसने अनुमान लगाया।

आधी सीढ़ियों से ही वह वापस नीचे उतर आया। पहले उसने बाहर का कमरा खोला। इसे पहले, जब सब लोग यहाँ रहते थे, तो 'दरवाजे वाला कमरा' कहा जाता था। जब तक वह इंटर में नहीं पहुँचा था, तब तक यह कमरा उसके पिता के कब्जे में था। उन्होंने इसमें एक तख्त, एक छोटी मेज और दो-चार कुर्सियाँ डाल रखी थीं। दीवालों पर देवी-देवताओं के चित्र लगा रखे थे। अलमारियों में उनके मतलब की अनेक वस्तुएँ, जैसे रिंच, हथौड़ी, प्लास, शतरंज की बिसात और मोहरे आदि रखे रहते। आतशदान के ऊपर कपड़े के दो बस्तों में उनकी पुस्तकें आदि बँधी रखी रहतीं। एक कपड़े में भागवत, महाभारत, रामायण आदि रहतीं, दूसरे में अलिफलैला, गुलसनोबर आदि।

इसी कमरे में पिता अपने मिलने वालों के साथ बैठ कर बातें किया करते थे। दीवाली पर मेज-कुर्सी आदि सब अंदर हटा दी जातीं। फर्श पर दरी और चादर बिछा दी जाती और लक्ष्मी-पूजन के बाद से तीन दिन तक लगातार फ्लश खेली जाती। अधिकतर तो गली के लोग ही रहते। वैसे कभी-कभी बाहर के लोग, पिता के आफिस के सहयोगी आदि भी आ जाते, वह भी अकसर रात में पिता के लाख मना करने के बावजूद आकर वहीं बैठ जाता। कभी-कभी रात भर बैठा रहता, क्योंकि पिता और उनके अन्य मित्र बाजी जीतने से उसे पैसे दिया करते थे। रात भर में वह दो-तीन रुपये की रेजगारी जमा कर लेता।

परंतु जब वह इंटर में पहुँचा, तो पिता अपना सामान अन्यत्र उठा ले गये। शुरू में इस बात को लेकर उसमें और पिता में काफी संघर्ष चला। पिता कहते - सामान वहीं रखा रहने दो, तुम्हारा क्या लेगा! परंतु वह अपने कमरे में रिंच, हथौड़ी आदि रखने के लिए कतई तैयार नहीं था। आखिर पिता ने हार मान ली और उसने कमरे पर अपना अधिकार जमा लिया। उसके आने के कुछ दिनों के अंदर ही कमरे का हुलिया बिल्कुल बदल गया। आतशदान पर नकली फूलों के गुलदस्ते लग गये। देवी-देवताओं के चित्रों के स्थान पर फिल्म स्टारों के चित्र और सीन-सीनरियाँ लग गयीं। अलमारी में रिंच और प्लास की जगह ज्योमिट्री और अलजेबरा की पुस्तकें सज गयीं। बाद में वह इसी कमरे में तख्त पर सोने भी लगा। अकसर छुट्टियों वाले दिन वह अपना खाना भी वहीं मँगा लेता। कभी छोटा भाई दे जाता, कभी माँ।

इस कमरे में रहते हुए उसे जीवन की वह पहली अनुभूति हुई थी जिसे 'किशोर प्रेम' कहा जाता है। उन दिनों वह बी.ए. प्रीवियस में पढ़ा करता था। सामने वाले मकान में एक नये किरायेदार आये थे। नये क्या, काफी दिनों से वहाँ रह रहे थे। पुरुष आर.एम.एस. में काम करता था। वह, उसकी पत्नी, एक छोटा बच्चा और उसकी किशोर बहन, जिसका असली नाम तो वह आज भूल गया है परंतु घर में उसे बिट्टी कहा करते थे, उस मकान में रहते थे। बिट्टी की आयु पंद्रह-सोलह की रही होगी। उसकी आँखें काफी बड़ी और खूबसूरत थीं। बदन भरा हुआ और आकर्षक था।

अचानक एक दिन उसने गौर किया कि जब वह अपने कमरे में बैठ कर पढ़ता-लिखता तो बिट्टी अपनी खिड़की पर खड़ी हो कर उसे देखा करती। उसे कुछ विचित्र-सी अनुभूति हुई थी। बाद में उसने अपनी मेज घुमा कर इस प्रकार लगा ली कि बिल्कुल उसकी खिड़की के सामने पड़ती। अकसर दोनों एक दूसरे को देर तक देखते रहते। फिर पता नहीं कब और कैसे बिट्टी उसके घर भी आने लगी, उसकी माँ के पास। दो-एक बार ऐसा भी हुआ कि सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते दोनों एक-दूसरे से मिल गये। जान-बूझ कर तो नहीं, हाँ अनजाने में एक-आध बार दोनों के शरीर भी छू गये। उन दिनों वह शेली और कीट्स पढ़ा करता था और प्रेम की एक बहुत ही आदर्शवादी कल्पना उसके दिमाग में थी। पूरे एक वर्ष तक ऐसा रहा कि जब भी वह यूनिवर्सिटी से लौट कर आता, वह अपनी खिड़की पर खड़ी रहती। परंतु दोनों में कभी कोई बात नहीं हुई। माँ के सामने जरूर एक-आध बार इंडायरेक्ट ढंग से कुछ बात हुई। परंतु कोई खास नहीं। हाँ, एक बार जरूर एक घटना हुई थी, जिसकी याद आज भी उसे हल्का-सा कहीं गुदगुदा जाती है। रात कोई ग्यारह बजे होंगे। वह बत्ती बुझा कर लेटा ही था कि दरवाजे पर एक हल्की-सी दस्तक हुई। उसने उठ कर दरवाजा खोला तो देखा, बिट्टी खड़ी थी। दरवाजा खुलने के साथ ही वह अंदर आ गयी और चुपचाप खामोश खड़ी हो गयी। उसकी समझ में नहीं आया क्या बात करे? तभी उसने पूछा - क्या बात है?

बिट्टी फिर भी खामोश रही। तब बोली - आपके पास एनासिन तो नहीं है। भइया-भाभी पिक्चर गये हैं। मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा है।

- एनासिन? मेरे पास तो नहीं है। कहो तो बाहर से ला दूँ। उसने कहा। बिट्टी फिर कुछ देर के लिए खामोश हो गयी। तब बोली - नहीं, रहने दीजिए और चुपचाप वापस लौट गयी।

उसके जाने के बाद उसे एहसास हुआ कि बिट्टी शायद एनासिन के लिए नहीं आयी थी। वह कुछ और कहना चाहती थी। बातों के बीच की खामोशी ने शायद उससे कुछ कहा भी था। परंतु वह समझ नहीं सका था। अपनी इस मूर्खता पर उसे बहुत अफसोस हुआ था। उस सारी रात वह सो नहीं सका था। इंतजार करता रहा था कि शायद बिट्टी फिर आये। परंतु वह नहीं आयी। यही नहीं, इसके बाद कई दिनों तक वह अपनी खिड़की पर भी नहीं दिखाई दी।

इस घटना के कुछ दिनों बाद ही बिट्टी का विवाह हो गया। और वह गुड़िया की तरह सज कर अपनी ससुराल चली गयी। वहाँ से लौटने के बाद एक-दो बार वह जरूर अपनी खिड़की पर दिखाई दी। उसके घर भी आयी। परंतु तभी उसके भाई का ट्रांसफर कहीं और हो गया और वे लोग मकान छोड़ कर चले गये। उन लोगों के जाने के काफी दिनों बाद तक उसे बिट्टी की याद आती रही। उसका मन किसी काम में न लगता। घंटों वह पढ़ने की मेज पर बैठ कागज पर बिट्टी का नाम लिखा करता। उसकी ससुराल इसी शहर में थी। अकसर वह साइकिल ले कर उधर से चक्कर भी काटा करता परंतु बिट्टी उसे नहीं मिली। हाँ, एक-आध बार बाजार आदि में उसने उसे अपने पति के साथ इधर-उधर आते-जाते देखा। महीनों इस तरह बिट्टी का ख्याल उसे सताता रहा। उसे लगता, जैसे उसकी अपनी सबसे कीमती चीज किसी ने उससे छीन ली है परंतु धीरे-धीरे सब कुछ फिर सामान्य हो गया।

मोमबत्ती लेकर उसने कमरे में प्रवेश किया। वहाँ काफी गर्द और कूड़ा था। तख्त अब भी अपनी जगह पड़ा था। मेज-कुर्सियाँ शायद भाई अपने साथ ले गया था। अलमारियाँ भी खाली पड़ी थीं। केवल आतशदान के ऊपर गणेश-लक्ष्मी की मिट्टी की पुरानी मूर्तियाँ रखी थीं, जिनका रंग उड़ चुका था। दीवालों पर कुछ चित्र भी लगे थे। एक चित्र आठ देशों के राष्ट्र निर्माताओं, लेनिन, हो ची मिन्ह, गांधी, सुकर्नो, माओ आदि का था जिसे उसने कभी किसी पत्रिका से काट कर स्वयं मढ़ा था। चित्रों का उसे विशेष शौक था। अपने आप वह उन्हें छठे-आठवें महीने निकाला-बदला करता था। परंतु यह चित्र काफी पुराना था। इसे उसने बाद में कभी क्यों नहीं बदला, इसका कोई कारण उसके पास नहीं था।

दीवालों में जगह-जगह लोना लगने लगा था। अलमारियों की चौखट में कई जगह दीमक लग गयी थी। दायीं तरफ वाली दीवाल में काफी सीलन थी। यह सीलन बहुत पुरानी थी। इसका कारण था म्युनिस्पैल्टी का पाइप, जो बाहर गली में उसकी दीवाल से मिल कर लगा हुआ था। जिन दिनों वह इस कमरे में रहा करता था, यह पाइप एलार्म का काम देता था। रेलवे वाले राधे चाचा अपना लोहे का पुराना कड़ेदार डोल लेकर ठीक साढ़े चार बजे पाइप पर पहुँच जाते ओर 'गंगा बड़ी कि गोदावरी कि तीरथ राज प्रयाग, सबसे बड़ी अयोध्या जहाँ राम लीन औतार' का अलाप इतनी जोर से खींचते कि कानों में रुई खोंस कर सोने वाला व्यक्ति भी सोता नहीं रह सकता था। इस अलाप के साथ ही अपने सिर पर पानी की पहली धार अपने ढाई किलो वाले पीतल के लोटे से डालते और 'हर हर गंगे महादेव' की सम पर उतर आते।

इस पाइप की ही वजह से उसके बाहर वाले चबूतरे का काफी प्लास्टर उखड़ गया था। क्योंकि अकसर लोग उस पर कपड़े छाँटने का काम करते थे। कुछ लोग तो बाकायदा साबुन लगा कर फचाफच धोबी घाट खोल देते। पिता, जब तक वह जीवित रहे, अगर कभी किसी को ऐसा करते देख लेते, तो काफी सख्त बातें सुना कर उससे तुरंत चबूतरा धुलवा कर दुबारा कभी ऐसा न करने की कड़ी ताकीद कर देते परंतु उनकी मृत्यु के बाद तो वहाँ बाकायदा धोबी घाट बन गया था और अकसर लोग कपड़े छाँटने के बाद बिना उन्हें धोये ही साबुन का झाग वहाँ छोड़ कर चले जाते।

उसने आगे बढ़ कर दीवाल को दाहिने हाथ की तर्जनी से छुआ तो लाल चूने का ढेर-सा मुसमुसा प्लास्टर अपनी जगह गिर पड़ा। जाने किसके कहने पर पिता ने इस कमरे में लाल चूने का प्लास्टर कराया था। केवल दीवालों तक। छत और फर्श सीमेंट के थे। बल्कि छत में खासी फूल पत्तियाँ बनायी गयी थीं, जिनके बीच बड़े-बड़े लोहे के कड़े लटकाये गये थे। इन कड़ों को हाथ से खींचने वाला पंखा लगाने के लिए लगाया गया था। पिता की काफी साध थी कि वह पंखा लग जाये। परंतु उनके जीवन में उनकी यह साध पूरी न हो सकी। मकान बनवाने में ही काफी कर्ज उनके ऊपर हो गया था जिससे वह जीवन भर उबर नहीं पाये थे।

कमरे से बाहर निकल कर उसने उसके दरवाजे की कुंडी लगा दी और दहलीज से होता हुआ अंदर दालान में आ गया। अंदर दो दालानें थीं -- एक दूसरे से नब्बे अंश का कोण बनाती हुई। पहली दालान छोटी थी। इसमें एक ओखली बनी हुई थी, जिसमें माँ कभी-कभी दाल वगैरह कूटा करती थीं। वैसे इस दालान का कोई खास उपयोग नहीं था सिवाय जूते-चप्पल उतारने के, या ईंधन रखने के। या फिर जब वह इंटर में पहुँचा था और पहली बार घर में एक पुरानी नीलामी की साइकिल आयी थी, उसके रखने के। हाँ, इसमें मिली हुई दूसरी दालान का, जो अपेक्षाकृत काफी बड़ी थी, बड़ा विविध उपयोग होता था। शादी-ब्याह के मौकों पर इसमें औरतों का गाना-बजाना, रतजगे और स्वाँग होते थे। इसी में लोगों को खाना खिलाया जाता था। गर्मी के दिनों में घर के लोग यहीं दोपहरी काटा करते थे क्योंकि धूप यहाँ जाड़ा, गर्मी, बरसात कभी नहीं आती थी। इसी दालान में उसके छोटे भाई का जन्म और पिता की मृत्यु हुई थी। यहीं फर्श पर उसके पिता की लाश बीस घंटे तक रखी रही थी और उसने सारी रात उसके बगल में बैठ कर जागते हुए बितायी थी।

इस दालान से मिली हुई एक छोटी कोठरी थी, जिसके अंदर दिन में भी अँधेरा रहता था। उसके अंदर एक बड़ी अलमारी थी तथा दीवाल में एक ओर लकड़ी के दो बड़े-बड़े टाँड़ बने थे। इन टाँड़ों पर उन दिनों न जाने कितने बर्तन, पीतल की बड़ी-बड़ी परातें, बटुए, बाल्टे, कड़ाहियाँ, थाली, लोटे आदि भरे रहते थे। लोग उन्हें शादी-ब्याह में माँगने आया करते थे। उसे आश्चर्य हुआ कि आज वे सब कहाँ चले गये। उसके पास तो उनमें से एक भी नहीं है। भाई के पास भी नहीं है। जाने कैसे इसी घर में वे कहीं बिला गये। इसी कोठरी में बड़े बाल्टों में साल-भर के लिए अनाज भर कर रखा जाता था। यह उसे बहुत पुरानी याद है, वरना जब से वह हाई स्कूल में पहुँचा है तब से तो महीने-महीने का राशन उसे राशन वाले की दुकान में लाइन लगा कर लाना पड़ता था। इसी कोठरी में ऊपर एक दुछत्ती बनी थी जिसमें प्राकृतिक प्रकाश नाम की कोई चीज सर सी.वी. रामन के सिद्धांत के बावजूद कभी नहीं पहुँची। इसके अंदर घुसना भी एक कमाल हुआ करता था क्योंकि उसका रास्ता छत में एक चौकोर सूराख काट कर बनाया गया था। आज तो शायद वह उसमें घुस नहीं सकता। हाँ, जब छोटा था, तो जरूर गेहूँ के बाल्टे पर चढ़ कर, जो ठीक उस सूराख के नीचे रखा रहता था, घुस जाता था। यह दुछत्ती क्यों बनायी गयी, वह कभी समझ नहीं पाया। शायद पिता ने सोचा रहा हो कि कभी इस घर में सोने-चाँदी की ईंटें हुईं तो उन्हें जतन से छुपा कर रखना होगा। परंतु उसे जिन चीजों का ध्यान इस दुछत्ती में होने का है वह कुछ इस प्रकार थीं - टूटे संदूक पुराने कनस्तर, खाली बोतलें, पुराने जूते, टूटे छाते, बाँस के डलवे आदि। उसने सोचा, कोठरी का दरवाजा खोल कर अंदर जाये परंतु फिर टाल गया।

इसी कोठरी के बगल में एक कमरा था, जिसे 'मुन्नू दादा वाला कमरा' कहा जाता था क्योंकि उसके चचाजाद भाई, जिनका नाम मुन्नू था, कभी इसमें रहा करते थे। उनकी सारी पढ़ाई-लिखाई, पालन-पोषण, शादी-ब्याह सब उसके पिता ने किया था। शादी के बाद मुन्नू दादा अपनी पत्नी के साथ इसी कमरे में रहा करते थे। उन थोड़े दिनों के लिए इस कमरे का हुलिया बदल गया था। अन्यथा यह खाली पड़ा रहता था। उन दिनों इसकी खिड़कियों में पर्दे लग गये थे। अंदर दीवालों पर कैलेंडर तथा अन्य चित्र लगे थे। एक कोने में भाभी का श्रृंगारदान रखा रहता था। दो एक मेज-कुर्सियाँ भी आ गयी थीं।

मुन्नू दादा की शादी, जो इसी शहर में हुई थी, मुहल्ले की कुछ नामी-गरामी शादियों में से एक थी। यह इसलिए था क्योंकि उनकी बारात में हाथी-घोड़े आदि शामिल थे। डेढ़-दो दर्जन स्त्री-पुरुष हाथों में रंगीन कागजों की झाँकियाँ लेकर चल रहे थे, जिनमें नोट चिपके थे। साथ ही मुहल्ले से निकलने वाली किसी बारात में पहली बार पुलिस बैंड आया था। भाँड़ ओर तवाइफें भी थीं। माँ ने इन सब बातों के लिए मना किया था परंतु पिता हठी किस्म के आदमी थे, शुद्ध मध्यवर्गीय संस्कारों से ग्रस्त। उन्होंने अपने प्रोविडेंट फंड से कर्ज लिया था। महाजनों से भी कुछ उधार लिया था और जिसे घर फूँक तमाशा देखना कहते हैं, वही किया था। यह सब इसलिए ताकि रिश्ते और मुहल्ले वाले कोई यह न कह सकें कि भतीजे की शादी पर जगत बाबू कंजूसी कर गये। परंतु इसके बाद जो महाजनों का घर पर आने का सिलसिला शुरू हुआ तो पिता की मृत्यु के बाद तक समाप्त नहीं हुआ। एक महाजन तो उनकी मृत्यु के तीसरे-चौथे दिन ही आ धमका था क्योंकि उसके प्रोनोट की तारीख निकल रही थी और उसे भय था कि कहीं उनका बेटा प्रोनोट बदलने से इनकार न कर दे।

शादी कुछ और मायनों में भी उसके खानदान में महत्व रखती थी। क्योंकि द्वाराचार के समय किसी बात को लेकर मुन्नू दादा ने अपने ससुर को झापड़ मार दिया था। ससुर ने तो कुछ नहीं कहा था परंतु लड़की वालों की तरफ से और लोग काफी बिगड़ गये थे। बात लाठी-बंदूक तक पहुँची थी। आखिर किसी तरह से निपटारा हुआ और मुन्नू दादा अपनी दुल्हन लेकर घर लौटे।

परंतु इसके बाद मुन्नू दादा अधिक दिनों घर में नहीं रहे। उनकी पत्नी और उसकी माँ में कुछ अनबन रहने लगी। पहले तो घर में ही दो चूल्हे जले। और तब पहली बार नीचे के हिस्से में बनी कमरे से लगी हुई रसोई का इस्तेमाल हुआ अन्यथा जब से मकान बना था, वह खाली पड़ी हुई थी। परंतु यह सिलसिला भी ज्यादा दिनों नहीं चला। जल्दी ही मुन्नू दादा घर छोड़ कर चले गये और धीरे-धीरे दोनों परिवारों में आना-जाना तक बंद हो गया। इस घटना के दस-पंद्रह वर्षों बाद जब वह बड़ा हुआ और होली-दिवाली पर उसने मुन्नू दादा के यहाँ आना-जाना शुरू किया तो संबंध एक बाद फिर से बनने लगे।

वह आँगन में खड़ा था। इसी आँगन में शादी-ब्याह के अवसरों पर मंडप बनाया जाता था। उसके ब्याह के समय भी यही मंडप बना था और हालाँकि शादी-ब्याह की रस्मों से उसे बेइंतहा दर्जे तक चिढ़ थी फिर भी तेल-उबटन वाले कुछ स्वाँगों में उसे भाग लेना पड़ा था।

मुन्नू दादा वाले कमरे की कुंडी बंद थी। उसने उसे खोला नहीं, केवल खिड़की के सीखचों से, जिसमें दरवाजे नहीं थे, अंदर झाँक कर देखा। अंदर अँधेरा और सीलन थी, दीवाल पर गेरू से स्वस्तिक-सा कुछ बना हुआ था।

कुछ देर वह इसी तरह खिड़की के सींखचे पकड़े खड़ा रहा। तब वापस मुड़ गया। बाहर दहलीज में आ कर उसने नीचे के हिस्से के दरवाजे की कुंडी लगा दी और सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ ऊपर आ गया। सीढ़ियाँ चढ़ रहा था तो मोमबत्ती का पिघलता हुआ गर्म-गर्म मोम उसकी उँगली पर गिर पड़ा और वह जल गया। उसने मोमबत्ती दूसरे हाथ में पकड़ ली और जली हुई उँगली मुँह में डाल कर चूसने लगा। ऐसा करने से उसे कुछ राहत मिली।

ऊपर पहुँचते ही वह एक बार फिर डर गया। उसके बिस्तर पर एक मोटी-सी काली बिल्ली बैठी थी। उसे देखते ही वहाँ से कूद कर वह दीवाल पर जा कर बैठ गयी और वहाँ से उसे अपनी चमकदार आँखों से देर तक घूरती रही। उसने उसे भगाया तभी वह वहाँ से हटी।

एक क्षण वह वहीं छत पर खड़ा रहा। तब मकान के ऊपर वाले भाग का निरीक्षण करने लगा। पहले उसने पीछे वाले हिस्से का कमरा खोला। यह काफी बड़ा था। परंतु लोग इसमें रहते नहीं थे। ज्यादातर इससे स्टोर का काम लिया जाता था। रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाला राशन, आटा, दाल, चावल आदि इसमें रखा जाता था। एक अलमारी थी, जो तरह-तरह के अचारों के मर्तबानों में भरी रहती थी। रोजमर्रा के इस्तेमाल वाले बर्तन भी इसी कमरे में रहते थे। उसी जमाने की लकड़ी की एक बड़ा-सा संदूक जिसमें देशी घी का बर्तन, तेल, मसाला आदि चूहों से बचाने के लिए रखे जाते थे। अब भी एक कोने में पड़ी थी। उसका ऊपर का ढक्कन, जो बीच से आधा खुलता था, टूट गया था। उसने निकट जा कर मोमबत्ती की रोशनी में उसमें झाँक कर देखा, उसमें कुछ कंडे और लकड़ी के टुकड़े पड़े थे।

दीवाल पर 'हरछट' बनी हुई थी। यह कौन-सी देवी हैं, वह आज तक नहीं जान पाया। माँ किसी खास दिन यह पूजा किया करती थीं। जब भी यह त्यौहार आता था, माँ सुबह से उपवास करके बड़ी लगन से पीड़े में रुई भिगो कर दीवाल पर यह चित्र अंकित करती। देवी का पेट चौकोर होता। चारों कोनों पर छोटे-छोटे दो पैर होते। ऊपर नुकीला बर्फी नुमा सिर होता। पेट के अंदर माँ जाने क्या-क्या सूरज-चाँद, गंगा-यमुना, सूप-चलनी आदि बनातीं। वह सोचता, यह देवी, जिनके पेट में सारा संसार समाया होता है, जरूर बड़ी शक्तिशाली होती होंगी। फिर आज तक उसने उनका नाम कहीं और क्यों नहीं सुना? इन्हीं देवी के साथ-साथ माँ एक और चित्र बनाती थीं। वह भी कुछ इसी तरह प्रकार का होता था और उसे ऐसे स्थान पर बनाया जाता था कि देवी और धोबन एक दूसरे को देख न सकें। हिन्दू समाज में धोबन का भी बहुत महत्व है। क्योंकि उसे याद है कि किसी और त्यौहार पर धोबन माँ को सुहाग देने आया करती थीं। माँ कहती थीं कि धोबन का सुहाग अमर होता है। सारे संसार को सुहाग बाँटने पर भी उसका सुहाग कम नहीं होता। मगर बावजूद इसके कि माँ हर वर्ष धोबन से सुहाग लिया करती थीं, और उसके अलावा भी अपने सुहाग की रक्षा के लिए कितने ही तीज-त्यौहार मनाती थीं, व्रत रखती थीं, उनकी मृत्यु विधवा होकर हुई थी।

इस कमरे की छत भी चूती थी। यह तो उन्हीं दिनों से चूती थी जब वह यहाँ रहा करता था। छत की धन्नियाँ भी बोल गयी थीं। उसने मोमबत्ती के प्रकाश में देखा, दीवालों पर पानी बहने के निशान थे। बीच की एक धन्नी भी काफी नीचे झुक आयी थी। यही एक कमरा था जिसमें पिता ने स्लैब न डलवा कर धन्नियाँ डलवायी थीं। इसके पीछे भी शायद कहीं पैसों का अभाव था।

कमरे से वह उसके बगल कोठरी में आ गया, जिसकी छत उसकी नौकरी लग जाने बाद पड़ी थी। इससे खाना पका करता था जिसकी वजह से इसकी सारी दीवालें और छत धुएँ से काली पड़ गयी थीं। बहुत दिनों तक इसमें दरवाजा भी नहीं था, जिसके कारण अकसर बंदर इसमें घुस कर खाने-पीने का सामान उठा ले जाते थे। बाद में जीने का नीचे वाला दरवाजा वहाँ से उखड़वा कर यहाँ लगवा दिया गया। जीने वाला दरवाजा उसके बाद आज तक नहीं लग सका।

कोठरी से निकल कर छत पर से होता हुआ वह गली की तरफ वाले कमरे में आ गया, जिसमें अटैची रखी थी। इससे मिला हुआ कमरा और था जो शुरू में काफी छोटा था परंतु बाद में उसकी शादी के अवसर पर उसे तोड़ कर और बड़ा किया गया। विवाह के बाद वह इसी कमरे में रहने लगा था। रहने तो खैर पहले से ही लगा था परंतु विवाह के बाद यह कमरा उसका निजी कमरा हो गया था और उसकी पत्नी के अलावा शायद ही कभी कोई इसमे आता हो। पत्नी का सारा सामान भी इसी कमरे में रखने लगा था। इसका भी एक दरवाजा बाहर बाल्कनी पर खुलता था।

उसके विवाह के अवसर पर मकान में इस प्रकार के छोटे-मोटे कई परिवर्तन हुए थे। जैसे ऊपर छत पर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी थीं। मकान में बिजली का कनेक्शन लिया गया था। ऊपर गली की तरफ वाले दोनों कमरों में प्लास्टर हुआ था। बाल्कनी की दीवाल बनी थी। और एक बार फिर घर का घटता हुआ कर्ज दुबारा बढ़ गया था।

इस कमरे से होता हुआ वह फिर बाल्कनी पर आ गया। गली में लगा हुआ बिजली का बल्ब अब तक बुझ चुका था। केवल एक हल्की चाँदनी गली के फर्श और मकानों की दीवालों पर बिखरी हुई थी। इक्का-दुक्का किसी-किसी घर में प्रकाश हो रहा था। अन्यथा ज्यादातर मकानों की बत्तियाँ गुल थीं।

काफी देर तक वह इसी तरह खड़ा रहा। गली में घटने वाली कितनी ही छोटी-बड़ी अनेक घटनाओं, शादी-ब्याह, लड़ाई-झगड़े प्रेम-विद्रोह, जन्म-मृत्यु का वह साक्षी था, सारी बातें उसे एक-एक कर याद आ रही थीं। कितने और नये लोग आ गये होंगे। कुछ अजीब-सी अनुभूति में डूबा सम्मोहित-सा वह बाल्कनी पर खड़ा रहा।

थोड़ी देर ऐसे ही खड़े-खड़े उसने एक सिगरेट पी। तब वहाँ से हट आया। लौटते समय उसने बाल्कनी का दरवाजा बंद किया तो वह आसानी से बंद नहीं हुआ। दोनों पल्ले भिड़ा कर उसे जोर से धक्का देना पड़ा। झटके की आवाज से साथ दरवाजा बंद हो गया परंतु साथ ही ढेर-सा प्लास्टर छत से टूट कर फर्श पर गिर पड़ा। मोमबत्ती, जिसे वह पहले ही बुझा चुका था, उसने अल्मारी पर रख दी और छत पर आ कर अपने बिस्तर पर लेट गया।

इस मकान को बनवाने में पिता आर्थिक रूप से टूट गये थे। और बार-बार टूटे थे। परंतु यही मकान कई बार उनकी परेशानियों में आड़े भी आया था। कई बार उसे गिरवी रख कर उन्होंने बड़े-बड़े काम निकाले थे। आखिरी बार तो यह हाथ से निकलते-निकलते रह गया था। आखिर इसे छुड़ाने के लिए उन्हें देहात की सारी जायदाद बेचनी पड़ी थी। लेटे-लेटे उसने अनुमान लगाया कि इसकी मरम्मत में उसे कितना खर्च करना पड़ सकता है। लगभग एक हजार रुपये वह लेकर आया था। परंतु एक हजार में एक कमरे की स्लैब पड़नी भी मुश्किल थी। जिस जर्जर हालत को यह मकान पहुँच चुका था, यहाँ आते समय उसने इसकी कल्पना नहीं की थी। वैसे यहाँ उसके बहुत से मित्र थे, जिनसे जरूरत पड़ने पर वह कर्ज ले सकता था। लेटे-लेटे वह उनके बारे में सोचने लगा।

देर तक उसे नींद नहीं आयी। एक बार तो उसकी आँख करीब-करीब लग गयी थी परंतु तभी सिरहाने वाली दीवाल पर बिल्ली आ कर रोने लगी और उसकी नींद उचट गयी।

सुबह उसकी आँख देर से खुली। नहा-धो कर उसने कपड़े बदले और मकान में ताला लगाकर बाहर निकल आया। वह अपने किसी मित्र के यहाँ जा रहा था परंतु उससे कर्ज लेने नहीं बल्कि मकानों का सौदा कराने वाले किसी दलाल का पता पूछने।

~ कामतानाथ 

पागल

पुरुष : "तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुंदर हो जाती है।" स्त्री : "जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों ...